आये दिन फेसबुक और अन्य सोशल साइट्स पर पुस्तक विमोचन की ख़बरें छपती रहती हैं, तस्वीरें, फूल-मालाएँ, बधाई और शुभकामनाओं की ताबड़तोड़ भरमार से हम सब भलीभांति परिचित हैं। उसके बाद समीक्षा और आलोचना का अंतहीन सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। इन साइट्स से उन लेखकों को निश्चित रूप से लाभ हुआ है जो वर्षों से लिखते तो आ रहे हैं लेकिन अपनी कोई पहचान न बना सके। पुरुष अपनी नौकरी के चलते और महिलाएं घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों के बीच उतना समय नहीं निकाल पातीं लेकिन अब इंटरनेट के जरिये जनमानस तक पहुंचना अत्यन्त सुलभ हो गया है।
लेखन, एक आत्मिक संतुष्टि देता है। अपने विचारों की अभिव्यक्ति का बेहतरीन माध्यम है ये। लेकिन क्या हर 'लिखा हुआ' साहित्य ही होता है? या कि 'प्रकाशित' हो जाना भर ही लेखन का एकमात्र उद्दे...
प्रीति अज्ञात