आलेख
विदेश में हिंदी अध्यापन की समस्याएँ: संध्या चौरसिया
आज दुनिया का कोई भी कोना ऐसा नहीं है, जहाँ भारतीय न हो। अनिवासिया भारतीय सम्पूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। दुनिया के लगभग डेढ़ सौ से अधिक देशों में दो करोड़ से अधिक भारतीय हिन्दी बोलने वालों में हैं। इसी कारण हिन्दी का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है। हिंदी का साहित्य अपनी सांस्कृतिक के विरासत का सूचक है। हिन्दी का विकास आदिकाल से वर्तमान काल तक एक भाषा के रूप में हमारे समाने हुआ है। हिन्दी भाषा अपने स्वरूप का विस्तार करती हुई, अपने आपको जातीय भाषा से राजभाषा-राष्ट्रभाषा का रूप ग्रहण कराती हुई, अपने अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विश्वभाषा के रूप में सामने आई है। ‘‘विश्व स्तर पर हिंदी साहित्य के माध्यम से जहाँ दूर-दराज तक फैले अप्रवासियों को आपस में जोड़ने का कार्य किया जा रहा है, वही अप्रवासियों की आंतरिक अनुभूतियों, सांस्कृतिक विरासत, चिंतन और संवेदनाओं को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हिंदी अपनी सार्थक भूमिका निरंतर निभाती रही है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि संप्रेषण की नवनवीन तकनीक के साथ तालमेल स्थापित कर हिंदी की भूमिका को और अधिक महत्त्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है।’’1
हिन्दी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा मानी जाती है। विश्व में भारतीय संस्कृति और भाषा के प्रति लोगों में जिज्ञासा का भाव संस्कृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन से हुआ है। इसी कारण से धीरे-धीरे विश्व में हिंदी भाषा और उसके साहित्य के प्रति आकर्षण उत्पन्न होना प्रारम्भ हो गया। हिंदी भाषा एवं साहित्य प्रचार-प्रसार एवं अध्ययन-अध्यापन के सभी कार्यक्रम उन्नत एवं प्रभावशाली रहे हैं। जहाँ हिंदी भाषा के प्रयोग से भारतीयों की अस्मिता को बनाए रखने में सार्थकता मिली है। वहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी माँग दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है।
विदेशों में चालीस से अधिक देश है, जिनके लगभग 160 से अधिक विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में हिंदी अध्ययन और अध्यापन का कार्य बड़ी कुशलता के साथ चल रहा हैं। इन सभी देशों में हिन्दी अध्यापन के अपने-अपने कारण हैं, इन्हें हम वर्गों में विभाजित कर सकते हैं- (1) जिन देशों में भारतीयों की संख्या अधिक है- नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका और मालदीव। (2) भारतीय संस्कृति से प्रभावित दक्षिण पूर्वी एशियाई देश है- मलेशिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि। (3) जहाँ हिंदी को विश्व की आधुनिक भाषा के रूप में महत्व दिया जाता है- आॅस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, यूरोप आदि। (4) इसके अन्तर्गत अरब और अन्य इस्लामी देश- जैसे संयुक्त अरब अमीरात, अफगानिस्तान, कतर आदि। भारत से बाहर इन सभी देशों में हिंदी बोलने, लिखने-पढ़ने तथा अध्ययन-अध्यापन का कार्य चल रहा हैं। “वास्तव में कई रूकावटें तो विसंस्कृतिकरण से पैदा हुई हैं। भारत की तुलना में कई गुना ज्यादा विसंस्कृतिकरण पाकिस्तान में हुआ है और इससे हिन्दी तो क्या उर्दू भी प्रभावित हुई है।”2
रूसी हिन्दी विद्वान प्रो. येगेनी चेलीशेव लिखते हैं, “हमारे विचार में हिन्दी को विश्व भाषा बनाने के हित में हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में काम कर रहे विभिन्न देशों के विद्वानों, लेखकों, अध्यापकों, अनुवादकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का एकजुट होकर प्रयास करना उचित होगा। इस उद्देश्य से हिन्दी भाषा और साहित्य का अन्तर्राष्ट्रीय संघ स्थापित किया जाना चाहिए जैसे कि रूसी भाषा और साहित्य के अध्यापकों का अन्तर्राष्ट्रीय संघ तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत संघ है।”
अमेरिका और ब्रिटेन जैसे अंग्रेजी भाषी देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी की समस्याएं अन्य देशों, जैसे- फ्रांस, चैक, पोलैंड, इटली, रूस, जापान, कोरिया आदि के विश्वविद्यालयों के पढ़ने-पढ़ाने वाले देशों की समस्या से अलग हैं। सभी देशों में हिन्दी को पढ़ाने की प्रणाली अलग है। जैसे- अंग्रेजी भाषी देशों में हिन्दी को भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाता है। परन्तु अन्य देशों के विद्यार्थी अपनी मातृभाषाओं जैसे- चेक, फ्रांसीसी, रूसी, पोलिश, जर्मनी, चीनी, जापानी आदि भाषाओं के माध्यम से हिंदी का अध्यापन किया जाता है। अध्यापन कार्य में सभी के अपने अपने माध्यम हैं, इसी विभिन्नता के कारण अध्यापन की समस्याएँ कहीं अधिक बढ़ जाती हैं। यह एक बड़ी गलतफहमी है कि अंग्रेजी भाषा को अगर जानते हैं तो आप विश्व पर विजय प्राप्त कर लेगें। परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि विश्व के अधिकांश देशों के निवासी अपनी-अपनी भाषा में ही अध्ययन और अध्यापन का कार्य करते हैं। जवाहरलाल नेहरू ने चालीस वर्ष पहले एक बात कहीं थी, जो आज के संदर्भ में सत्य है- “मैं अंग्रेजी का इसलिए विरोधी हूँ क्योंकि अंग्रेजी जानने वाला व्यक्ति अपने को दूसरों से बड़ा समझने लगता है और उसकी दूसरी क्लास-सी बन जाती है। यही तथाकथित इलीट क्लास होती है। जबकि भारत को छोड़कर शेष विश्व में इलीट क्लास की भाषा फ्रेंच को माना जाता है।”3
विदेशों मे हिंदी पढ़ाने वाले व्यक्तियों की सबसे पहली समस्या हिंदी शिक्षण का माध्यम है। जहाँ अंग्रेजी भाषी व्यक्ति होंगे, वहाँ पर तो अंग्रेजी माध्यम से काम चल जायेगा पर कुछ देश ऐसे उदाहरण के रूप में समाने आते हैं, जहाँ फिर अंग्रेजी से काम नहीं चलेगा। यहाँ पर यदि आप अंग्रेज़ी बोलेंगे, तो होटल का रास्ता तक नहीं मिलेगा। इटली एवं फ्रांस इसके उदाहरण हैं। अगर आप कक्षा में अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ायेगे तो विद्यार्थी या तो कक्षा छोड़कर चले जायेंगे या फिर आप पर हँसेंगे। अगर कभी ऐसा हो कि किसी विदेशी को हिंदी सीखने के लिए अंग्रेज़ी सीखनी पड़े तो शायद विदेशी व्यक्ति हिन्दी सीखने का विचार ही त्याग देगा। विदेशों में हिंदी अध्यापन का कोई एक ही माध्यम नहीं है बल्कि अनेक माध्यम हैं। कुछ देश ऐसे भी हैं, जहाँ हिंदी को हिंदी के माध्यम से ही पढ़ाया जाता है। हिंदी के अध्यापन के माध्यम की विभिन्नता अध्यापकों के लिए चुनौती के रूप में समाने आती है।
भारत में हिंदी के अधिकांशतः अध्यापकों की यही विडम्बना है कि चाहे वे हिंदी के कितने महापण्डित क्यों न हो, परन्तु अंग्रेजी भाषा वे केवल काम चलाऊ ही जानते हैं। इन अध्यापकों को यह कहने में शर्म आती है कि वह अंग्रेज़ी नहीं जानता। वहीं उसके विपरीत स्थिति अंग्रेजी भाषा बोलने वालों की है। अंग्रेज़ी भाषी यह कहने से नहीं शरमाते की वे हिंदी नहीं जानते। वहीं अंग्रेज़ी भाषी लोग अपने अंग्रेजी और हिंदी के ज्ञान के बल पर, अंग्रेज़ी भाषी देशों में अपना वर्चस्व बना लेते है। विदेशों में हिंदी पढ़ाने के लिए एक अध्यापक के सामने एक बड़ी समस्या यह भी है कि वे कितनी विदेशी भाषाएँ सीख सकते हैं?
इसका तात्पर्य यह हुआ कि विश्व को ऐसे हिंदी अध्यापकों की आवश्यकता है जो विभिन्न विदेशी भाषाओं का ज्ञान रखते हों, यह हिंदी अध्यापकों के लिए उनके समक्ष एक चुनौती के समान है कि वे हिंदी के साथ-साथ अन्य विदेशी भाषाओं का ज्ञान भी रखते हों। पर सच्चाई यह है कि हिंदी अध्यापक जो हिन्दी का अच्छा ज्ञान रखते हैं वह सिर्फ अंग्रेजी भाषा का ही अन्य ज्ञान रखते हैं परन्तु वे अन्य विदेशी भाषाओं का ज्ञान नहीं रखते।
विदेश में हिंदी अध्यापन की समस्याओं में एक बड़ी समस्या हिन्दी की पाठय-पुस्तकों एवं सहायक पुस्तकों की कमी है। इस कमी को अनेक विद्वानों ने पूरा करने का प्रयास किया है। इन विद्वानों में भारतीय विद्वान तो है ही, साथ ही पश्चिमी विद्वानों ने भी योगदान दिया है। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, दिल्ली की महत्वपूर्ण भूमिका को नहीं भूलाया जा सकता है। निदेशालय ने विभिन्न पाठ्य-पुस्तकों की व्यवस्था की है जो अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में पुस्तकें उपयोग की जाती हैं। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- Desk book on Devanagri Script, Hindi Primer-Past 1 to 4, Hindi English Conversation guide, English Hindi Conversation guide आदि। इसके अतिरिक्त विद्वानों ने हिन्दी से संबंधित अन्य विदेशी भाषाओं के शब्दकोशों की भी व्यवस्था की है। यह भी निदेशालय के सहयोग से सम्भव हो पाया है। जैसे- व्यावहारिक हिंदी-अंग्रेज़ी, चैक हिंदी कोश, हिंदी स्पेनी शब्द कोश, हिंदी अरबी कोश आदि।
सत्य बात तो यह है कि हिंदी अध्यापन की जितनी पाठय-पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित हुई हैं, उतनी किसी अन्य विदेशी भाषा में नहीं। उन्होंने विश्वविद्यालयों की अध्यापन व्यवस्था को बहुत सहायता की है। इन पुस्तकों के साथ एक बड़ी समस्या यह रही है कि इस प्रकार की पुस्तकों का स्तरीकरण नहीं हुआ और संशोधन एवं परिवर्धन का कोई प्रयास नहीं किया है। भारतीय एवं पश्चिमी दोनों ही विद्वानों ने पाठ्य पुस्तकों एवं सहायक-पुस्तकों पर अपना व्यक्तिगत योगदान भी दिया है। क्योंकि यें सभी प्रयास व्यक्तिगत स्तर के हैं इसीलिए तालमेल नहीं बैठ पाया है। “हिंदी के विकास में उन विदेशियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही, जिनके पूर्वज भारतीय रहे। इन देशों में माॅरीशस, सूरीनाम, फीजी, त्रिनिदाद, गुयाना आदि देश मुख्य हैं। इन देशों में हिन्दी भाषियों की तरह मूल रचनाकार हैं। इन देशों में हिन्दी में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है और लेखक-रचनाकार अपने-अपने देश की पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ भारत की हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपते रहे हैं। विश्व समुदाय के सामने हिंदी की व्यापक स्वीकृति के लिए प्रभावी प्रयास जारी हैं। विदेशी साहित्यकारों द्वारा हिंदी के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान विशेष उल्लेखनीय है। जितनी मात्रा में विदेशों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन व प्रचार-प्रसार हो रहा है।”4
अंत में यह कहा जा सकता है कि विदेशों में हिंदी अध्ययन एवं अध्यापन, भारतीय अध्यापकों के लिए चुनौतीपूर्ण है। इन चुनौतियों का विदेशों में रह रहे बहुत से हिंदी प्रेमी सामना कर रहे हैं। विदेशों में हिंदी अध्ययन एवं अध्यापन की समस्याएँ एवं समाधान भारत सरकार और हमें मिलकर ही खोजने होगें। विदेशों में हिंदी अध्यापन के लिए अध्यापकों को प्रेरित करना होगा और विदेशों में अध्यापन के बारे में पूर्ण जानकारी एवं उससे संबंधित कोर्सो के बारे में पूर्ण जानकारी उनके विश्वविद्यालयों एवं भारत सरकार द्वारा दी जाये। “अतएव भारत सरकार और भारत की स्वयंसेवी शिक्षण संस्थाओं को चाहिए कि वे इन देशों में ऐसे विद्यालय स्थापित करें अथवा ऐसी व्यवस्था करें जिनमें कि भारतवंशी या प्रवासी भारतीयों के बच्चे भारत में पढ़ सके और हिन्दी सीख सकें।”5
संदर्भ-
1. जुनेजा, पूनम (सं): विश्व हिंदी पत्रिका, विश्व हिंदी सचिवालय, स्विफ्ट लेन, फाॅरेस्ट साइट, माॅरीशस, 2012, पृ.-09
2. हमेश, अहमद: हिंदी शिक्षण अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, 1988, पृ.-71
3. मीणा, रामलखन: प्रयोजनमूलक हिंदीः सृजन और समीक्षा, कल्पना प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ.-07
4. जुनेजा, पूनम (सं): विश्व हिंदी पत्रिका, विश्व हिंदी सचिवालय, स्विफ्ट लेन, फाॅरेस्ट साइट, माॅरीशस, 2012, पृ.-09
5. कंसल, हरिबाबू: विश्व में हिंदी (भाग-1), सुधांशु बन्धु, नयी दिल्ली, 1995, पृ.-81
– संध्या चौरसिया