ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
किसकी बातें हैं अनाकारी की
हद हुई जाती है मक्कारी की
देखिये अब इलाज़ कीजै कुछ
आदमी नाम की बीमारी की
घूस खाए न तो करे भी क्या
कितनी वेतन है करमचारी की?
सुन के थोड़ा क़रार आने लगा
जब चली बात, बेकरारी की
शेख़ जुम्मन-ओ-ख़ाला कैसे हैं
बुझ गई बात? माहवारी की
तो चलें ‘दीप’ कल मिलेंगे फिर
पोटली भर के दुनियादारी की
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ग़ज़ल
मुकम्मल शख़्स होता जा रहा हूँ
दिनों-दिन और खोता जा रहा हूँ
किसे परवाह कल कैसी फसल हो
मुसलसल बीज बोता जा रहा हूँ
न जाने कौन है मुन्शी-मुअइयन
चुकाऊँ लाख, जोता जा रहा हूँ
सुना है, बे-वुजू मिलते नहीं हैं?
लगा कर खूब गोता, जा रहा हूँ
खयालों-ख़्वाब में ही कुछ सुकूँ है
खुली है आँख, सोता जा रहा हूँ
– दीपक शर्मा दीप