आलेख
‘टेपचू’ मजदूर वर्ग के अपराजेय आस्था की कहानी: डॉ. शशि शर्मा
उदय प्रकाश समकालीन दौर के कहानीकारों में एक चर्चित नाम है। उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं पर एक कहानीकार के तौर पर वे अधिक प्रसिद्ध हैं। उदय प्रकाश अपनी कहानियों में प्रयुक्त अलग और अनूठे शिल्प के लिए अधिक चर्चित रहे हैं। अलग और अनूठे शिल्प के द्वारा वे समाज के कड़वे यथार्थ को जिस खूबसूरती से अनावृत्त करते हैं, वह पाठक को सिर्फ हैरत में नहीं डालता, चिंतन-मनन के लिए उत्प्रेरित भी करता है। उनकी कहानियों में ‘छप्पन तोले का का करधन’, ‘तिरिछ’, ‘पीली छतरी वाली लड़की’ ‘दिल्ली की दीवार’ ‘मैंगोसिल’, ‘वारेन हेस्टिंग का सांड’, ’राम सजीवन की प्रेम कथा’, ‘मोहनदास’, ‘टेपचू’ आदि बहुचर्चित कहानियाँ हैं।
उदय प्रकाश ने अपनी कहानियों में किस्सागोई शैली का बेहतरीन प्रयोग किया है। मरणासन्न किस्सागोई शैली को अपनी कहानियों में पुर्नजीवित कर वे कहानी को बहुआयामी सन्दर्भ प्रदान करते हैं। इस सन्दर्भ में ज्योतिष जोशी के विचारों को देखना जरूरी लगता है- “अपने समय के यथार्थ की इतनी गहरी पकड़ और उसके बर्ताव का ऐसा स्थापत्य हिन्दी के किसी भी कहानीकार में नहीं है। कहानियों में शिल्प के निरंतर बदलते प्रयोगों में वे ऐसे जीवंत चरित्रों की सर्जना करते हैं जिनकी स्मृति कभी चेतना से ओझल नहीं हो पाती।………मरणासन्न किस्सागोई को पुनर्जीवित कर उदय प्रकाश ने वैश्विक परिवर्तनों की अपनी समझ और अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा के मेल से ऐसा कहानी-संसार निर्मित किया है जिसका कोई विकल्प नहीं है।”1
कहानीकार उदय प्रकाश की किस्सागोई सहृदय सामाजिक को कभी उद्वेलित करती है तो कभी संवेदित। किस्सागोई शैली में वे जिस परफेक्शन के साथ हमारे आसपास की सामान्य-सी लगने वाली घटना के माध्यम से सामान्यजन की कारुणिक स्थिति और पूंजीपोषित लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था के जनविरोधी मुखौटे को उघाड़ते हैं, वह यथार्थ के प्रति उनकी सूक्ष्म अन्वेषक दृष्टि का परिणाम है। उनकी कहानियों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वे कहानी में खुद भी मौजूद रहते हैं। उनकी मौजूदगी कहानी को रोचक बना देती है। वे पात्रों की संवेदना का संस्पर्श कर हमें यथार्थ से परिचित कराते हैं। ऐसा यथार्थ जिसे समझने के लिए हमें अपने आसपास के समाज का सूक्ष्म अवलोकन करना होगा और यह समझना होगा कि कुछ सच्चाईयाँ अविश्वसनीय अवश्य होती हैं, पर होती है जीवन की ही सच्चाई खासकर जब वह सच्चाई शोषित, उत्पीड़ित वर्ग के संघर्षशील जीवन से संबद्ध हो।
किस्सागोई शैली में लिखी गई ‘टेपचू’ उदय प्रकाश की एक उल्लेखनीय कहानी है। यह कहानी आपातकाल के आसपास रची गयी और 1979-80के आसपास ‘सारिका’ में प्रकाशित हुई। इस कहानी का मुख्य उद्देश्य आपातकालीन दौर में उत्पन्न पराजयबोध और अवसाद को मिटाने का सन्देश देना था। बकौल कहानीकार- “वह एक ऐसी कहानी थी जो सेरीब्रल, बौद्धिक थी, जो लोगों में चेतना पैदा करने के मकसद से और ये बताने के लिए लिखी गई थी कि हमारी जिजीविषा अदम्य अपराजेय है।”2
आपातकाल का दौर व्यवस्था की तानाशाही का दौर था। इस दौर में शोषण का अकल्पनीय रूप सामने आया। शासन के नाम पर निरंकुशता को प्रश्रय मिला। चारों ओर भय और आतंक का वातावरण बन गया। व्यवस्था के विरोध में खड़े हाथ को निर्ममता से कुचल दिया गया। उदय प्रकाश की एक अनोखी विशेषता यह है कि वे अपनी कहानियों में ऐसे चरित्रों की सर्जना करते हैं जो है तो प्रेमचंद के किसान और मजदूर ही पर उनमें प्रतिरोध भावना प्रेमचंद के किसान और मजदूरों से अधिक मुखर है। अपने मूल अधिकारों के लिए उदय प्रकाश के पात्र अत्यधिक चेतस हैं। वे निर्मम स्थितियों के हाथों धराशायी होने के लिए कतई तैयार नहीं। उनमें अदम्य जिजीविषा है। वे विपरीत स्थितियों से सीधा मुठभेड़ करते हैं। दरअसल उदय प्रकाश की कहानियाँ संघर्षरत दुनिया के अंतहीन यातना और अपराजेय संघर्ष की कहानियाँ हैं।
‘टेपचू’ कहानी का केन्द्रीय पात्र टेपचू आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से शोषित मजदूरों का प्रतिनिधि पात्र है। जब तक शोषण-चक्र चलता रहेगा, टेपचू अर्थात संघर्षजीवी वर्ग अमर रहेगा। उदय प्रकाश जब लिखते हैं- “आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहाँ, जब, जिस वक्त आप चाहें मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूँ।”3 तो आश्चर्य होता है कि मरे व्यक्ति से कहानीकार कैसे मिलवा सकते हैं पर सच्चाई यह है कि संघर्षजीवी समुदाय कभी मरता ही नहीं, उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें मृत्यु के मुख से वापस ले आती है। हर जगह यह संघर्षजीवी वर्ग अलग-अलग रूप में मौजूद है। कभी किसान के रूप में तो कभी मजदूर के रूप में अपनी अपराजेय आस्था से यह व्यवस्था की निर्ममता को ठेंगा दिखा रहा है।
‘टेपचू’ कहानी का सारा ताना-बाना टेपचू को केन्द्रित करके बुना गया है। अब्बी और फिरोजा का बेटा टेपचू दो साल की छोटी-सी अवस्था में पितृहीन हो जाता है। यहीं से संघर्ष का एक अंतहीन दौर शुरू होता है | फिरोजा क्षुद्धापूर्ति के लिए घर-घर जाकर दाल-चावल फटकती, खेतों में मजदूरी करती, बगीचों की तकवानी करती तब जाकर कहीं दो जून रोटी जुटा पाती। कहानीकार फिरोजा के माध्यम से स्त्रियों के अनवरत संघर्ष और उनकी जीवटता को रेखांकित करते हैं। कहानीकार लिखते हैं- “गाँव की औरतें सुबह खेतों में जाने से पहले और शाम को वहाँ से लौटते के बाद सोन नदी से ही घरेलू काम-काज के लिए पानी भरती हैं। ये औरतें कुछ ऐसी औरतें हैं, जिन्हें मैंने थकते हुए कभी नहीं देखा है। वे लगातार काम करती जाती हैं।”4 आर्थिक अभाव के दंश को झेलती मजदूरनी का जीवन श्रम तक सीमित रह जाता है। उनके जीवन का अभाव उनकी इच्छाओं और आकांक्षाओं को कुचल देता है, मार देता है।
यह कहानी स्त्री मजदूर के शोषण को वृहत स्तर पर उजागर करती है। पूंजीपोषित समाज-व्यवस्था में अभावग्रस्त स्त्री का बेजा फ़ायदा उठाने की चेष्टा आज भी जारी है। स्त्री को देखते समय उसके जीवन का अभाव, उसकी चिंता, उसका संघर्ष, उसकी जरूरत नहीं खींचती, खींचती है केवल उसकी ‘देह’। पूंजीवादी व्यवस्था ने स्त्री को ‘उपभोग’ की वस्तु में परिणत कर दिया है | स्त्री को देखते वक्त हमारी दृष्टि उसकी ‘देह’ तक संकुचित हो जाती है। उसके ‘पेट की भूख’ का फ़ायदा उठाकर संभ्रांत वर्ग अपनी ‘वासना की भूख’ को मिटाने की ताक में रहता है। विधवा फिरोजा के शरीर पर बलात अधिकार करने का उपक्रम गाँव के कई छोकरों द्वारा किया जाता है- “फिरोजा को अकेला जानकर गाँव के कई खाते-पीते घरानों के छोकरों ने उसे पकड़ने की कोशिश की।”5 कहानीकार ने मुखिया बालकिशन सिंह के ‘आम का बगीचा’ उर्फ़ ‘भूतिया बगीचा’ का प्रसंग संभ्रांत वर्ग की संकीर्ण मानसिकता और शोषण-नीति को उजागर करने के लिए उठाया है। संभ्रांत वर्ग किस तरह अंधविश्वास की आड़ में गरीब, पीड़ित स्त्रियों से अपनी कामेच्छा को पूर्ण करने का षंडयंत्र रचता है, इसे सहज ही इस कहानी में देखा जा सकता है |
यह कहानी विपन्न मजदूर वर्ग के अंतहीन संघर्ष की कहानी है। संपन्न वर्ग को जहाँ विरासत में धन-संपत्ति प्राप्त होती है, वहीं विपन्न वर्ग को विरासत के तौर पर भूख, अभाव, चिंता और अनवरत संघर्ष प्राप्त होता है। कठोर परिश्रम के प्रतिक्रियास्वरूप फिरोजा का क्षीण शरीर जब रोटी जुटाने में पूरी तरह असमर्थ हो जाता है तब वह अपनी विरासत टेपचू को सौंप देती है। सात-आठ साल की उम्र में ही टेपचू की भूख से लड़ाई शुरू हो जाती है। किशोर टेपचू को मौत से अधिक खौफनाक लगती है-‘पेट की भूख’। उसे ‘भूतिया बगीचे’ का खौफनाक परिवेश भयभीत नहीं करता, उसे भयभीत करता है भूखा पेट। भूख और मौत की लड़ाई में वह मौत को तो धराशायी कर देता है पर पेट की भूख को पूरी तरह नहीं बुझा पाता है। वह हमेशा मृत्यु को ठेंगा दिखा देता है। नाले में जब पैर फंसता है, तब भी वह नहीं मरता, जब ऊँचे पेड़ से गिरता है, तब भी वह नहीं मरता। यहाँ तक कि जब उसे गोली लगती है तब भी वह नहीं मरता- “ट्राली-स्ट्रेचर में टेपचू की लाश अन्दर लाई गई। डॉ. वर्गिस ने लाश की हालत देखी। जगह-जगह थ्री-नॉट-थ्री की गोलियां लाश में धंसी हुई थीं। पूरी लाश में एक सूत जगह नहीं थी, जहां चोट न हो।
उन्होंने अपना मास्क ठीक किया, फिर उस्तरा उठाया। झुके और तभी टेपचू ने अपनी आंखें खोलीं। धीरे से कराहा और बोला- “डॉक्टर साहब, ये सारी गोलियां निकाल दो। मुझे बचा लो।”6
टेपचू का बार-बार मृत्यु को परास्त करना अविश्वसनीय लगता है पर जैसा कि कहानीकार कहते हैं- “आप स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि जीवन की वास्तविकता किसी भी काल्पनिक साहित्यिक कहानी से ज्यादा हैरतअंगेज होती है और फिर ऐसी वास्तविकता जो किसी मजदूर के जीवन से जुड़ी हुई हो।”7
वर्ग संघर्ष हमारे समाज की एक भयावह सच्चाई है। हमारे समाज की व्यवस्था की यह विडंबनात्मक स्थिति है कि एक वर्ग आर्थिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से संपन्न होकर भी विपन्न वर्ग के प्रति संवेदनशील नहीं है। विपन्न वर्ग के जीवन के अभाव को न्यून करने के बजाए संपन्न वर्ग हमेशा उन पर आर्थिक और दैहिक शोषण करने को तत्पर रहता है। अपनी जरूरतों की जद्दोजहद में पूंजीपतियों के शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न को खामोशी से सहना मानो हमेशा से मजदूर वर्ग की नियति रही है। मजदूर टेपचू इस विडंबनात्मक नियति को स्वीकार नहीं करता है। वह अपने अधिकार के लिए लड़ता है। उसकी संघर्ष चेतना उसे भयमुक्त कर देती है। उसके चरित्र पर प्रकाश डालते हुए कहानी लिखते हैं- “पसीने, मेहनत, भूख, अपमान, दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीरकर वह निकल आया था। कभी उसके चहरे पर पस्त होने, टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा।8
जब मैनजमेंट अपने नुकसान की भरपाई के लिए मजदूरों की छंटनी करना शुरू करती है तब टेपचू मैनजमेंट की निर्ममता के विरोध में आवाज बुलंद करता है- “मैनजमेंट की गाँड में हमने मोटा डंडा घुसेड़ रखा है | साले बिलबिला रहे हैं, लेकिन निकाले निकलता नहीं काका, दस हजार मजदूरों को भुक्खड़ बनाकर ढोरों की माफिक हाँक देना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है। छंटनी ऊपर की तरफ से होनी चाहिए। जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो, निकालो सबसे पहले उसे, छांटो अजमानी साहब को पहले।”9
हमारे समाज में गरीबी, भुखमरी इसीलिए नहीं है कि धन नहीं हैं या अन्न नहीं है, बल्कि इसीलिए है कि यहाँ कईयों के पेट को भूखा रख एक का पेट जरूरत से ज्यादा भर दिया जाता है। कईयों को नंगा कर एक का शरीर सुसज्जित किया जाता है। एक के ऐशो-आराम के लिए कईयों को मूलभूत जरूरतों से बेदखल कर दिया जाता है। इस सन्दर्भ में धूमिल की ‘रोटी और संसद’ कविता का सहज स्मरण हो आता है, जिसमें वे एक ऐसे वर्ग की बात करते हैं जो न रोटी बेलता है, न रोटी सेंकता है, सिर्फ रोटी खाता है। वह वर्ग हमारा पूँजीपति वर्ग है। हमारा पूँजीपति समाज किसान-मजदूरों के कठोर श्रम का फ़ायदा उठाकर अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति तो करता है पर किसान-मजदूरों के प्रति संवेदनहीन बना रहता है। यह वर्ग किसान-मजदूरों की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति का दायित्व लेने से कतराता है। अपने स्वार्थ के लिए उसे भूखे-नंगे सपरिवार मरने के लिए छोड़ देता है। संवेदनहीन, स्वार्थी पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति कहानीकार टेपचू के माध्यम से आक्रोश व्यक्त करते हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे त्रासद स्थिति यह है कि किसान-मजदूरों के साथ न शासन-व्यवस्था है और न न्याय-व्यवस्था। जब-जब वे अधिकार के प्रति सजग हुए हैं, उनके साथ अमानवीय सलूक हुआ है। इस कहानी पर नजर डालें तो पुलिस व्यवस्था की निरंकुशता को व्यापक स्तर पर देख सकते हैं। पुलिस सत्ता और पूँजी वर्ग की हाथ की कठपुतली मात्र रह गई है। उनके ‘इशारों पर नाचना’ ही उनकी ‘ड्यूटी’ रह गयी है। सजग टेपचू के अधिकार की लड़ाई को कुचलने के लिए पुलिस तंत्र का सहारा लिया जाता है। सरकार टेपचू को जिला बदर करने का हुक्म जारी करती है। दारोगा उसके साथ अमानवीय सलूक करता है। निहत्थे टेपचू के शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया जाता है। बाद में उसकी लाश को जंगल के भीतर महुए की एक डाल से बांधकर लटका दिया जाता है। सत्ता, पूंजी और पुलिस तंत्र की अमानवीयता को एक नया रूप दे दिया जाता है- “उसकी लाश को जंगल के भीतर महुए की एक डाल से बांधकर लटका दिया गया। मौके की तस्वीर ली गई। पुलिस ने दर्ज किया कि मजदूरों के दो गुटों में हथियारबंद लड़ाई हुई। टेपचू उर्फ़ अल्ला बख्स को मारकर पेड़ से लटका दिया गया है। पुलिस ने लाश बरामद की। मुजरिमों की तलाश जारी है।”10 शासन और न्याय व्यवस्था की मिलीभगत से ही आज सच और न्याय को दमित करने का कुचक्र रचा जा रहा है। आज आमजन न्याय पाने की आशा में या तो काल कलवित हो जाता है या हतोत्साहित। यह कहानी व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करती है। उसकी दुर्नीतियों की आलोचना करती है।
कहानी का अंत अविश्वनीय तरीके से होता है। टेपचू की ह्त्या कर दी जाती है पर अंतत: हम पाते हैं कि टेपचू डॉ. वर्गीस के सामने गोलियों को निकालने का अनुरोध कर रहा होता है। दरअसल टेपचू मरकर भी नहीं मरता क्योंकि टेपचू एक चेतना है, पूँजीवादी साजिशों को नाकाम करने वाली चेतना। जब तक पूँजीवादी ताकतें गरीब मजदूरों के शोषण में सक्रिय रहेंगी, विसंगतिपूर्ण, अमानवीय पूँजीवादी व्यवस्था की उपज टेपचू जैसे मजदूर अमर रहेंगे। उनकी अदम्य जिजीविषा को यह व्यवस्था कभी भी खत्म नहीं कर सकती।
सन्दर्भ सूची-
1. संपादक- ज्योतिष जोशी, सृजनात्मकता के आयाम, नयी किताब, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2013, पृष्ठ संख्या- 09
2. वही, पृष्ठ संख्या- 138
3. उदय प्रकाश, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम पेपरबैक संस्करण,2011, पृष्ठ संख्या- 35
4. वही, पृष्ठ संख्या- 21
5. वही, पृष्ठ संख्या- 23
6. वही,पृष्ठ संख्या- 35
7. वही,पृष्ठ संख्या- 35
8. वही,पृष्ठ संख्या- 30
9. वही,पृष्ठ संख्या- 31
10. वही,पृष्ठ संख्या- 34
– डॉ. शशि शर्मा