ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
रास्तों को देखिए कुछ हो गया है आजकल
इस शहर में आदमी फिर खो गया है आजकल
काँपते मौसम को किसने छू लिया है प्यार से
इस हवा का मन समंदर हो गया है आजकल
अजनबी-सी आहटें सुनने लगे हैं लोग सब
मन में कोई खूब सपने बो गया है आजकल
मुद्दतों तक आईने के सामने था जो खड़ा
आदमी वो ढूँढने ख़ुद को गया है आजकल
वो जो अब तक था धड़कता पर्वतों के दिल में अब
झील के अंदर सिमटकर सो गया है आजकल
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ग़ज़ल
वो उधर जिस तरफ चला होगा
हर तरफ रास्ता मिला होगा
वो बहुत देर तक रहा गुमसुम
आज उससे वो फिर मिला होगा
रात बच्चे जो सो गए होंगे
तुमने अश्कों से ख़त लिखा होगा
लौटकर छुट्टियों में घर आना
माँ ने ऐसा ही कुछ कहा होगा
ये जो जूठन हैं चाटते बच्चे
कोई जलसा यहाँ रहा होगा
जब अँधेरों से बात की होगी
तब उजाला वहीँ रहा होगा
कुछ तो तुम भी उदास थे शायद
कुछ दुखी मन मेरा रहा होगा
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ग़ज़ल
तुमने मेहनत से जो उगाई है
वो फसल आज भी पराई है
बीच में फासले हैं हर जानिब
फिर ये दीवार क्यों उठाई है
हमने ही दोस्ती नहीं तोड़ी
तुमने भी दुश्मनी निभाई है
ख़्वाब टूटे तो हमने अक्सर ही
गीत लिक्खे हैं, नज़्म गाई है
इससे आगे कठिन है मिल पाना
इससे आगे तो बस जुदाई है
दिन तुम्हारे ही नाम पर क्यों हो
रात हमने भी तो बिताई है
जब भी मौसम उदास होता है
धूप फिर से निकल के आई है
– डॉ. राकेश जोशी