12 जनवरी: विवेकानंद जयंती
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, रोमां रोला से – “यदि भारत को जानना है तो विवेकानंद को पढ़िए। वहाँ सब कुछ सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं मिलेगा।”
भारत जागो!
उठो! जागो! लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको!
ओ! युवा भारत!
क्या आप यह हृदयभेदी आहवान सुन रहे हैं? “उठो, जागो!”
यह वही ध्वनि है, जिसकी इस राष्ट्र को कब से प्रतीक्षा थी।
यह वही ध्वनि है जिसने इस घोर राष्ट्र को घोर निद्रा से जगाया।
19 वीं सदी के उत्तरकाल में भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, एकेश्वरवाद (‘मेरा भगवान् ही सच्चा है’ की मानसिकता जिसने लोगों को मत परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया), अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों का शोषण अपने चरम सीमा पर था। ऐसा लगता था, मानो परस्परावलंबन, संवेदनशीलता और आध्यात्मिकता जैसे मूल्य अपना आधार खोते जा रहे थे।
भारतभूमि जिसने इनको अपने राष्ट्रीय जीवन में उतारा था, ऐसा लगने लगा था कि इन सदियों पुराने मूल्यों पर अविश्वास के कारण स्वयं गहरे संकट में है। परन्तु, चुनौतियों से सामना करने का इस चिरंतन राष्ट्र का अपना ही मार्ग रहा है। भारत की ऐसी पृष्ठभूमि पर, श्रीरामकृष्ण परमहंस और उनके श्रेष्ठ शिष्य स्वामी विवेकानंद का प्रादुर्भाव हुआ।
अगस्त १८८६ में श्री राम कृष्ण का देहावसान हो जाने के बाद, वराहनगर में एक पुराने खण्डहर में बहुत से युवा शिष्य नरेन्द्रनाथ के नेतृत्व में एकत्र हुए और राम कृष्ण मठ की नींव रखी गयी।
देशाटन के काल में नरेन्द्रनाथ ने भारत दशा का सभी तरह से प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया। नरेन्द्रनाथ ने स्वामी सच्चिदानंद, स्वामी विविदिशानंद, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक नाम धारण करके परिव्राजक सन्यासी के रूप में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मैसूर, केरल, मद्रास और हैदराबाद की यात्रा की। सर्वत्र पुरातन भारत का गौरव, चाहे वह राजनीतिक, सांस्कृतिक, या आध्यात्मिक हो, उन्हें अपनी आँखों के सामने प्रबलता से दिखाई दिया। इस महान शिक्षा के चलते भारतीय समुदाय की दुर्गति की पीड़ा उनके मन में छा गई. जिससे उनकी यह इच्छा प्रबल हो गयी कि भारत की अवनति से सम्बंधित परेशानियों के उपशमन के लिए कुछ करना होगा। इस दिशा में संबल जुटाने के लिए वे एक रियासत से दूसरी रियासत में घूमते रहे। इस प्रकार अनेक अग्रणी व्यक्तियों तथा राजाओं के संपर्क में वे आये। उनमे से खेतड़ी के महाराजा अजीतसिंह उनके परम मित्र और उत्साही शिष्य बन गए। अलवर में उन्होंने ‘पंतजलि के महाभास्य’ का अध्ययन किया। पुणे में वे बाल गंगाधर तिलक के पास रहे। मैसूर के महाराजा ने उन्हें पश्चिम में जाकर भारत के लिए सहायता प्राप्त करने और वहां सनातन धर्म की शिक्षा देने के लिए आर्थिक सहायता देने का आश्वासन दिया।
भारत भ्रमण करके नरेन्द्रनाथ को पता चला कि धर्म ही भारत की शक्ति और सम्पदा है। अपने देश के प्रति प्रेम होने पर भी विवेकानन्द ने उसकी गलतियों को अनदेखा नहीं किया। लोगों की गरीबी, शिक्षा का अभाव और स्त्रियों की दुर्गति पर उनका ध्यान गया।
कन्याकुमारी में, वे अपनी यात्रा के अंतिम चरण में पहुंचे। अपने करोड़ों देश वासियों के दुःख से व्यथित ह्रदय लेकर, वे उस विराट समुद्र की लहरों को चिर कर दक्षिण सागर तट से कुछ दूर स्थित शिला पर बैठ कर पूरी रात गहरे ध्यान में मग्न हो गए. तीन दिन एवं तीन रात तक चला यह ध्यान ईश्वर के प्रति नहीं, अपितु उसी भारतमाता के प्रति था, जो स्वामी विवेकानंद के लिए भगवती दुर्गा की अवतार थी। तीन दिन व तीन रात 25, 26, 27 दिसम्बर 1892 को उस गहन ध्यान के पश्चात उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य खोज लिया। नरेन्द्रनाथ भविष्य में स्वामी विवेकानंद के रूप में परिवर्तित हुए।
अमेरिका की यात्रा पर निकले स्वामी विवेकानंद चीन, जापान और कनाडा होते हुए, जुलाई 1893 के मध्य शिकागो पहुँचे। धर्म संसद 11 सितंबर 1893 को प्रारंभ हुई। आर्ट इंस्टीट्यूट का विशाल सभाकक्ष लगभग 7000 श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ था, जिसमें देशों के श्रेष्ठतम प्रतिनिधि थे। स्वामी विवेकानंद ने कभी इतने विशाल और विशिष्ट जनसमूह को संबोधित नहीं किया था। उन्होंने अपना भाषण इन शब्दों से शुरू किया,
अमेरिका निवासी बहनों और भाइयों…………
तत्काल श्रोतागणों की करतल-ध्वनि की गड़गड़ाहट लगभग दो मिनट तक होती रही। सात हजार लोग किसी अनाकलनीय तत्व का सम्मान करने खड़े हो गए। स्वामी जी का प्रभावशाली व्यक्तित्व और उनके तेजस्वी मुखमंडल से सब इतने प्रभावित थे कि अगले दिन समाचार- पत्रों में विवरण था कि वे धर्म संसद की महानतम विभूति हैं। हाथ में कटोरा लिए सरल सा साधु उस समय का नायक बन गया था। अब वह अनजाना सन्यासी नहीं किन्तु विश्व का चहेता शिक्षक था।
वास्तव में शिकागो की धर्म संसद में स्वामी जी की उपस्थिति भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना रही। श्री अरविन्द कहते हैं, “विवेकानंद का (पश्चिम में) जाना… विश्व के सामने पहला जीता-जागता संकेत था कि भारत जाग उठा है… न केवल जीवित रहने के लिए बल्कि विजयी होने के लिए।”
स्वामी विवेकानंद का स्वदेश लौटे विजयी वीर की तरह जय-ध्वनि के साथ स्वागत हुआ। यह किसी व्यक्ति की मात्र स्वदेश वापसी नहीं थी। यह तो भारत की आत्मा की वापसी थी।
शिकागो से लौटकर चेन्नई में दिए गये उनके प्रसिद्ध भाषण से एक अंश उद्धृत कर रहा हूँ –
“..…युगों से जनता को आत्मग्लानि का पाठ पढ़ाया गया है। उसे सिखाया गया है कि वह नगण्य है। संसार में सर्वत्र जनसाधारण को बताया गया है कि तुम मनुष्य नहीं हो। शताब्दियों तक वह इतना भीरु रहा है कि अब पशु-तुल्य हो गया है। कभी उसे अपने आत्मन का दर्शन करने नहीं दिया गया। उसे आत्मन को पहचानने दो– जानने दो कि अधमाधम जीव में भी आत्मन का निवास है– जो अनश्वर है, अजन्मा है– जिसे न शस्त्र छेद सकता है, न अग्नि जला सकती है, न वायु सुखा सकती है; जो अमर है, अनादि है, अनन्त उसी निर्विकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी आत्मन को जानने दो…”
“हम उस धर्म के अन्वेषी हैं जो मनुष्य का उद्धार करे। हम सर्वत्र उस शिक्षा का प्रसार चाहते हैं जो मनुष्य को मुक्त करे। मनुष्य का हित करें, ऐसे ही शास्त्र हम चाहते हैं। सत्य की कसौटी हाथ में लो। जो कुछ तुम्हें मन से, बुद्धि से, शरीर से निर्बल करे उसे विष के समान त्याग दो, उसमें जीवन नहीं है, वह मिथ्या है, सत्य हो ही नहीं सकता। सत्य शक्ति देता है। सत्य ही शुचि है, सत्य ही परम ज्ञान है। सत्य शक्तिकर होगा ही, कल्याणकर होगा ही, प्राणप्रद होगा ही। यह दैन्यकारक प्रमाद त्याग दो, शक्ति का वरण करो। कण-कण में ही तो सहज सत्य व्याप्त है। तुम्हारे अस्तित्व जैसा ही सहज है वह, उसे ग्रहण करो”।
“मेरी परिकल्पना है, हमारे शास्त्रों का सत्य देश–देशान्तर में प्रचारित करने की योग्यता नवयुवकों को प्रदान करने वाले विद्यालय भारत में स्थापित हों। मुझे और कुछ नहीं चाहिए, साधन चाहिए; समर्थ, सजीव, हृदय से सच्चे नवयुवक मुझे दो, शेष सब आप ही प्रस्तुत हो जाएगा। सौ ऐसे युवक हों तो संसार में क्रांति हो जाए। आत्मबल सर्वोपरि है, वह सर्वजयी है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है। निस्संशय तेजस्वी आत्मा ही सर्वशक्तिमान है …”
दिक्कत ये है कि दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्यांन देने से कतराते हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे। उनके लिये विवेकानंद का जिक्र ’उत्तिष्ठत जागृत’ से शुरू होता है और शिकागो वाले सम्मेलन के जिक्र पर खत्म हो जाता है। बस।
यूरोप भ्रमण के दौरान गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की मुलाकात जब वहाँ के प्रसिद्ध चिंतक साहित्यकार रोमां रोला से हुई तो उन्होंने उनसे कहा यदि भारत को जानना चाहते हो तो विवेकानंद को पढ़ो-समझो। वहाँ सब कुछ सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं मिलेगा।
159वें जयंती पर आदरांजलि समेत सादर नमन