उत्तराखंड के तिलाड़ी कांड के उस काले धब्बेनुमा इतिहास की मेरे सामान्य ज्ञान में अभिवृद्धि नहीं हो पाती, यदि मैंने बृज भूषण गैरोला की “रियासती षड्यंत्रों का इतिहास” और स्व विद्यासागर नौटियाल का “यमुना के बागी बेटे” न पढ़ा होता। सोचा तिलाड़ी कांड का इतिहास उससे जुड़े लोगों की शहादत, उनके अपने क्षेत्र की वन संपदा,प्राण वायु और पर्यावरण को बचाने की अनवरत कवायद निश्चित तौर पर आज की पीढ़ी को अवगत कराना चाहिए, ताकि आज का युवा वर्ग भी अपने अधिकारों और पर्यावरण के प्रति जागरूक होकर समय-समय पर सामूहिक रूप से अपने क्षेत्र के विकास के लिए प्रयासरत रहें।
इसी संदर्भ में..30 मई 1930 उत्तराखंड के इतिहास में एक काले जघन्य गोलीकांड के रूप में दर्ज है। लोग जलियांवाला बाग हत्याकांड अभी भूले भी न थे कि ग्यारह साल बाद तिलाड़ी हत्याकांड ने फिर से उस बीते समय की दिल दहला देने वाली घटना की पुनरावृत्ति कर दी। तिलाड़ी कांड को रंवाई ढंडक और गढ़वाल के जलियांवाला बाग कांड के नाम से जाना जाता है। जंगलों से जुड़े अपने हक हकूकों की रक्षा के लिए नब्बे साल पहले किये गये आंदोलन और इसके दमन को याद कर रंवाई परगना के लोग आज भी सिहर उठते हैं।
तिलाड़ी कांड पर शोध करने वाले डॉ. राधेश्याम बिजल्वाण के अनुसार ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजी हुकूमत ने वन संपदा दोहन के अधिकार अपने हाथ में ले लिये थे इसी क्रम में टिहरी रियासत ने वर्ष 1885 में वन बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू की थी।वर्ष 1927 में रंवाई घाटी में भी वन बंदोबस्त लागू किया गया इसमें ग्रामीणों के जंगलों से जुड़े हक हकूक समाप्त कर दिये गये , वन संपदा के प्रयोग पर टैक्स लगाया और पारंपरिक त्योहारों पर रोक लगा दी गयी, एक गाय,एक भैंस और एक जोड़ी बैल से अधिक मवेशी रखने पर प्रति पशु एक रुपया वार्षिक टैक्स लगाया। टिहरी नरेश के इसी आदेश पर जंगलात द्वारा की गयी मुनारबंदी और खेतों का सीमांकन ही रंवाई के ग्रामीणों में आक्रोश और असंतुष्टता का कारण बना। मुनारबंदी होने से ग्रामीण किसानों के पशुओं को अपने डंगरों और पशुओं के लिए घास पत्ती भी मिलना मुश्किल हो गया।
मार्च 1930 में टिहरी के तत्कालीन राजा नरेंद्र शाह अपनी अस्वस्थता के कारण इलाज के लिए यूरोप चले गये तो उनके पीछे रियासत का प्रशासन निरंकुश और अपनी मनमानी करने लगा था। रंवाई के लोगों में उपजे जनाक्रोश को दबाने के लिए 20 मई 1930 को डिप्टी कलेक्टर सुरेन्द्र दत्त नौटियाल एवं डीएफओ पदमदत्त रतूड़ी ने चार ग्रामीण नेताओं को गिरफ्तार कर टिहरी जेल भेज दिया। ग्रामीणों ने इन अधिकारियों का राड़ी टॉप के निकट घेराव किया जहां डीएफओ की ओर से गोली चलाने से दो ग्रामीण शहीद हो गये।घटना के विरोध में ग्रामीण 30 मई को तिलाड़ी के मैदान में शांतिपूर्ण पंचायत कर रहे थे लोग वहां राजा से गोचुगान की जगह को प्रतिबंध से बाहर करने की मांग को लेकर इकट्ठा थे। वे जंगलों से घास, लकड़ी,पत्ती चुनने के अधिकार को बहाल करने की मांग कर रहे थे। लोगों का तर्क था कि जंगल की सुरक्षा जब वे ही करते हैं तो उन वन संसाधन के उपभोग से उन्हें क्यों वंचित रखा जा रहा है?
यही महापंचायत करने के लिए ग्रामीण यमुना नदी के तट पर तिलाड़ी के मैदान में एकत्रित हुए थे। तभी टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल के नेतृत्व में सेना ने ग्रामीणों को चारों ओर से घेर कर अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दी, जिसमें सौ से अधिक ग्रामीण शहीद हो गए 194 घायलों को गिरफ्तार कर इनमें से 70 लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। टिहरी जेल में इनमें से 16 लोग शहीद हुए थे।
जंगलों पर अपने अधिकारों के लिए तिलाड़ी मैदान में असंख्य-रूप से जमा लोगों को राजा की सेना ने तीन तरफ से घेर लिया था। चौथी तरफ यमुना नदी अपने प्रचंड वेग से बहती है। दीगर बिना किसी पूर्व चेतावनी के राजा की फौज ने निहत्थे ग्रामीण लोगों पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसायी। पूरे तिलाड़ी मैदान में अफरा तफरी मच गई। जान बचाने के लिए सभी इधर-उधर दौड़ने लगे किंतु व्यर्थ। कुछ गोलियों का शिकार हुए, कुछ ने यमुना में बचने के लिए छलांग लगायी और वे नदी के तीव्र वेग में बह गये।
दरअसल राजा को यमुना घाटी के ग्रामीणों को अपने अधिकारों की बहाली के लिए लामबंद होना रास नहीं आया। उन्हें यह भी नागवार गुजरा कि राजा की आज्ञा के बिना ये लोग तिलाड़ी के मैदान में महापंचायत कर रहे थे। इसी कारण वनों पर अपना नैसर्गिक अधिकार जताने वालों को सबक सिखाने के लिए टिहरी के राजा नरेंद्र शाह ने अपने दिवान चक्रधर जुयाल के मार्फत यह रोंगटे खड़े कर देने वाले कांड को रचा।
संभवत: रंवाई के लोगों का रोष जंगल, ज़मीन पर उनके अधिकार छीने जाने से ही नहीं उपजा था, वरन “ओडाथली के डांडे” को नरेंद्र नगर के रूप में बसाने के लिए अन्य लोगों की तरह ही रंवाई के लोगों पर भी भूखे-प्यासे रहकर बेगार की थोपी हुई व्यवस्था का परिणाम भी था। 30 मई 1930 को हुए इस गोलीकांड में शहीद लोगों का बस इतना ही कसूर था कि उन्होंने टिहरी के राजा के ख़िलाफ़ बगावत का बिगुल बजाया किंतु यह भी ध्यान देने योग्य है कि उस समय भी रंवाई के लोगों में अपने अधिकारों के लिए कितनी सजगता थी!
तिलाड़ी कांड को वास्तव में पहाड़ों में उपजा पहला जन आंदोलन कहा जा सकता है या कहना ग़लत न होगा कि रंवाई कांड में यमुना घाटी के लोगों की शहादत वास्तव में एक नयी क्रांति व नव चेतना का आगाज़ था। इसके बाद वन कानूनों को सुनिश्चित करने और वन अधिकार देने की क़वायद तेज हुई और आख़िरकार राजा को ग्रामीणों की मांग को मानना ही पड़ा।
30 मई 1930 का हत्याकांड वास्तव में ग्रामीणों के लिए एक प्रेरक व स्फीतिमान आंदोलन सिद्ध हुआ जिसने यमुना घाटी की नयी पीढ़ी को अपने हक,अपने अधिकारों के प्रति आवाज़ उठाना सिखाया। इसी आंदोलन से ही प्रेरित होकर पहाड़ के लोगों ने अपने अधिकारों के लिए सजग होकर भारी संख्या में स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया।
सन 1949 के बाद हर वर्ष 30 मई को बड़कोट तहसील में यमुना नदी के किनारे स्थित तिलाड़ी में शहीदों की स्मृति में विशेष रूप से शहीद दिवस मनाया जाता है। हर साल किसी विशेष क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले व्यक्ति को ” तिलाड़ी सम्मान से सम्मानित किया जाता है। इस आयोजन की अपनी ही विशेष परंपरा है पहले कार्यक्रम का मुख्य अतिथि वही होता है जिसे समिति द्वारा सम्मानित करने के लिए चुना जाता है। इसके अलावा कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए शहीदों के परिजनों में से किसी एक को आमंत्रित किया जाता है। कार्यक्रम वास्तव में सामाजिक सरोकार से जुड़े लोगों के लिए समर्पित है। इसकी दूसरी खासियत यह है कि इसमें शामिल होने वाले लोग यमुना घाटी के संरक्षण से संबंधित किसी गंभीर मुद्दे पर अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं और इससे संबंधित प्रस्ताव पर अपनी मंजूरी देते हैं। साथ ही हर वर्ष पेड़, पानी और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े मुद्दों पर मिलकर काम करने की शपथ लेते हैं। शायद यहां के लोगों के अथक प्रयास का ही परिणाम है कि उत्तराखंड राज्य में सर्वाधिक सघन जंगल और वन संपदा यमुना घाटी में ही मौजूद है।
आज के परिप्रेक्ष्य में यमुना घाटी को देखें तो जल, जंगल, ज़मीन पर आज भी सरकारी नियंत्रण है किंतु यहां के प्राकृतिक सौंदर्य में आज भी कोई कमी नहीं है। यहां की युवा पीढ़ी पढ़ लिखकर एक जागरूक कौम बन गयी है। यहां के युवा घाटी को इकनॉमिक घाटी के नाम से प्रसिद्ध कर रहे हैं और यहां के सेब व अन्य नकदी फसलों के उत्पादन का झंडा देश-विदेश में फहरा रहे हैं।