बैंगलोर में हुई आत्महत्या ने सोशल मीडिया में जो बहस छेड़ी है वह स्त्रियों के #Me Too आंदोलन की तमाम स्मृतियों को सामने ले आई है। अंतर यही कि इस बार पुरुष अपना दर्द अभिव्यक्त कर पा रहे हैं या यूँ समझिए कि उन्हें अपनी 'मन की बात' कहने का अवसर मिल गया है। पर क्या उनके मन की बात जानने का यह सही समय है? अब जबकि चर्चा न्याय-अन्याय, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित की होनी चाहिए थी, तब इन बुद्धिजीवियों ने स्त्री-पुरुष विमर्श छेड़ रखा है। इस बहाने कइयों की खुन्नस भी सामने आ रही है। लग रहा, जैसे स्त्री जाति को कोसने का अवसर कहीं इनसे चूक न जाए!
होना यह चाहिए कि सर्वप्रथम तो सामान्यीकरण से बचा जाए और दूसरा एकपक्षीय निर्णय सुनाने से। न तो दोनों पक्षों के सारे तथ्य सामने हैं और न ही हमने उस स्थिति को जिया है...