डॉ. राजेन्द्र प्रसाद – शुचिता का सफरनामा
(03 दिसंबर 1884 – 28 फरवरी 1963)
अधिवक्ता दिवस
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक टिप्पणी में कहा था कि वकालत आजीविका का साधन नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक कार्य है और जीविका के लिए अधिवक्ताओं को कोई अन्य कार्य करना चाहिए। परंतु अधिवक्ता अधिनियम अधिवक्ताओं को अन्य कार्य करने की अनुमति नहीं देता है फिर भी सामान्य तौर पर इसे एक सामाजिक कार्य ही माना जाता है।
एक व्यवसाय के रूप में आज इसका बहुत विकास हुआ है और इसको एक सम्मानित व्यवसाय के रूप में चुनने वालों की संख्या काफी अधिक है। जो इस व्यवसाय की प्रतिष्ठा को प्रकट करता है। आज जब हम अधिवक्ता दिवस मनाते हैं तो डॉ राजेंद्र प्रसाद के साथ-साथ उन महान अधिवक्ताओं को भी याद करते हैं, जिन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में अपना योगदान दिया है और देश में लोकतंत्र और न्याय तंत्र को इस ऊंचाई तक लेकर गए हैं। इस कार्य को करते हुए जिन्होंने अपना सर्वस्व त्याग कर दिया है।
यह सत्य है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई उत्कृष्ट अधिवक्ताओं ने हिस्सा लिया और उन्होंने अपना सर्वस्य देश के लिए न्योछावर कर दिया। महात्मा गांधी, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, सी आर दास, मोतीलाल नेहरू, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू इत्यादि अधिवक्ताओं में सी आर दास का सर्वाधिक नाम था और मोतीलाल नेहरू सबसे अमीर अधिवक्ता थे। हमारे संविधान सभा में भी एक से बढ़कर एक महान प्रतिभाशाली अधिवक्ता थे।परंतु देश के अधिवक्ताओं ने डॉ राजेंद्र प्रसाद के जन्मदिवस को को ही अधिवक्ता दिवस के रूप में चयन किया तो निस्संदेह उनमें कुछ अतिरिक्त विशिष्ट गुण थे। डॉ राजेंद्र प्रसाद में जिन गुणों का समावेश था, उन्हीं गुणों को अधिवक्ताओं ने अपने लिए आदर्श माना तथा डॉ. राजेंद्र प्रसाद को ही आदर्श अधिवक्ता के रूप में स्वीकार किया।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में से थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। राजेन्द्र प्रसाद गांधी जी के मुख्य शिष्यों में से एक थे और स्वतंत्रता संग्राम में सदैव उनके साथ रहे। देश की आजादी के बाद वे पहले राष्ट्रपति बनाये गये। वे उस संविधान सभा के अध्यक्ष थे जिसने संविधान की रूपरेखा तैयार की। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने भारत के पहले मंत्रिमंडल में 1946 एवं 1947 में कृषि और खाद्य मंत्री का दायित्व भी निभाया था। सम्मान से उल्हें प्रायः राजेन्द्र बाबू कहकर पुकारा जाता है।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्वभाव से बेहद सरल और बड़े दिल वाले व्यक्ति थे। 1914 में बंगाल और बिहार में आई भयानक बाढ़ के दौरान उन्होंने पीड़ितों की खूब सहायता की। इसी प्रकार जब 1934 में बिहार भूकंप और बाढ़ की त्रासदी के बाद मलेरिया से जूझ रहा था, उस वक्त भी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पीड़ितों को स्वयं ही कपड़े और दवाइयां बांटीं। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के जीवन पर गांधी जी का गहरा प्रभाव पड़ा था। वह छुआछूत और जाति के प्रति गांधी जी के नजरिए का पूरा समर्थन करते थे। गांधी जी ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के जीवन पर इतना गहरा असर किया था कि उन्होंने अपने यहां काम करने वाले लोगों की संख्या को घटाकर एक कर दिया। इतना ही नहीं डॉ. राजेन्द्र प्रसाद अपने घर के कामों को भी खुद ही करने लगे जिसमें पोंछा लगाना भी शामिल था।
गांधी जी की वजह से ही डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे। भारतीय राष्ट्रीय मंच पर महात्मा गांधी के आगमन ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को काफी प्रभावित किया। जब गांधीजी बिहार के चम्पारण जिले में तथ्य खोजने के मिशन पर थे तब उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को स्वयंसेवकों के साथ चंपारण आने के लिए कहा। गांधी जी ने जो समर्पण, विश्वास और साहस का प्रदर्शन किया उससे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद काफी प्रभावित हुये। गांधी जी के प्रभाव से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का दृष्टिकोण ही बदल गया।
गांधी जी के सम्पर्क में आने के बाद वह आजादी की लड़ाई में पूरी तरह से जुट गये। उन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लेने के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया। 15 जनवरी 1934 को जब बिहार में एक विनाशकारी भूकम्प आया तब वह जेल में थे। जेल से रिहा होने के दो दिन बाद ही राजेन्द्र प्रसाद धन जुटाने और राहत के कार्यों में लग गये।
वायसराय के तरफ से भी इस आपदा के लिए धन एकत्रित किया। राजेन्द्र प्रसाद ने तब तक तीस लाख अस्सी हजार राशि एकत्रित कर ली थी और वायसराय इस राशि का केवल एक तिहाई हिस्सा ही जुटा पाये। राहत का कार्य जिस तरह से व्यवस्थित किया गया था उसने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के कौशल को साबित किया। इसके तुरन्त बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बम्बई अधिवेशन के लिए अध्यक्ष चुना गया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद साल 1934 से साल 1935 तक भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। उन्हें 1939 में सुभाष चंद्र बोस के जाने के बाद उन्हें जबलपुर सेशन का भी अध्यक्ष बना दिया गया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के बीच की दूरियों को मिटाने की भरपूर कोशिश की थी।
जुलाई 1946 को जब संविधान सभा को भारत के संविधान के गठन की जिम्मेदारी सौंपी गयी तब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में संविधान को पारित करते समय डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के शब्द बड़े महत्वपूर्ण और दिल को छू जाने वाले हैं और इस नात की तरफ इशारा करते हैं:- “यदि लोग जो चुनकर आयेंगे, योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोच्च बना देंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता।
आखिरकार एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है। इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों के द्वारा होता है, जो इस पर नियंत्रण करते हैं तथा इसे चलाते हैं और भारत को इस समय ऐसे लोगों की जरूरत है, जो ईमानदार हों तथा जो देश के हित को सर्वोपरि रखें। हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है। इसमें साम्प्रदायिक अन्तर है, जातिगत अंतर है, भाषागत अंतर है, प्रांतीय अंतर है। इसके लिए दृढ़ चरित्र वाले लोगों की, दूरदर्शी लोगों की, ऐसे लोगों की जरूरत है, जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें और उन पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ सकें, जो इन अंतरों के कारण उत्पन्न होते हैं। हम केवल यही आशा कर सकते हैं कि देश में ऐसे लोग प्रचुर संख्या में सामने आयेंगे।
आजादी के ढाई साल बाद 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्र भारत का संविधान लागू किया गया और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में चुना गया। राष्ट्रपति के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग उन्होंने काफी सूझ-बुझ से किया और दूसरों के लिए एक नई मिसाल कायम की। राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने मित्रता बढ़ाने के इरादे से कई देशों का दौरा किया और नये रिश्ते स्थापित करने की मांग की। राष्ट्रपति के रूप में 12 साल के कार्यकाल के बाद वर्ष 1962 में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सेवानिवृत्त हो गये और उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया। सेवानिवृत्ति के बाद अपने जीवन के कुछ महीने उन्होंने पटना के सदाकत आश्रम में बिताये।
राजेंद्र बाबू बचपन से ही कितने ज़हीन थे। इसका साक्षात प्रमाण यही है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में न केवल उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ बल्कि 30 रु./ माह का वज़ीफा भी मिला, जो उन दिनों बहुत अधिक था। कालांतर में प्रेसीडेंसी कॉलेज में परीक्षा के दौरान जब उन्होंने 10 में से केवल 5 प्रश्नों के उत्तर देने की बाध्यता से परे जाकर सब प्रश्नों के उत्तर देते हुए परीक्षक से कोई भी 5 के आकलन की सुविधा प्रदान की तो खुद परीक्षक ने उनकी उत्तर पुस्तिका पर लिखा कि परीक्षार्थी परीक्षक से अधिक बुद्धिमान है, जो आज भी रिकॉर्ड में सुरक्षित है।
गांधी, आजादी के बाद स्वीकारी गई धर्मरहित राजनीति के पक्षधर नहीं थे। राजेंद्र बाबू भी गांधी के समान ही निर्मल, निस्वार्थ, धर्म विश्वासी व्यक्ति थें। उनके काल में जब सोमनाथ का जीर्णोद्धार हुआ तथा उन्हें लोकार्पण हेतु के. एम. मुंशी द्वारा आमंत्रित किया गया तो तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व की मनाही के बावजूद वे उस धार्मिक कम तथा सांस्कृतिक अधिक समारोह में सम्मिलित हुए। यह बात दूसरी है कि इसकी उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। और तो और पद त्याग के बाद उन्हें देश का प्रथम पुरुष रह चुकने के बाद भी दिल्ली में एक अदना सा मकान तक मुहैया नहीं किया गया। नतीजतन उन्हें पटना लौटना पड़ा और वहां भी दिल्ली दरबार की सरकारी आवास न प्रदान करने के निर्देश के कारण सदाकत आश्रम के सीलन एवं बदबू से भरे कमरे में जीवन के अंतिम पल बेहद कठिन परिस्थितियों में गुजारने पड़े, जबकि वह दमे की बीमारी से जूझ रहे थे। उनके निधन पर दिल्ली से किसी की भी भागीदारी तक न केवल प्रतिबंधित की गई बल्कि उनके परम मित्र तत्कालीन राज्यपाल राजस्थान डॉ. सम्पूर्णानंद तक को अंतिम क्रिया में जाने से रोक दिया गया, राजधानी में उनके लिए समाधि स्थल तो बहुत दूर की बात है।
डॉ राजेंद्र प्रसाद के आदर्शों के माध्यम से यह विचार किया जाना जरूरी है कि एक आदर्श अधिवक्ता में किस तरह के गुणों का समावेश होना चाहिए। डॉ राजेंद्र प्रसाद मृदुभाषी और दृढ़ निश्चय व्यक्ति थे। उन्होंने एक बार निश्चय कर लिया कि वह महात्मा गांधी के आदर्शों पर चलेंगे तो फिर किसी भी स्थिति में उन्होंने गांधीवादी आचरण का त्याग नहीं किया। उनके विचार कभी भी उग्र नहीं हुए। गंभीर से गंभीर परिस्थितियों में भी उन्होंने संयम से काम लिया और किसी भी विवाद में उनका नाम शामिल नहीं हुआ। लेकिन विवाद के समाधान के रूप में उनका नाम हमेशा सामने आते रहा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस के अंदरूनी राजनीति में जब कभी भी गंभीर विवाद उत्पन्न हुए तो समाधान के रूप में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का नाम नाम ही आगे आया।
यह सत्य है कि वकालत को आज एक उत्कृष्ट व्यवसाय माना जाता है लेकिन सही अर्थों में यह कभी भी पूर्ण व्यवसाय नहीं रहा और अधिवक्ताओं ने भी इसे एक सामाजिक दायित्व के रूप में ही अंगीकार किया है। आजादी के पूर्व भी यही स्थिति थी और आज भी कमोबेश यही स्थिति है। आज भी अधिवक्ता लोकतंत्र और कानून के शासन की स्थापना के लिए अपना सब कुछ त्याग करने के लिए तत्पर रहते हैं।अधिवक्ता दिवस के अवसर पर वे उसी भावना को प्रदर्शित करते हैं और यही कारण है कि हम लोग डॉ राजेंद्र प्रसाद की जयंती पर इस दिवस को मनाते हुए उस संकल्प के प्रति दृढ़ता प्रकट करते हैं। जो हमारे संविधान के प्रस्तावना में वर्णित है। संविधान प्रस्तावना प्रत्येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता प्रकट करता है और अधिवक्ता उसके लिए ही प्रयत्नशील रहते हैं और इसी को को गति देने के लिए राजेन्द्र प्रसाद जी के जन्मदिन को अधिवक्ता दिवस के रूप में भी मनाते हैँ।
चलते-चलते: देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को मिले अभी तक सर्वाधिक 99 प्रतिशत मतों का रिकॉर्ड कायम है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को दूसरी बार 1957 में 464370 मतों में से 459698 यानि 99 प्रतिशत से अधिक मत हासिल हुए थे। राष्ट्रपति के लिए अब तक हुए 14 चुनावों में कोई उम्मीदवार इस रिकार्ड को नहीं तोड़ पाया है। राजेन्द्र प्रसाद के बाद सर्वपल्ली राधाकृष्णन ही ऐसे राष्ट्रपति रहे जो 98 प्रतिशत वोट लेकर रायसीना हिल पहुंचे थे। जबकि 1997 के चुनाव में आर नारायणन 95 प्रतिशत मत लेकर सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहले दलित समुदाय से निर्वाचित हुए थे।
सादर स्मरण