कल का दिन रावण के लिए कुछ ठीक नहीं गया। माना कि उसकी पुण्यतिथि की शुभकामनाओं वाला दिन था पर इसका ये मतलब थोड़े न कि हर कोई उसे लपेटे में ले ले। जिसे देखो, वही ज्ञान दिए जा रहा था। चलो, ज्ञान वाली बात तो फिर भी क़ाबिले बर्दाश्त है लेकिन उसके व्यक्तित्व से जो खिलवाड़ हुआ, उसका क्या? जो भी हुआ, पूरा घटनाक्रम उसकी मर्यादा के घोर विरुद्ध था। विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि उक्त घटना के बाद, कल रात्रि से लंकेश न केवल आहत अनुभव कर रहे थे बल्कि उन्होंने इस कृत्य की कड़ी निंदा भी की। संवाददाताओं से चर्चा के दौरान नम आँखों से उन्होंने अपना दुख व्यक्त किया। साथ ही यह भी स्वीकार किया कि वे नाहक ही अपनी बुद्धि और शक्ति पर घमंड कर बैठे थे और भगवान जी से पंगा लेने की धृष्टता कर डाली थी। तब उन्हें क़तई इल्म नहीं था कि कलयुग में उनसे भी बड़े सूरमां जन्म लेंगे और बड़ी बेदर्दी से उन्हें भिगो-भिगोकर मारेंगे!
भिया! ये कोई मुहावरा नहीं है! सौ फ़ीसदी सच्ची बात है! बताइए तो, पहले कागजों पर लाखों खर्च कर माचोमैन वाला लुक देने के लिए खपच्चियों का फ्रेम बनवाया गया। उस पर बढ़िया रंगरोगन कर उन्हें खूब सजाया भी गया। चेहरे पर गुरूर का जो भभका पसरा था, उसकी छटा ही निराली थी लेकिन मुई बारिश ने पुतले के साथ हुए सौतेले व्यवहार और भ्रष्टाचार की सारी कलई खोल दी! रावण के दुख की कोई लक्ष्मण रेखा ही न थी। बोला,”कैसे अभियंता हो? इत्ते रुपैया में तो मैंने लंका खड़ी कर दी थी। तुम खर्चने के बाद भी मुझे ठीक से खड़ा नहीं कर पा रहे हो! असुर मित्रों ने बताया कि एक जगह तो मैं खड़े-खड़े ही लुढ़क लिया। यहाँ गल रहा हूँ, वहाँ ढह रहा हूँ। ये कौन सा युग है भाई! हमारी कोई इज़्ज़त फ़िज़्ज़त बची है कि नहीं? कहीं लोग ठेले पे लिए घूम रहे, कोई कौड़ी के भाव बेच रहा तो कोई लाखों में! हमारी डिग्निटी तो मेंटेन करो। ग़ज़ब स्यापा मचा रखा है! क्या यही दिन देखना बाकी रह गया था।” एक किशोर जो ध्यानपूर्वक सारी बातें सुन रहा था, सवा दो इंच की दूरी बनाते हुए उसने रावण जी के घुटने टच कर चरण स्पर्श वाला पोज़ दिया और बड़ी गंभीरता से बोला, “अब इज़्ज़त फ़िज़्ज़त आउटडेटेड हैं बाउजी। विकास के दौर में पूर्वजों की फ़ज़ीहत का जमाना है। किसी की जयंती हो या पुण्यतिथि, हम तो इसी भाव के साथ सेलीब्रेट करते हैं अब। आप तो वैसे भी सत्यापित बुरे प्राणी हो।“
“ओह! मेरे राम ने भी ऐसा न कहा था कभी।“ रावण रुँधे गले से बोला। अब दुख तो जायज था। उस पर इधर दस में से 8 सिरों के हेलमेट (मुकुट) गलकर, पीठ पर चिपक, समय पूर्व ही सामूहिक रूप से भगवान को प्यारे हो गए। देह पर लिपटी रंगीन पन्नियों ने भी अनायास ही विलुप्त होकर सारे तंत्रों का पर्दाफाश कर दिया। हृदय, फेफड़े, यकृत, आमाशय, पित्ताशय एक दूसरे को हैलो करने की नाकाम कोशिश कर एक दूसरे से यूँ टकराते रहे जैसे इंटरव्यू की पंक्ति में लगे बंदे एक-दूसरे से टकराते हैं। कुल मिलाकर परस्पर संशय भाव और अपने अस्तित्व के संघर्ष की पूरी कहानी उस खोखले ढांचे के हर हिज्जे से बयां हो रही थी। अपनी यह गत देखकर माननीय रावण जी स्वयं लज्जित मुद्रा में थे। पूरे समय वे यह कामना करते रहे कि कब धरती फटे और उन्हें अपनी पनाह में ले ले! आत्महत्या का कुत्सित विचार रह-रहकर उनके तंत्रिका तंत्र को उद्वेलित किए जा रहा था। लेकिन ऐसे कैसे! अभी तो अपमान का सीक्वल आना शेष था।
एक-एक कर बारिश उनके वस्त्रों को लीलती रही और फिर वह समय भी आया जिसकी कल्पना भी उनको सिहरा रही थी। अब उनकी देह पर कुछ भी शेष न था। वो अभिमान, वो चमक, वो अट्टहास सब एक बारिश के आगे मिमियाए पड़े थे। उसने तो जल निकास की उत्तम व्यवस्थाओं को देखा था, सो इस बुरेमानुस को क्या पता कि इत्ती बारिश में तो हियाँ बाढ़ में अपन मय रसोई बह लेते हैं।
खैर! रावण जी के नाम पर फिलहाल 300 से 2000 रुपये प्रति फुट (शहरानुसार) की दर से बना जो ढिशक्याऊं ढाँचा सामने दृश्यमान था, उसमें और ट्रेन से यात्रा करते समय रास्ते में कान के बाले से पहने हुए बिजली के जो बड़े-बड़े खंभे मिलते हैं न; में कोई फ़र्क़ न था। दूर कहीं गीत बज रहा था, “बाबूजी, जरा धीरे चलो/ बिजली खड़ी यहाँ बिजली खड़ी” अंकल जी ने दबे स्वर में कहा कि “जी बिजली नहीं, जे तो हम हैं। एक जमाने में हमारे नाम का जलवा था। पूरी लंका थरथर कांपती थी। युगों का जुलम देखो, हमारी ही लंका लग गई।”
उस पर सितम यह कि जिन मुख्य अतिथि महोदय को तीर-ए-नाभि के अभूतपूर्व प्रदर्शन हेतु पधारना था, उनकी दूर-दूर तक कोई ख़बर न थी। रावण अचंभे में था कि कैसा जमाना आ गया है! कहाँ तो सदियों पूर्व मुझ तक पहुँचने के लिए समुद्र पर पुल निर्मित कर लिया गया था और इन ससुरों से एक बारिश न संभल रही! क्या खाक तरक्की की है इन मानुसों ने! हमारे वनमानुष इनसे ज्यादा बुद्धिमान थे। उसने मन ही मन भन्नाया, ‘तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं!” तत्पश्चात ईश्वर को पुनः याद करते हुए उनके कमेंट बॉक्स में नमन लिखा। इनबॉक्स में संदेसा भेजा कि अब और प्रतीक्षा न करवाओ, और इम्तिहान मत लो न पिलीज़! बस जल्दी से छाता देकर नेता जी को भिजवाओ। ऊ का है न कि बारिस में हमार नाभि तो न मिलिहे पर साहिब पधारें तो हमका तनिक मोक्ष ही मिल जाही!
कहीं खेत में खड़े बिजूके की तरह उसकी प्राण प्रतिष्ठा भी की गई। उसे स्वयं, अपने निजी व्यक्तित्व को देख जोर की हँसी आ गई कि काश! मैं सचमुच इतना हँसमुख, छरहरा और क्यूटी पाई होता तो कोई मेरी लंका न लगाता! उसने वहाँ खड़े एक युवक से पूछा कि “भई,जब करोड़ों में राशि आबंटित की गई है तो मुझे सैकड़ों में क्यों निबटा दिया? देखो, कितना कुपोषित लग रहा हूँ! सब मेरा उपहास उड़ा रहे!” युवक ने अट्टहास करते हुए कहा कि “तुम्हारा तो दहन ही होना है। इतना पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत?” उसके इतना कहते ही सब हँसने लगे। हर दिशा से अट्टहास की गूँज वातावरण को और अश्लील बना रही थी। जिधर देखो, उसे स्वयं से भी अधिक भयावह चेहरे नज़र आ रहे थे। अब रावण के दुख का पारावार न था।
क्रोधाग्नि और अपमान की ज्वाला में धधकते हुए उसने बगल में खड़े पुलिस वाले की जेब से कट्टा निकाल अपने कान संख्या क्रमांक 1 में डाल ट्रिगर दबा दिया। कुल जमा 19 कनपुरिया मार्गों से गुजरती हुई गोली जब 20 वें कर्णपटल से बाहर निकली तो उसके होश फाख्ता थे। पसीने से लथपथ हाँफते हुए गोली बोली कि “भिया कौन गली में भेज दिए थे हमको? एक तीर से दो शिकार तक तो बात समझ आती है, तुमने 20 की बैंड बजवा दी! अब हमको एनर्जी ड्रिंक लगेगा।” तभी जमीन पर लहराते, गश खाते रावण जी बोल उठे, “क्षमा करें मैम! पर मैं एक ही हूँ। न जाने किस ग्रह पर मेरी आत्मा विचरण कर रही है कि अब तक शांति न मिल सकी! हे राम! अब मुझे इस ब्रह्मांड से मुक्ति दे दो!”
रावण के मुखारविंद से ‘हे राम’ की ध्वनि उच्चरित होते ही आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी और एक बार फिर रावण को अपार जनसमूह के साथ विदाई दी गई। सभी ने बुराई पर अच्छाई की जीत को महिमामण्डित कर मामले को रफ़ा दफ़ा किया।