भारतीय समाज में अंतरजातीय विवाह कोई नई बात नहीं है। यह हमेशा से होता आ रहा है और आगे भी होता रहेगा। लेकिन अब इसे लेकर सोशल मीडिया पर जो हाय तौबा मचती है, वह बिल्कुल नया और चौंकाने वाला अनुभव है। सोनाक्षी और इक़बाल के विवाह के पक्ष-विपक्ष में लोग इस तरह बौराए हुए हैं कि लगता है ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ वाली कहावत इन्हें ही ध्यान में रख रची गई होगी।
सोनाक्षी और इक़बाल के रिश्ते को लेकर सोशल मीडिया में जिस तरह लिखा जा रहा है, वह किसी भी अन्य भाव से कहीं अधिक क्षोभ उत्पन्न करता है। अब यह एक सामाजिक प्रवृत्ति ही बन चुकी है कि इधर हिंदू-मुस्लिम विवाह हुआ और उधर मंगलकामनाओं के स्थान पर अशुभ वचनों की बरसात होने लगी! विशेषतः तब जबकि हिंदू लड़की किसी मुस्लिम लड़के से विवाह कर रही हो। दुखद है परंतु ‘सूटकेस में आएगी’, ‘धर्म-परिवर्तन करना पड़ेगा’, ‘पिता को खामोश कर दिया’, ‘सोनाक्षी के परिजनों के चेहरों की उदासी देखिए!’……जैसी प्रतिक्रियाएं अब बेहद आम हो गईं हैं। यह समाज का कौन सा रूप है? और कितनी विद्रूपता देखना बाकी रह गया है?
कन्या को देवी के रूप में पूजने वाला समाज जब अपनी ही एक बेटी के लिए यह सब कहता है तो दुख होता है कि ये वही लोग हैं जो संस्कृति की रक्षा की दुहाई देते फिरते हैं। किसी के जीवन के सबसे सुंदर अवसर पर उसे शुभकामनाएं देने के बजाय अनर्गल बातें कहना, उसके प्रति बुरी भावनाएं रखना, क्या वही संस्कृति हैं जिस पर हम गर्व करते रहे हैं? क्या ही दोहरी मानसिकता है कि दुनिया के सामने ‘सर्वधर्म समभाव’ और ‘विश्व बंधुत्व’ का नारा देने वाले, ‘अनेकता में एकता’ का दंभ भरने वाले लोग, एक भारतीय की दूसरे भारतीय से शादी ही बर्दाश्त नहीं कर पा रहे!
लड़का-लड़की सात वर्षों से प्रेम में हैं, वयस्क हैं और अब परिणय सूत्र में बँध गए। प्रेम की इससे सुंदर और क्या परिणिति हो सकती है? आखिर इस बात से किसी को क्या परेशानी है? माना कि वे सेलिब्रिटी हैं पर इसका यह अर्थ नहीं कि कोई, कुछ भी कह डालें! हर विषय पर हमारी राय क्यों जरूरी है और यदि है भी तो इसकी कोई तो हद तय हो!
क्या बुरा बोलने वालों ने कभी सोचा है कि इससे नव-विवाहित जोड़े की मानसिक दशा पर क्या प्रभाव पड़ेगा? कोई आपके परिवार में किसी के विवाह पर यही प्रतिक्रिया दे तो कैसा लगेगा? खून खौल उठेगा न? सोचिए सोनाक्षी और इक़बाल के परिवार पर क्या बीत रही होगी? ज्यादा कुछ नहीं तो बस थोड़ी शर्म ही कर लीजिए! उनके विवाह के बाद का जीवन कैसा कटेगा, वे स्वयं देख लेंगे। हम और आपको कोई अधिकार ही नहीं कि इस पर किसी भी तरह की, कोई भी प्रतिक्रिया दें। वैसे भी संबंधों का बनना और बिगड़ना जाति-धर्म पर नहीं, बल्कि व्यक्ति पर निर्भर करता है। हर जाति-धर्म में ऐसे असंख्य उदाहरण मिल जाएंगे जहाँ रिश्ते अंत तक चले या निभे ही नहीं! पत्नी से संबंध विच्छेद किये बिना उन्हें छोड़ने वाले भी हर समाज में बहुतेरे हैं। सब कुछ जानते-समझते हुए भी हम किस मुँह से किसी के लिए बुरा बोल सकते हैं? आपको नहीं लगता कि जाने-अनजाने में हम उस समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं जो प्रेम का दुश्मन है। जिसे प्रेम से नफ़रत है और जिसके मुखारविंद से प्रेमियों के लिए दुआ के स्थान पर बद्दुआ निकलती है। वो तो गनीमत है कि यह जोड़ा संभ्रांत परिवार से है, कहीं कोई गरीब युगल होता तो न जाने उसका क्या ही हश्र करते!
मात्र इसलिए कि कोई हिंदू या मुस्लिम है, हम पूर्वाग्रह से ग्रसित हो न्यायाधीश की कुर्सी पर क़तई नहीं बैठ सकते! मनुष्य को जाति-धर्म के तराजू में क्यों तौलना? यूँ भी समाज में नकारात्मकता बहुत है। सोच अच्छी रखेंगे तो सब अच्छा होगा। हाँ, यदि आप चाहते ही नहीं कि किसी का अच्छा हो तो फिर क्या ही उम्मीद रखी जाए! बस, प्रार्थना ही की जा सकती है कि ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे और अच्छे कर्मों के लिए प्रेरित करे।
अतिवाद के शिकार वे भी हैं जो सुबह से शाम तक इस विवाह के समर्थन में एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं। अरे, छोड़िए न इस चर्चा को! इस दुनिया में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर चिंतन-मनन की आवश्यकता है, कई महत्वपूर्ण समस्याएं हैं जिन पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। दिमाग को ऐसी जगह लगाइए कि समाज का कुछ भला हो। व्यर्थ की बहसबाज़ी का क्या हासिल? हम लोग ये किन विषयों पर अपना समय जाया कर रहे हैं? यह मानसिक विक्षिप्तता आखिर कब थमेगी? नफ़रत ही बोते रहेंगे तो फ़सल भी इसी की खड़ी होगी। विचारणीय है कि हम कब तक सभ्यता के उस बिंदु पर खड़े रहेंगे, जहाँ से प्रगति के लिए आगे बढ़ने का कभी मन बनाया था!