आलेख
ब्रज भाषा काव्य में लोक चेतना: इन्दिरा चौधरी
ब्रज भाषा का तात्पर्य –
परम पावन एवं पवित्र भूमि ‘ब्रज‘ का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद संहिता में चारागाह अथवा पशु समूह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कालान्तर में संहिता, रामायण तथा महाभारत काल तक भी यह शब्द देशवाचक नहीं बन सका। यहां तक कि हरिवंशपुराण आदि साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग मथुरा के निकटस्थ नंद के ब्रज अर्थात् गोष्ठ विशेष के अर्थ में ही हुआ है। हिन्दी साहित्य में आकर ब्रज शब्द पहले पहल मथुरा के चारों ओर के प्रदेश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भाषाविद् डाॅ0 धीरेन्द्र वर्मा के मतानुसार ब्रज शब्द संस्कृत ब्रज धातु से बना है।
ब्रज लोक संस्कृति –
डाॅ. गिरीश कुमार चतुर्वेदी लिखते हैं कि – ‘‘लोक संस्कृति वह धारा हैं जो सदियों से प्रहवमान रहकर निरन्तर बहती ही चली जाती है। प्राचीन रीति रिवाज, आचार-विचार, लोक साहित्य, संगीत, नृत्य, बोली और संस्कार ही किसी लोक संस्कृति के आधार स्तम्भ का कार्य करते हैं। बृज की लोक संस्कृति दूध, दही और माखन, मिश्री की संस्कृति है। जहां हिंसा, अन्याय, दुराचार, भ्रष्टाचार, वैमनस्य, धोखा, छल फरेब को कोई स्थान नहीं है। ब्रज लोक संस्कृति की संरचना गोवर्धन के कण-कण मे, यमुना की लहरों मे, गोप-गोपियों ने और वहां की कुंज गलियों मे, मधुवन मे और वहां की हवा पानी मे है। ब्रज लोक संस्कृति सहज विश्वासी है, आस्थामय है, भक्ति रस में आपाद मस्तक निमज्जित है, परम्परानुरागी है, टोना टोटकों को मानती है तथा तीज त्यौंहारों में रस मग्न रहती है। यहां का चप्पा-चप्पा श्रीकृष्ण, राधा गोपियों, नंद यशोदा के प्यार में प्रदीप्त होता है। ब्रज रेणु की पावन सुरभ ही यहां की लोक संस्कृति का अनुपम वैशिष्ट्य है। ब्रज के लोकगीत हो या लोक कथाएं या लोकगाथाएं अथवा लोकोत्सव या लोकनाट्य अथवा लोक सुभाषित सब कुछ लोक संस्कृति के निर्मल दर्पण हैं। यहां के कण-कण में दूध, दही, छाछ और मक्खन छलकता है और शताब्धियों-शताब्धियों से जन मन रंजन का अपूर्व पावन कर्म कर रहा है। गोवर्धन, बरसाना और नंदगांव, गोकुल और मथुरा के आस पास की भूमि की पवित्रता पर ही तो सूरदास, ध्रुवदास, रसखान और मीरा स्वयं को न्यौछावर किये हुये थे।
मीराबाई श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति के सामने आनन्दमग्न होकर नाचती गाती थी। कहते हैं कि इनके इस राजकुलविरूद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रूष्ट रहा करते थे। यहां तक कहा जाता है कि इन्हें कई बार विष देने का प्रयत्न किया गया, पर भगवान कृपा से विष का कोई प्रभाव इन पर न हुआ। घरवालों के व्यवहार से खिन्न होकर ये द्वारका और वृन्दावन के मंदिरों में घूम-घूमकर भजन सुनाया करती थीं। जहां जाती वहां इनका देवियों का सा सम्मान होता। ऐसा प्रसिद्ध है कि घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदास जी को यह पद लिखकर भेजा था –
स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषण दूषण हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहुँ, अब हरहु सोक समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु संग अरू भजन करत मोहिं देत कलेस महाई।।
मेरे मात-पिता के सम हौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
मीरा बाई की उपासना माधुर्यभाव की थी, अर्थात् वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थीं। इसी ढंग की उपासना का प्रचार सूफी भी कर रहे थे, अतः उनका संस्कार भी इन पर अवश्य पड़ा। जब लोग इन्हें खुले मैदान मंदिरों में पुरूषों के सामने जाने से मना करते तब वे कहतीं कि कृष्ण के अतिरिक्त और पुरूष है कौन जिसके समाने लज्जा करूँ। मीराबाई का नाम प्रधान भक्तों में है। इनके कुछ पद तो राजस्थान मिश्रित भाषा में हैं और विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में। पर सबमें प्रेम की तल्लीनता समान रूप से पायी जाती है। इनके पद इस प्रकार हैं –
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनि मूरति, साँवरि सूरति, नैना बने रसाल।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरून तिलक दिए भाल।।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती भाल।।
छुद्रघंटिका कटि तट सोभित, नुपुर शब्द रसाल।।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्तबछल गोपाल।।
मन रे परसि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल कोमल त्रिविध ज्वाला हरन।।
जो चरन प्रहलाद परसे इंद्र पदवी धरन।।
जिन चरन धुव्र अटल कीन्हौं राखि अपनी सरन।।
जिन चरण ब्रह्माण्ड़ भेट्यो नखसिखौ श्री भरन।।
जिन चरन प्रभु परस लीन्हें तरी गौतम-घरनि।।
जिन चरन धार्यो गोेबरधन गरब मधवा हरन।।
दासि मीरा लाल गिरधर अगम तारन तरन।।
श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं जो दिव्य गुणों से सम्पन्न होकर ‘पुरुषोत्तम‘ कहलाते हैं। आनन्द का पूर्ण आविर्भाव इसी पुरुषोत्तम रूप में रहता है, अतः यही श्रेष्ठ रूप है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सब लीलाएँ नित्य हैं। वे अपने भक्तों के लिये ‘व्यापी वैकुण्ठ‘ में (जो विष्णु के वैकुंठ से ऊपर है) अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहते हैं। गोलोक इसी व्यापी वैकुंठ का एक खण्ड़ है जिसमें नित्य रूप में यमुना, वृन्दावन, निकुंज इत्यादि सब कुछ है। भगवान की इस नित्य लीला सृष्टि में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।
शंकर ने निर्गुण को ही बह्म का पारमार्थिक या असली रूप कहा था और सगुण की व्यावहारिक या मायिक। बल्लभाचार्य ने बात उलटकर सगुण रूप को ही असली पारमार्थिक रूप बताया और निगुर्ण को उसका अंशतः तिरोहित रूप कहा। भक्ति की साधना के लिये बल्लभ ने उसके श्रद्धा के अवयव को छोड़कर, जो महत्व की भावना में मग्न करता है, केवल प्रेम लिया। प्रेमलक्षणा भक्ति ही उन्होंने ग्रहण की। ‘चैरासी वैष्णवों की वार्ता‘ में सूरदास की एक वार्ता के अन्तर्गत प्रेम को ही मुख्य और श्रद्धा या पूज्यबुद्धि को ही आनुषांगिक या सहायक कहा है –
‘‘श्री आचार्य जी, महाप्रभु के मार्ग को कहा स्वरूप है ? माहात्म्य ज्ञानपूर्वक सुदृढ़ स्नेह तो परम काष्ठा है। स्नेह आगे भगवान का रहत नाहीं ताते भगवान बेर-बेर माहात्य जनावत हैं। इन ब्रज भक्तन को स्नेह परम काष्ठापन्न है। ताहि समय तो माहात्म्य रहे, पीछे विस्मृत होय जाय।‘‘
प्रेमसाधना में बल्लभ ने लोकमर्यादा और वेदमर्यादा दोनों का त्याग विधेय ठहराया। इस प्रेम लक्षणा भक्ति की और जीव की प्रवृŸिा तभी होती है जब भगवान का अनुग्रह होता है जिसे पोषण या पुष्टि कहते हैं। इसी से बल्लभाचार्य जी ने अपने मार्ग का नाम पुष्टिमार्ग रखा है। उन्होंने जीव तीन प्रकार के माने हैं –
1. पुष्टि जीव, जो भगवान के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और नित्यलीला में प्रवेश पाते हैं।
2. मर्यादा जीव, जो वेद की विधियों का अनुसरण करते हैं और स्वर्ग आदि लोक प्राप्त करते हैं और
3. प्रवाह जीव, जो संसार के प्रवाह में पड़े सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते हैं।
‘कृष्णाश्रय‘ नाम एक प्रकरण ग्रन्थ में बल्लभाचार्य ने अपने समय की अत्यन्त विपरीत दशा का वर्णन किया है, जिसमें उन्हें वेद मार्ग या मर्यादा मार्ग का अनुसरण अत्यन्त कठिन दिखाई पड़ा है। देश में मुसलमानी साम्राज्य अच्छी तरह दृढ़ हो चुका था। हिन्दुओं का एकमात्र स्वतंत्र और प्रभावशाली राज्य दक्षिण का विजयनगर राज्य रह गया था, पर बहमनी सुल्तानों के पड़ौस में रहने के कारण उसके दिन भी गिने हुये दिखाई पड़ते थे। इस्लामी संस्कार धीरे-धीरे जमते जा रहे थे। सूफी पीरों के द्वार सूफी पद्धति की प्रेमलक्षणा भक्ति का प्रचारकार्य धूम से चल रहा था। एक ओर निर्गुण पंथ के संत लोग वेदशास्त्र की विधियों पर से जनता की आस्था हटाने में जुटे हुये थे। अतः बल्लभाचार्य ने अपने पुष्टिमार्ग का प्रवर्तन बहुत कुछ देशकाल देखकर किया।
कृष्णचरित के गान में गीतकाव्य की जो धारा पूरब में जयदेव और विद्यापति ने बहाई, उसी का अवलम्बन ब्रज के भक्त कवियों ने भी किया। आगे चलकर अलंकारकाल के कवियों ने अपनी श्रृंगारमयी मुक्तक कविता के लिये राधा और कृष्ण का ही प्रेम लिया। इस प्रकार कृष्ण संबंधिनी कविता का स्ुफृरण मुक्तक के क्षेत्र में ही हुआ, प्रबन्ध क्षेत्र में नहीं। बहुत पीछे संवत् 1809 में ब्रजवासीदास ने रामचरितमानस के ढंग पर दोहों, चैपाइयों में प्रबन्धकाव्य के रूप में कृष्णचरित का वर्णन किया, पर ग्रन्थ बहुत साधारण कोटि का हुआ और उसका वैसा प्रसार न हो सका। कारण स्पष्ट है, कृष्णभक्त कवियों ने श्रीकृष्ण भगवान के चरित का जितना अंश लिया वह एक अच्छे प्रबन्धकाव्य के लिये पर्याप्त न था। उनमें मानव जीवन की वह अनेकरूपता न थी जो एक प्रबन्ध काव्य के लिये आवश्यक है। कृष्णभक्त कवियों की परम्परा अपने इष्टदेव की केवल बाललीला और यौवन लीला लेकर ही अग्रसर हुई जो गीत और मुक्तक के लिये ही उपयुक्त थी। मुक्तक के क्षेत्र में कृष्णभक्त कवियों तथा आलंकारिक कवियों ने श्रृंगार और वात्सल्य रसों को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया।
पश्चिमी हिन्दी बोलने वाले सारे प्रदेशों में गीतों की ब्रजभाषा ब्रज ही थी। दिल्ली के आसपास भी गीत ब्रजभाषा में ही गाये जाते थें, जो हमें खुसरो (संवत् 1340) के गीतों में देखने को मिलता है। कबीर (संवत् 1560) के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी साखी की भाषा तो सधुक्कडी है, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित ब्रजभाषा है। यह एक पद तो कबीर और सूर दोनों की रचनाओं के भीतर ज्यों का त्यों मिलता है –
है हरि भजन को परवान।
नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते नीसान।
भजन को परताप ऐसो तिरे जल पाषान।
अधम भील, अजाति गनिका चढ़े जात बिवाँन।
नवलख तारा चलै मंडल, चलै ससहर भान।
दास धू कौं अटल पदवी राम को दीवान।
निगम जाकी साखि बोलैं कथैं संत सुजान।
जन कबीर तेरो सरनि आयो, राखि लेहु भगवान।
है हरि भजन को परवान।
नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते नीसान।
भजन को परताप ऐसों जल तरै पाषान।
अजामिल अरू भील गनिका चढ़े जात बिमान।
चलत तारे सकल मंडल, चलत ससि अरू भान।
भक्त धु्रव को अटल पदवी राम को दीवान।
निगम जाको सुजस गावत,सुनत संत सुजान।
सूर हरि की सरन आयौ, राखि ते भगवान।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि ब्रज भाषा में प्रेम और कृष्ण भक्ति का समावेष मिलता है। ब्रज काव्य में मानवीय मूल्यों संवाहक है। इसमें प्रेम एवं सदभाव का प्रतिष्ठा पद है। कृष्ण भक्ति में मानवीय समस्याओं का हल मिलता है।
सन्दर्भ –
1. डाॅ. गिरीश कुमार चतुर्वेदी-ब्रज की लोक संस्कृति
2. मधुर उप्रेती- ब्रज लोक साहित्य
3. कबीर ग्रन्थावली, पृष्ठ 190
4. सूरसागर, पृष्ठ 19, वेंकटेश्वर
– इन्दिरा चौधरी