आलेख
कृष्ण भक्ति काव्य और साम्प्रदायिक सद्भाव: मंजु रानी
श्रीकृष्ण विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं। कृष्ण अवतार की तरह ही विष्णु का रामावतार भी भारतीयों को उतना ही बंदनीय, संस्मरणीय और अनुसरणीय हैं।
कृष्ण की मनुष्यता विलोकनीय होने के कारण उनके साथ निजी रिश्ता कायम किया जा सकता है, कृष्ण से प्रेम किया जा सकता है। कृष्ण के भक्त बन सकते हैं, शिकायत कर सकते हैं और कृष्ण की पूजा, भक्ति कर सकते हैं, जितना कृष्ण से झगड़ा जा सकता है उतना ही आत्मनिवेदन भी किया जा सकता है। कृष्ण जितना अपने मित्रों में रमता है, उतना ही मुक्त गोपियों में भी रम जाते हैं। कदाचित स्त्री-पुरुष का भेद समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि कुब्जा जैसी कुरूप नारी पर भी श्रीकृष्ण अनुरक्त होते हैं। गोकुल की भोली, ग्रामीण, अनजान, सामान्य आचार-विचार के बच्चों से उनकी भक्ति रूपी मित्रता बन जाती है।
नारद जी के मतानुसार भक्ति शास्त्र का वैशिष्ट यह है कि सभी प्रकार के एवं सर्वस्तरीय व्यक्तियों को भक्तिमार्ग खुला है। परमेश्वर कृष्ण की भक्ति करने में कुल, धर्म, सत्ता, विधा सम्मान यह भेद बीच में नहीं आते हैं। मनुष्य सज्जन हो या दुराचारी वह जिस समय स्वयं को भगवान के चरणों पर समर्पित करता है और उसी भावना से व्यवहार करता है। उसी क्षण उसकी पराभक्ति का प्रारंभ होता है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरण पादसेवनम्।
अर्चनं बन्दनं दास्यं सख्यात्मनिवेदम्।।
श्री विष्णु के संदर्भ में श्रीकृष्ण के नाम से पहला श्रवण दूसरा कीर्तन तीसरा स्मरण चैथा पाद-सेवन पाँचवाँ पूजा छठा वंदन सातवां दास्य आठवां सख्य नौवाँ आत्मनिवेदन है। यही भक्ति नवविधा (नैवधा) भक्ति के नाम से प्रसिद्ध है।
कृष्ण भक्ति काव्य और साम्प्रदायिक सद्भाव के विषय में आज मैंने दो महान संत पहला संत ज्ञानेश्वर तथा दूसरी संत मीराँबाई के विषय में अपनी चर्चा आरम्भ करते हुए किस प्रकार दो अलग-अलग संत जो एक पुरुष तथा दूसरी स्त्री होते हुए भी कृष्णमय भक्ति उपासक हो गए हैं।
सर्वप्रथम दोनों संतों के विषय में जान लेना अति आवश्यक है। संत ज्ञानेश्वर जो बचपन से ही अनेक संकटों का सामना करते हुए संत के रूप में जीवन को समझ कर सशक्त रूप में अपना रास्ता तय किया। ज्ञानेश्वर श्रेष्ठ योगसिद्ध एवं अभिजात संत कवि थे। मानवी मन के कभी सात्विक एवं सुकोमल धर्म उनके व्यक्तित्व एवं कविता को समृद्ध बनाते हैं।
ज्ञानेश्वर के बचपन की तुलना में मीराँबाई का बचपन अत्यंत सुखपूर्ण बीता वे राजा-महाराजा के घर में जन्मी थी इस कारण सभी प्रकार के सुख उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े थे।
बचपन से ही श्रीकृष्ण भक्ति का बीज मीराबाई क मन में बोया गया। बालमन में ही उन्होंने कृष्ण से प्रेम रूपी भक्ति को सजा लिया था। श्रीकृष्ण मूर्ति से वे भक्ति ही नहीं प्रीति भी करने लगी।
संत ज्ञानेश्वर और मीराबाई के बचपन में बहुत अंतर दिखाई देता है तथा कृष्ण भक्ति की लौ दोनों में समान दिखाई पड़ती है जो एक प्रकार से साम्प्रदायिकता से दूर सद्भाव का सोदाहरण है।
संत ज्ञानेश्वर का संघर्ष लोगोन्मुखता में परिवर्तित होता है इसका कारण ज्ञानेश्वर का संपूर्ण विश्व से प्रेम है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ाता है वे संघर्ष को मात देते हैं और विश्वात्म मन से आदर्श स्तर पर व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को सद्भाव से ओत-प्रोत कर देते हैं।
मीराबाई के संघर्ष का स्वरूप है- उनकी बगावत/मीरा के जीवन में कृष्णभक्ति उनके जीवन का केन्द्र बिन्दु है।
संत मीराबाई मध्ययुगीन संत है। मध्यकालीन नारियों की व्यथाओं को मीराबाई ने अपनी कृष्ण भक्ति के द्वारा व्यक्त किया है। राजपुत परिवार में जन्मी मीराबाई ने केवल कृष्ण की भक्ति कर स्वयं को प्रकाशमय नहीं किया, अपितु जगत में प्रकाश रूपी कृष्ण भक्ति साम्प्रदायिक सद्भाव को फैलाया है।
समाज के बंधनों से मुक्त हो समाज में जाति-पाति, भेदभाव को मिटाते हुए एक अकेली स्त्री साम्प्रदायिकता की ऊँची दीवार को लांघ कर पैर में घुँघरू बाँध नाच रही है-
पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो अपने गिरधर की,
आप ही हो गई दासी रे।
संत ज्ञानेश्वर ने संपूर्ण विश्व के मंगल की कामना करने वाले ग्रंथों का निर्माण किया। इससे ज्ञानेश्वर महामानव, दयामानव की श्रेणी में विद्यमान हुए हैं। उनका वैराग्य विश्वकल्याण का जन्म उनके राजविलासी जीवन से हुआ। मीराबाई के बहुत से पद पारिवारिक जीवन जीते समय आने वाले संकट एवं सास, देवर, ननद, समाज आदि द्वारा होने वाले त्रासदी की वर्णन करने वाले हैं। समाज ने किस प्रकार उन्हें बुरा ठहराया इसका वर्णन भी उनके कुछ पदों में मिलता है। इसी प्रकार संत ज्ञानेश्वर के जीवन का विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानेश्वर, उनके भाई-बहनों एवं उनके माता-पिता को समाज ने बहिष्कृत किया। इसके विपरित समाज के प्रति रोष, कुंठा का लेशमात्र उनके मन में नहीं रहा, यही उनके जीवन में साम्प्रदायिक सद्भाव का उच्च आदर्श है।
संत ज्ञानेश्वर और संत मीराबाई दोनों के काव्य में कृष्णभक्ति का उत्कृष्ट सुंदर संगम दिखाई देता है। संत ज्ञानेश्वर की गोपिकाएँ एवं विरहिणी दोनों उत्कट है तो मीराबाई स्वयं यहाँ विरह की ज्वाला में तड़प रही है।
संत ज्ञानेश्वर पुरुष तथा संत मीराबाई स्त्री होने पर भी दोनों की कृष्ण भक्ति का अंतर दिखाई नहीं देता। दोनों की श्रीकृष्ण भक्ति अडिग एवं असीम थी।
संत ज्ञानेश्वर और संत मीराबाई दोनों ही भारतीय कृष्ण भक्ति परंपरा को समृद्ध करने वाले श्रेष्ठ कवि है। दोनों ही संतों का मूल आदर्शवादी आध्यात्म साधन है। दोनों से प्रकाशमय जगत हुआ है। यह सामान्य के बस की बात नहीं।
संत ज्ञानेश्वर, मीराबाई दोनों ही कृष्ण भक्ति परंपरा के श्रेष्ठ संत हैं। समाजोन्मुखता, वैराग्य, परमेश्वर की अनन्य साधारण भक्ति एवं सद्भाव जीवन की दुःख पीड़ा, मानवी जीवन के अभ्युदय का अखंड खींचाव दोनों में दिखाई देता है।
निष्कर्षतः दोनों संतों की भाषा के स्वर से कृष्ण भक्ति काव्य और साम्प्रदायिक सद्भाव को प्रतिबिम्बित किया गया है।
– डॉ. मंजु रानी