3 जनवरी: सावित्री बाई फुले के जन्मदिन पर विशेष
आधुनिक भारत के इतिहासकार सुमित चक्रवर्ती ने लिखा है कि हमारे पास हर बात को देखने का एक राष्ट्रवादी चश्मा होता है। उस चश्मे से हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि वह बात अंग्रेजों के खिलाफ थी या नहीं थी, और उसी के आधार पर हम तय करते हैं कि वह ठीक थी या नहीं थी। इस राष्ट्रवादी चश्मे को उतार फेंकिये और यह देखने की कोशिश कीजिये कि भारत में सांस्कृतिक व राजनैतिक आंदोलन के समानांतर कई सामाजिक आंदोलन चलते रहे हैं जो आजादी की लड़ाई से कहीं अधिक व्यापक थे। भारत में समाज सुधारकों ने अपने अपने समय में अलग अलग लड़ाइयां लड़ी हैं और ये लड़ाइयां कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।भारतीय नवोत्थान के काल में जब बंगाल में हिन्दू पुनर्जागरण जोरों पर था जिसकी चर्चा हम प्रायः हर दिन करते हैं उसी के समानांतर महाराष्ट्र में एक सामाजिक पुनर्जागरण तेजी से चला जिसने हिंदू धर्म की सामाजिक व्यवस्थाओं और परंपराओं को कड़ी चुनौती दी और वर्ण-जाति व्यवस्था को खत्म करने, महिलाओं पर पुरुष एकाधिकार को खत्म करने के लिए संघर्ष किया। इस व्यापक सामाजिक आंदोलन का नेतृत्व सावित्री बाई फुले और उनके पति जोतिवा फुले ने कंधे से कंधा मिलाकर किया।
भारत एक ऐसा देश है जहां महिलाओं को महापुरुष की श्रेणीं में तभी याद किया जाता है जब वे पुरुष भेष धारण कर तलवार या हथियार चलाती दिखें लेकिन सामाजिक आंदोलनों की तलवार कहीं अधिक पैनी होती है जो समाज को झकझोर कर रख देती है। एक ऐसे ही प्रभावी सामाजिक आंदोलन की प्रणेता थीं देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले। हिंदू धर्म, समाज व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों और महिलाओं के लिए जिस महिला ने संगठित रूप से कड़ी चुनौती दी, उनका नाम सावित्री बाई फुले था।सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में एक शूद्र परिवार में हुआ। हम कह सकते हैं कि तत्कालीन हिन्दू धर्म के अनुसार उन्हें दो दंड जन्मजात मिले – जन्म से शूद्र होना और ऊपर से स्त्री होना । जब शूद्रों में लड़के की शिक्षा के लिए मनाही थी, उस समय शूद्र जाति में पैदा हुई सावित्रीबाई बाई के लिए शिक्षा दूर की कौड़ी थी। बचपन से ही वे घर के काम के अलावा पिता के साथ खेती के काम में सहयोग करती थीं। एक बारजब वे गांव के लोगों के साथ शिरवाल गईं तो उन्होंने देखा कि कुछ विदेशी महिलाऐं पुरुषों के साथ एक पेड़ के नीचे ईसा मसीह की प्रार्थना किताब पढ़ते हुए गा रहे थे। वे जब पेड़ के नीचे रुकीं तो किसी ने उनके हाथ में एक पुस्तक थमायी। वे पढ़ी लिखी नहीं थीं पर वे उस पुस्तक को लेकर घर आ गईं। अतः स्प्ष्ट है कि उन्हें पढ़ने की शिक्षा पश्चिमी समाज से ही मिली।
जोतिवा फुले से उनकी शादी 9 वर्ष की उम्र में हो गयी थी। जोतिवा फुले और सगुणा बाई की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की । इसके बाद उन्होंने औपचारिक शिक्षा अहमदनगर में ग्रहण की फिर उन्होंने पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान से ट्रेनिंग प्राप्त की। इसके साथ ही वे अध्यापन कल कार्य भी करतीं रहीं। अपने पति ज्योतिवा फुले के साथ उन्होंने 1 जनवरी 1848 को लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला। धीरे धीरे स्कूलों की संख्या बढ़कर 18 तक पहुंच गई।
सावित्री बाई फुले ने सीधे ब्राह्मणवाद के एकाधिकार को सीधी चुनौती दी। ब्राह्मणों ने जोतिवा फुले के पिता पर दबाव डालकर उन्हें स्कूल में पढ़ाना बन्द करने की चेतावनी दी। सावित्री बाई ने शूद्रों-अति शूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए घर छोड दिया। जब सावित्री बाई फुले स्कूल में पढ़ाने जातीं, तो उच्च जाति के लोग उन पर गोबर फेंकते थे। लेकिन सावित्री बाई का हौसला नहीं टूटा। वे लोगों से कहती थीं कि कहतीं, ‘मेरे भाई, मैं तुम्हारी बहनों को पढ़ाकर एक अच्छा कार्य कर रही हूं। आप के द्वारा फेंके जाने वाले पत्थर और गोबर मुझे रोक नहीं सकते, बल्कि इससे मुझे प्रेरणा मिलती है। ऐसे लगता है जैसे आप फूल बरसा रहे हों। मैं दृढ़ निश्चय के साथ अपनी बहनों की सेवा करती रहूंगी. मैं प्रार्थना करूंगी की भगवान आप को बरकत दें।’ गोबर से सावित्री बाई फुले की साड़ी गंदी हो जाती थी, इस स्थिति से निपटने के लिए वह अपने पास एक साड़ी और रखती थीं. स्कूल में जाकर साड़ी बदल लेती थीं।शिक्षा के साथ ही फुले दंपत्ति ने समाज की विधवा महिलाओं के लिए बहुत काम किया। 1863 में उन्होंने अपने पति के साथ बाल हत्या प्रतिबंधक गृह शुरू किया। जोतिवा फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी। उनकी मृत्यु के बाद 1891 से लेकर 1897 उन्होंने इसका नेतृत्व किया।
सावित्री बाई फुले का निधन 10 मार्च 1897 को हुआ। वे देश की पहली महिला शिक्षिका, आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत कविताओं और सामाजिक चेतना की जीती जागती मिशाल थीं। फुले दंपत्ति का पूरा जीवन गहरे सामाजिक अन्याय, और अपमान का जीता जागता दस्तावेज है। समाज के वंचित लोगों ख़ासकर स्त्रियों और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए वे हमेशा याद की जाएंगी।
उनके जन्मदिन पर शत शत नमन ।
उनके जन्मदिन पर शत शत नमन ।