ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर जी कहते हैं कि
“बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो”
पुस्तक और पाठक का बंधन इतना अटूट है कि वे लेखक जिन्हें हमसे दूर हुए सदियाँ बीत गईं, उनके शब्द अब भी हमारे साथ चलते हैं। न जाने वेदव्यास जी की असल तस्वीर कैसी होगी, न जाने वाल्मीकि जी कैसे दिखते होंगे लेकिन महाभारत और रामायण रचकर वे आज तक हमसे बतिया रहे हैं। हमारी पीढ़ियों ने उन्हें पढ़ा, उनसे सीखा। समाज में आदर्श की स्थापना हुई।
हम उदासी में होते हैं तो गालिब और मीर को गुनगुना लिया करते हैं, जॉन एलिया को याद करते हैं। वे सशरीर उपस्थित नहीं पर उनके शब्दों की विरासत है हमारे पास, जो अब भी अलग-अलग रूपों में आकर हमसे मिलती है। कभी किसी का हौसला बन दुष्यंत...
प्रीति अज्ञात