प्रकृति, विभाजन में विश्वास नहीं रखती!
प्रकृति, विभाजन में विश्वास नहीं रखती!
सूरज कभी भी अपने नाम की तख़्ती लिए नहीं घूमता और न ही चाँद अपनी सूरत को देख स्वयं आहें भरा करता है। जीवनदायिनी प्राणवायु सरसराती हुई किसी तप्त मौसम में शीतलता ओढ़ाती और शीत ऋतु में जमकर ठिठुराती है पर आज तक उसने हौले-से भी कभी कानों के पास आकर यह नहीं कहा कि "सुनो, मैं हवा हूँ"....सागर, नदियाँ, ताल-तलैया कभी अपनी पहचान की माँग नहीं करते। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ तक अपनी जगह मौन, स्थिर खड़े हैं किसी ने हरियाली की चादर ओढ़ी हुई है तो कोई सर्द बर्फ़ की मोटी रजाई में आसरा लिए पड़ा है, कोई पत्थरों से क्षत-विक्षत। पर अपनी-अपनी ऊँचाई के घमंड से चूर हो या दूसरे से घृणा/ईर्ष्या कर ये सब एक-दूसरे को आहत करते कभी नहीं पाए गए। वृक्षों ...
प्रीति अज्ञात