फेसबुक से
लेखक और पाठक का फेसबुकिया प्यार
कुछ सालों पहले एक फिल्म आई थी ‘सिर्फ तुम’…हवा के ठंडे झोंकों सी…. इसमें नायक और नायिका एक दूसरे को बिना देखे मोहब्बत करते हैं….सच्ची मोहब्बत। फिल्म के अंत में ही दोनों का मिलना हो पाता है। आज के जमाने में ऐसा प्यार संभव है या नहीं, ये पर्याप्त शोध और विमर्श का विषय तो है ही पर इस सम्बन्ध में भी अनुभव ज्यादा महत्व रखता है। आज फेसबुक पर भी काफी कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा है। किसी का प्रसिद्ध होना या ना होना अलग विषय है … लेकिन फेसबुक पर डाली गई प्रोफ़ाइल पिक अत्यंत महत्व रखती है, ‘फर्स्ट इंप्रेशन ‘ इसी से पड़ता है ….. ध्यान रहे आप इसे अन्यथा ना लें क्योंकि यहां लेखक और पाठक के स्वाभाविक संबंध की बात हो रही है ‘फेक आईडी’ वालों के छिछोरे प्यार की नहीं….हाँ, तो मैं कह रही थी कि कभी- कभी ऐसा भी होता है कि पहले रचना पढ़ ली जाती है, पसंद आने पर प्रोफ़ाइल पिक की ओर ध्यान जाता है। कुल मिलाकर बात ये है कि लेखक और पाठक दोनों के मध्य स्नेह की डोर बंध जाती है। प्रोफ़ाइल पिक दिल को छूने वाली हो तो क्या कहने …. पहले तस्वीर देखी जाती है फिर रचनाएँ पढ़ी जाती हैं लेकिन एक अच्छा पाठक सिर्फ सूरत ही नहीं सीरत भी देखता है। कभी- कभी तो पाठक पर ये प्रभाव इतना गहरा हो जाता है कि वो लेखक के शब्द संसार में जीवन के सूत्र खोज लेता है। लेखक पाठक का ये रिश्ता लाइक और कमेंट के जरिए और मजबूत हो जाता है, जिस लेखक से कभी प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हुई ,वह जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। ये प्यार कई तरह का हो सकता है जैसे कहीं ये ‘गुरु शिष्य’ के पवित्र रिश्ते का आभास देता है तो कुछ लोगों में दोस्ती के रिश्ते जैसा भाव आता है,कहीं कहीं ‘बहनापे’ वाली फीलिंग भी आती है, कहीं ये सोचना पड़ता है कि ‘इस प्यार को क्या नाम दें!’
फेसबुक का सृजन संसार लोगों को अपना आदी तो बना ही देता है ‘जियें तो जियें कैसे बिन आपके’ की तर्ज पर ….और सोने पे सुहागा ये कि अपने पसंदीदा लेखक या कवि की पोस्ट जब तक न पढ़ ली जाए या प्रोफ़ाइल पिक न देख ली जाए तो ‘तुझे ना देखूं तो चैन मुझे चैन मुझे आता नहीं है ..’ की फीलिंग आ जाती है। फेसबुक का नशा पहले क्या कम होता है जो ये एक रोग और पाल लिया जाता है। हाँ.. जी, बड़ी अजब – ग़ज़ब कहानी है इस फेसबुकिया प्यार की। कभी – कभी ये अनाम रिश्ता नाम वाले रिश्तों से ज्यादा सुकून देने वाला बन जाता है। ये भी हो सकता है कि पाठक ने लेखक को जैसा कल्पित किया हो वो वैसा न हो बल्कि ये सुंदर कल्पना भ्रम मात्र ही हो ,पर करीबी रिश्तों से धोखा खाने के बाद व्यक्ति को ये भ्रम भी सुहाने लगता है। ये लगाव यदि सुखद भ्रम को कायम रख पाता है तो इसमें बुराई भी नहीं। लेकिन एक बात अवश्य है कि यदि पाठक एक संतुलित और व्यावहारिक सोच का मालिक है तो वह किसी के व्यक्तित्व को पहचानने में धोखा नहीं खाएगा। ये बात पत्थर की लकीर है कि लेखक के शब्द उसके व्यक्तित्व का आइना होते हैं। लेखक अपने समय, परिवेश और स्वयं अपने चरित्र से दूर होकर नहीं लिख सकता और यही कारण है कि जब ये शब्द पाठक के दिल को छूते हैं तो सृजन सार्थक हो जाता है। आभासी संसार की ये दूरियाँ कुछ ऐसे नजदीकी रिश्तों का निर्माण कर देती है जिसमें अपने श्रद्धेय से मिलने की चाह तो बनी ही रहती है पर दूरियाँ भी कम सुखद नहीं होतीं।
– डॉ. अलका जैन आराधना