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हम भारतीयों ने प्रेम को सदा ही पवित्र माना है। समय-समय पर पौराणिक चरित्रों की दुहाई देते हुए भी नहीं अघाते। क्यों न हो, यह ईश्वरीय भाव ही तो है। तभी तो हर शय से ऊपर रखा है हमने प्रेम को। किस्से-कहानियों में सबसे ऊँचा दर्ज़ा दिया है। लेकिन फिर ऐसा क्यों होता है कि जब प्रेम पुष्प अपने ही घर-परिवार में पल्लवित होते दिखते हैं तो अनायास ही सारी समझदारी विलुप्त हो जाती है! प्रतिष्ठा पर भीषण भय के बादल मंडराने लगते हैं! नाक की चिंता सताती है! 'लोग क्या कहेंगे' की आड़ में अपने मन की बात कही जाने लगती है। माता-पिता की ज़िद के आगे कई बार बच्चे झुक जाते हैं, कई बार जान दे देते हैं। जबकि ये दोनों ही निर्णय किसी भी परिस्थिति में सही नहीं ठहराए जा सकते। आखिर ये कौन लोग हैं, प्रेम के नाम पर जिनकी भृकुटी तन...