कथा-कुसुम
लघुकथा- खुल्ले पैसे
बुढ़ापे और कम आमदनी से बेजार शर्माजी सब्जी वाले की दुकान पर खड़े थे। चौबीस रूपये हुए कुल मिलाकर कह रहा है छह रूपये का कुछ और ले लो।
दुकान वाला छोकरा सत्रह अठारह साल का होगा।
“मुझ बुढ़े को बेवकूफ बना रहा है, अरे ज़रूरत नहीं है तो क्यों ले लूं?”
“दादा खुल्ले नहीं हैं” कहकर उसने ज़बरदस्ती एक गुलाब का फूल थैले में रख दिया और बोला, “रख लो आप कल अगर लगे की ज़रूरत नहीं है तो लौटा देना आपके छह रूपये वापस कर दूंगा।”
छह रूपये का ग़म खाते हुए शर्माजी भुनभुनाते घर पहुंचे और थैला रखकर लेट गये। कुछ समय बाद जब आँख खुली तो किचन से मीठे स्वर में गुनगुनाने की आवाज़ सुनी।
कहाँ तो शर्माईन का खर्चे का रोना गूंजता था, कहाँ ये गीत। कौतूहलवश शर्माजी ने किचन की तरफ झांका तो शर्माइन के सफेद जूड़े में चमकता लाल गुलाब दूर से ही दिख गया।
शर्माजी के अधरों पर मुस्कान फैल गई, “सही कहता था छोरा ज़रूरत तो थी।”
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लघुकथा- राक्षसनियाँ
पचास के रजत बाबू से शादी हुई बाईस की मीना की। औकात नहीं थी बाप की तो इस घर में भी सम्मान नहीं ही मिला। हाँ, आते ही सास ने ज़रूर धमका दिया “पोता चाहिए इसलिए दूसरी शादी करवाई है रजत की, वरना दो राक्षसनियाँ पहले से हैं उसकी।”
अब आज इस शादी के दस साल हो चुके हैं। मीना ने पहले ही साल दो युवराज दिये सास को और फिर अगले दो साल लगातार दो और। आज फिर लगातार उल्टी करती देख सास खुद डर गई है, “अब बस कर बहू, ऑपरेशन करवा ले।”
बड़ी बहू भरी बैठी थी, “अब एक की ही तो कमी है माँजी, पांडव हो जाने दो।”
सास ने तुरंत ही बड़ी बहू के कुल को तारणे के लिए कुछ श्लोक पढ़े और झाडू उठाकर उसकी तरफ फेंका।
बड़की माई का अपमान होते देख लड़के चिढ़ गये, पले तो वे भी यशोदा की गोद में ही थे। नन्हें हाथों ने दादी को पकड़कर खींचना शुरू कर दिया। पहले तो ये उनको खेल लगा। लेकिन जब चारों बच्चे मिल गये तो बूढ़ी दादी को पूरे आंगन में घसीटने लगे।
दोनों बहुएं चुपचाप देख रही थीं। कहीं न कहीं उन्हें भी शांति मिल रही थी। अचानक से दोनों राक्षसनियाँ मैदान में कूद पड़ीं।
लड़के खदेड़ दिए गए हैं। दादी की सांस अभी उखड़ी है, संयत होगी तो उनके विचार पता चलेंगे।
– कुमार गौरव