
दिल्ली में इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली एक और घटना ने फिर से यह प्रश्न खड़ा कर दिया कि आख़िर किस समाज का हिस्सा हैं हम एवं क्यों और किसके लिए जी रहे हैं? एक तड़पते हुए व्यक्ति को देखकर क्यों, किसी की संवेदनाएँ उद्वेलित नहीं होतीं? ऑटो वाला अपनी गाड़ी में लगे निशान को लेकर चिंतित है, रिक्शे में बैठे लोग निर्धारित स्थान पर पहुँचने की जल्दी में होते हुए भी मोबाइल चोरी की अनुमति दे देते हैं। लाश के इर्द-गिर्द चलती दुनिया के माथे पर शिकन तक नहीं रेंगती? ये कैसी वीभत्स तस्वीर है?
परंतु 'दिल्ली अब दिल वालों की नहीं रही', सिर्फ इतना कह देने भर से समस्या से हाथ नहीं झाड़ा जा सकता? हो सकता है, दिल्ली का दिल भर हो गया हो! जब अपराधी निश्चिन्त घूमें, जमानत आसान हो और पुलिस का डर न रहे तो संवेदनाश...
प्रीति अज्ञात