बात अस्सी के दशक की है। तब मैं जनसत्ता के लिए काम करता था और लेखन को राष्ट्रीय पहचान देने के संघर्ष में था। एक दिन मैं दिल्ली में जनसत्ता के बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित जनसत्ता दफ्तर में वरिष्ठ और दिल्ली के स्टार हिंदी रिपोर्टर आलोक तोमर से मिलने गया। वे मेरे बड़े मार्गदर्शक थे और लेखन के प्रशंसक भी । उन्होंने कहा “और जगह भी लिखो, थोड़ा ऑफ बीट। एक काम करो पास ही स्थित नव भारत टाइम्स दफ्तर चले जाओ। वहां मैंने फोन कर दिया है। सुप्रिया जी से मिलना वे परिशिष्ट देखती हैं। आपको बताएंगी उन्हें क्या चाहिए।“ मैं गया और सब एडिटर सुप्रिया रॉय से मिला। उन्होंने बताया कि वे परिशिष्ट में महानगर के लोगों के लिए लाइट मूड के महानगरीय सामाजिक सरोकारों और रहन सहन आदि पर लिखें। यह किसी महिला पत्रकार से मेरी पहली भेंट थी। या यूं कहें पहली दफा लगा कि अरे महिलाएं भी पत्रकारिता क़रतीं है?
अस्सी के दशक तक हिंदी पत्रकारिता में महिलाओं की सहभागिता या तो थी ही नहीं और अगर थी भी तो सिर्फ मेट्रो और कॉस्मोपोलिटन शहरों तक सीमित थी और वह भी नारी,खेल,फैशन जैसे पृष्ठों के इंचार्ज तक थी। उस दौर में कदाचित अखबारों को छोड़कर महिलाओं की पत्रकारिता में सक्रिय भागीदारी न के बराबर थी। लेकिन जब पत्रकारिता के पाठ्यक्रम शुरू हुए और इसे एक रोजगारमूलक कैरियर के रूप में आश्वस्ति के रूप में पहचान मिली तो पत्रकारिता में युवतियों का रुझान भी बढ़ा और स्थान भी।
हालांकि महिलाओं का पत्रकारिता में रुझान तो बढ़ा है लेकिन उनमें से ज्यादातर अभी भी सिर्फ और सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाना चाहती हैं। ज्यादातर पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों की जगह अपने चेहरे दिखाने के शौक को पूरा करने के लिए या तो एंकर बनना चाहती हैं या फिर फील्ड रिपोर्टर जिसमे रोज- रोज फेस टू कैमरा (पीटूसी) करने को मिले। अखबार भी उन्हें महिलाओं और सामाजिक मामलों से जुड़े परिशिष्ट तक दायरे में बांधकर रखना चाहते हैं।
राजधानी भोपाल में पत्रकारिता में महिलाओं की आमोदरफ्त बजरिये अंग्रेजी अखबारों के ही हुई। वरिष्ठ पत्रकार श्री रविन्द्र जैन कहते है- इन अंग्रेजीदाँ महिला पत्रकारों में भी ज्यादातर आईएएस और आईपीएस अफसरों की पत्नी, बेटे और बेटियां ही होती थीं जो केवल शौकिया तौर पर काम करती थीं। हिंदी की सबसे पुरानी पत्रकार श्रीमती रंभा शर्मा को माना जाता है। वे अपना साप्ताहिक अखबार निकालती थीं लेकिन सब उनको खूब सम्मान देते थे। आयोजनों में वे पहली पंक्ति में बैठती थीं और श्यामाचरण शुक्ल हों या मोतीलाल वोरा सब उन्हें आदरपूर्वक नाम से बुलाते थे। वे सत्तर के दशक से सक्रिय थीं और वर्तमान में उनके दो बेटे भी पत्रकार है। राजधानी में जिन महिला पत्रकारों ने अपनी पहचान बनाई उनमें अंग्रेजी की सुचंदना गुप्ता, रचना समंदर,शिफाली पांडे, श्रुति कुशवाह, दीप्ति चौरसिया, मुक्ता पाठक, शैफाली गुप्ता, वंदना श्रोती आदि शामिल हैं। शिफाली पांडे बहुमुखी प्रतिभा की धनी है। उन्होंने प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक दोनो माध्यमों में काम किया। भोपाल के मीडिया जगत में उनकी स्क्रिप्ट खूब प्रतिष्ठित है। इंडियन एक्सप्रेस की इरम सिद्दीकी और हिंदी की वंदना श्रोती ने लेखन के जरिये अपनी धाक जमाई है। मुरैना से निकली इलेक्ट्रोनिक मीडिया की पत्रकार सुश्री अनुपमा सिकरवार ग्वालियर से होते हुए भोपाल में काम कर रही हैं। ऐसी ही एक हैं नाज़नीन नकवी जिन्होंने ग्वालियर के एक लोकल न्यूज चैनल से यात्रा शुरू की कर आज भोपाल में आईएनडी 24 में काम कर रहीं हैं। आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में राजधानी में महिला पत्रकारिता की यात्रा इस स्तर तक पहुंची कि उपमिता वाजपेयी दैनिक भास्कर जैसे पुराने और प्रतिष्ठित समाचार पत्र में रेजिडेंट एडिटर की कुर्सी तक पहुंच गईं।
इंदौर पत्रकारिता के लिहाज से शुरू से ही मध्यप्रदेश में अग्रणी स्थान रखता रहा है। राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी जैसे बड़े नाम इस अंचल ने भारतीय पत्रकारिता को दिए। लेकिन महिला पत्रकारिता का विकास यहां औसत ही रहा। इस अंचल की सबसे पुरानी महिला पत्रकारों में धार निवासी पुष्पा शर्मा मानी जाती हैं। उनके दो बेटे वर्तमान में पत्रकार हैं। वीणा नागपाल एक प्रतिष्ठित नाम रहा है। नीता सिसोदिया और नीता सिसोदिया को भी नोटिस लिया जाता है जबकि जयश्री पिंगले वह इकलौती महिला पत्रकार हैं जो बड़े अखबार की कुर्सी तक पहुंच सकीं। वे चौथा संसार की संपादक रहीं। रूमानी घोष की अनेक रिपोर्ट्स देशभर में चर्चित हुईं । इंदौर से एक चर्चित नाम शीतल रॉय का भी है। इन्होंने एक दशक पहले पत्रकारिता की शुरुआत तो की अपना इंदौर से लेकिन असल पहचान मिली लोकस्वामी से जहां वे नौ वर्ष तक कार्यरत रहीं। वे वर्तमान में अपना कोदण्ड गर्जना नाम से साप्ताहिक अखबार निकालतीं हैं और स्टेट वीमेन प्रेस क्लब की संस्थापक अध्यक्ष हैं। शीतल मानती हैं कि – अभी तक महिलाएं अंचल में मुख्य धारा का हिस्सा नही बन सकीं हैं इसकी वजह दोनो तरफ से है। महिलाएं भी लेखन में मजबूत बनने में रुचि लेने की जगह टीवी पत्रकारिता में जाने की इच्छा ज्यादा रखतीं हैं क्योंकि उसमें ग्लेमर है।
ग्वालियर में शुरुआत में भले ही महिलाएं पत्रकारिता में न रहीं हो लेकिन नब्बे के दशक के बाद यहां भी इनकी भागीदारी बढ़ी है। हालांकि अभी तक स्वतंत्र और प्रभावी भूमिका में कोई नाम नहीं आ सका। कविता मांढरे, एकात्मा शर्मा, इंदिरा मंगल, रूपाली ठाकुर, सविता तिवारी इस क्षेत्र में एक्टिव हैं लेकिन भोपाल और इंदौर की तरह अभी तक किसी बड़े अखबार में संपादक की कुर्सी तक नहीं पहुंच सकीं हैं।
निसंदेह महिलाओं की पत्रकारिता में भागीदारी बढ़ रही है और इसका विस्तार जिला स्तर तक भी हो रहा है। चम्बल में हालंकि अभी भी इसका ज्यादा ट्रेंड कम है लेकिन दतिया, शिवपुरी सहित प्रदेश के अनेक जिलों में महिला पत्रकार काम कर रहीं हैं। हालांकि इनमें से ज्यादा टीवी पत्रकारिता में हीं संलग्न हैं। वह भी यूट्यूब चेनल्स पर। दतिया में रजनी लिटोरिया मेहनती टीवी पत्रकार हैं। अभी पत्रकारिता में महिलाओं की सिर्फ भागीदारी हुई है लेकिन हिस्सेदारी हासिल करने की मंजिल दूर है जिसके लिए संस्थानों से रास्ते खुल गए। लेकिन अब जिम्मेदारी महिलाओं की है कि वे अध्ययन के जरिये अपने को समृद्धशाली बनाकर चुनौती खड़ी करें क्योंकि लेखन में सिर्फ अध्ययन, संपर्कों की निरन्तरता और समाचार स्त्रोत के मन में विश्वसनीयता का भाव और भाषा, शैली में विलक्षणता से ही लंबे समय तक टिका जा सकता है। प्रसन्नता है कि बाकी की तरह महिलाएं भी इस पथ पर सरपट चल निकलीं है बस उन्हें छूना है तो इसका आसमान।