Women’s Day
यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।
मनुस्मृति ।
अर्थात्, जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती है, उनका सम्मान नहीं होता है, वहाँ किये गए समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
मनुस्मृति में उधृत इस पंक्ति का आशय नारी को सम्मान देने से जुड़ा है नाकि धूप-अगरबत्ती दिखाकर उनकी पूजा करने से। यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, “क्या सच में स्त्री चाहती है कि उसे देवी माना जाए ?“हाड-मांस से बनी, सभी भावों से परिपूर्ण, मानव जनित कमजोरियों और सामर्थ्य को अपने भीतर संजोए स्त्री, क्या सच में देवी की उपाधि पाना चाहती हैं! क्या उसे सामान्य मानव की तरह दुःख – दर्द, हर्ष- विषाद, सम्मान-तिरस्कार का बोध नहीं होता ! देवी की उपाधि से विभूषित करके समाज ने उसे क्या दिया है ! इसपर विचार करना आवश्यक है ।
भारत देश में स्त्री को देवी मानने की परम्परा आज की नहीं है।यह तो सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही पुरातन मान्यता है।इतनी पुरातन की यदि किसी परिवार में बेटी का जन्म होता है तो कहते हैं कि लक्ष्मी आई हैं ।लक्ष्मी यानि धन, धान्य, सौभाग्य ।बेटी को सरस्वती, दुर्गा या काली के बदले लक्ष्मी अर्थात ‘अर्थ’ की देवी से क्यूँ जोड़ा गया, पता नहीं ! शायद इसके पीछे स्त्री की महत्ता बढ़ाने की हमारे पूर्वजों की सोंच हो सकती है । यदि स्त्री स्वयं ‘लक्ष्मी’ है और उसकी उपस्थिति सम्पन्नता का प्रतीक, तो फिर भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने पुत्र के विवाह में पुत्रवधू के साथ दहेज़ के रूप में अधिक से अधिक धन की कामना क्यों करता है? सिर्फ कामना ही नहीं करता बल्कि धन प्राप्त भी करता है । क्या स्त्री, लक्ष्मी (देवी) इसलिए है कि शादी के वक़्त अपने साथ ढेर सारा दहेज़ लेकर ससुराल पहुँचे । वहीँ दूसरी ओर, इसी समाज में कई माता-पिता दहेज़ का धन जुटा पाने की असमर्थता के कारण उचित समय पर अपनी पुत्री का विवाह नहीं कर पाते ।
स्त्री को देवी स्वरूपा मानकर उनके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो अपने हितों के लिए प्रार्थना करने वाले भक्तों में से कितने प्रतिशत लोग व्यक्तिगत जीवन में भी स्त्री का सम्मान करते हैं या उनका अहित करने में भय का अनुभव करते हैं ! शर्मनाक है लेकिन सच है कि बहुत कम लोग हैं जो ऐसा करते हैं । ज्यादा पीड़ा इस बात की है कि पुरुष तो पुरुष कई जगह स्वयं एक स्त्री भी दूसरी स्त्री का निरादर करने में संकोच नहीं करती । ऐसे में स्त्री को देवी का रूप मानने कीयह अवधारणा संदेह के घेरे में आ जाती है ।यदि स्त्री देवी है तो पुरुष और स्त्री दोनों के लिए है । हजारों वर्षों से पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों का शोषण होता आया है ।यह शोषण सिर्फ पुरुषों ने नहीं किया बल्कि इसमें पारिवारिक स्तर पर स्त्रियों का भी योगदान रहा है ।
शिक्षा के अधिकार ने स्त्री को इतनी समझ दे दी है कि वो समाज की दोहरी मानसिकता को भलीभांति समझ सके।देवी के रूप में मूर्तियों को पूजने वाला समाज, अपने हीं कथनानुसार,‘देवी स्वरूपा नारी’ को एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहा । उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पा रहा बल्कि उसे पुरुष की परछाई मानता है तो देवी-देवी की रट लगाने के क्या मायने रह गए!इक्कीसवीं सदी में भी स्त्रियों के साथ होने वाले लोमहर्षक अपराध इस बात की पुष्टि करते हैं कि समाज का बहुत बड़ा तबका आज के दौर में भी स्त्री को एक वस्तु के रूप में देखता है । सनद रहे, यहाँ अपराधी और शिकार महिला, दोनों, किसी भी वर्ग, आयु और पेशे के हो सकते हैं ।यह किसी वर्ग और समुदाय तक सिमित नहीं है ।हर क्षेत्र में स्त्री की योग्यता को कमतर आँका जाता है और उसके साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है ।जीवन के हर मोड़ पर उसे अलग-अलग प्रकार की परीक्षाओं के कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। कितने युगों से स्त्री यही साबित करने की कोशिश कर रही है कि मै भी मनुष्य हूँ, मेरे साथ मनुष्यता से पेश आओ ।
आज के परिवेश में परिस्थितियाँ बदल रही हैं । शिक्षा नीति में संशोधन और सरकार के पहल से स्त्रियों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है ।संविधान में सन्निहित अपने मौलिक अधिकारों से और मानवाधिकारों से परिचित होने के बाद वो एक सम्पूर्ण व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान चाहती हैं । जैसे पुरुष को एक व्यक्ति चाहे वो पिता, पुत्र, भाई, पति या अन्य किसी रूप में सम्मान मिलता है वैसे हीं स्त्री भी एक व्यक्ति के रूप में सम्मान की आकांक्षा रखती है । अपने गुणों और योग्यता से पहचानी जाना चाहती हैं । और चाहें भी क्यूँ ना, योग्यता में वो किसी से भी कमतर नहीं हैं । हर क्षेत्र में स्त्रियों ने सफलता हासिल किया है। वो अन्तरिक्ष में उड़ान भर रही हैं, देश की सीमा पर सुरक्षा के लिए तैनात हैं । वो शिक्षिका हैं, वैज्ञानिक हैं, खिलाड़ी हैं । कहीं वो राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व कर रही है तो कहीं ऑपरेशन थिएटर में सफल सर्जन के रूप में लाखों लोगों का जीवन बचा रही हैं । ऐसे हजारों लाखों उदाहरण मिल जायेंगे । सिर्फ शहरों में हीं नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी महिलाएँ घर की दहलीज़ लांघ कर अपनी पहचान बना रहीं हैं और आर्थिक रूप से सम्बल हो रही हैं।
अब अभिभावक भी जागरूक हो रहें हैं । जागरूकता ही सबसे बड़ा हल है और कोई भी जागरूक स्त्री देवी के रूप में नहीं रहना चाहती । जागरूकता, शिक्षा और जरूरी संस्कारों से आती है । नारी, सशक्त हमेशा से रही है । उसे सही शिक्षा मिलना और एक मानव के रूप में स्वीकार्य ही वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है और एक स्त्री को मिलने वाला सबसे बड़ा सम्मान भी । देवी-देवता को मंदिरों में, धर्मग्रंथों में और लोगों के हृदय में रहने दिया जाए ।ईश्वर तो प्रकृति के कण-कण में विद्यमान हैं । ‘नारी तू नारायणी’ का नारा लगाने से पहले जरूरत है ‘स्त्री तू भी एक सम्पूर्ण अस्तित्व’ को मानने की । आज स्त्री वर्ग अपने इसी अस्तित्व को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रही है । इस स्थापना के लिए उसकी योग्यता, सामर्थ्य और उसका आत्मविश्वास हीं काफ़ी है । इसके लिए उसे किसी देवी का प्रतिमान बनने की ना तो दरकार है नाहीं वो ऐसा चाहती है । यह तभी सम्भव होगा जब समाज अपनी सोंच में सकारात्मक बदलाव लाएगा।