ब्रिटेन के हिन्दी पंजाबी साहित्यकार स्वर्ण चन्दन ने अपने उपन्यास कंजकें उन्नीस सौ पचास और साठ के दशक की प्रवासी भारतीय महिलाओं के जीवन का मार्मिक चित्रण किया है। उन्हें होटलों एवं एअरपोर्ट पर सफ़ाई का काम मिलता है। सीलन भरे ठण्डे घरों में रहने को अभिशप्त थीं, उनके उपन्यास की महिलाएं।
मगर आज स्थिति बदल चुकी है। राजनीति में भारतीय महिलाओं ने विश्व में अपनी उपलब्धियों से भारत का सम्मान बढ़ाया है। अमरीका में कमला हैरिस (उपराष्ट्रपति), ब्रिटेन में प्रीति पटेल (गृह मंत्री), कमला प्रसाद बिसेसर (त्रिनिदाद एवं टोबेगो की पहली महिला प्रधानमंत्री, न्यूज़ीलैण्ड की लेबर पार्टी की प्रियंका राधाकृष्णन जो कि भारतीय मूल की पहली महिला मंत्री बनीं, अमरीका की निकी हेली जो कि दक्षिण कैरोलाइना की गवर्नर बनीं, अनिता आनंद जो कि वर्तमान में कनाडा में मंत्री बनी हैं, और काउंसलर ज़किया ज़ुबैरी जो कि लंदन के बारनेट चुनाव क्षेत्र में पहली मुस्लिम महिला काउंसलर बनीं और अब तक पाँच बार चुनाव जीत चुकी हैं। वहीं भारतेतर हिंदी साहित्य में वर्तमान स्थिति यह है कि पुरुष लेखक लुप्तप्राय प्रजाति बनते जा रहे हैं। ब्रिटेन, अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर हर देश में लेखिकाएं ही हिंदी साहित्य का परचम उठाए हैं।
दरअसल वर्ष 2000 के बाद जैसे एक साहित्यिक विस्फोट सा हुआ और पश्चिमी देशों में हिंदी साहित्य रचना करने वाली लेखिकाओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। और इन लेखिकाओं ने हिंदी साहित्य की भिन्न विधाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है।
साहित्य के क्षेत्र में भारतीय महिलाओं के लेखन को समय-समय पर भारत में भी सम्मानित किया जाता रहा है। उषा राजे सक्सेना एवं दिव्या माथुर को केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा से मोटुरी सत्यनारायण पुरस्कार से अलंकृत किया गया। अमरीका से सुधा ओम ढींगरा, कनाडा से स्नेह ठाकुर, डेनमार्क से अर्चना पेन्युली, और शारजाह से पूर्णिमा वर्मा को भी यह सम्मान प्राप्त हो चुका है।
कला एवं नृत्य के क्षेत्र में मीरा कौशिक को ब्रिटेन की महारानी द्वारा ऑर्डर ऑफ़ दि ब्रिटिश एम्पायर से सम्मानित किया तो डॉ. अरुणा अजितसरिया को शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिये मेम्बर ऑफ़ दि ब्रिटिश एम्पायर से नवाज़ा गया। वहीं ज़किया ज़ुबैरी ऐसी पहली प्रवासी हिन्दी साहित्यकार बनीं जिनका सम्मान दिल्ली के विज्ञान भवन में तत्कालीन शिक्षा मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा किया गया।
मीडिया के क्षेत्र में एक ओर डॉ. अचला शर्मा हैं जिन्होंने बीबीसी वर्ल्ड सर्विस रेडियो की मुखिया के रूप में काम किया तो वहीं सरिता सभरवाल और लवीना टंडन जैसी हस्तियां भी मौजूद हैं जिन्होंने रेडियो और टेलिविज़न में अपनी उपस्थिति शिद्दत से दर्ज करवाई है।
जब हम भारतेतर हिन्दी साहित्य पर निगाह डालते हैं तो पाते हैं कि प्रवासी साहित्य में पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं का योगदान कहीं अधिक है। उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी, सुधा ओम ढींगरा, सुदर्शना प्रियदर्शिनी, अनिल प्रभा कुमार, रेखा मैत्र (अमरीका), शैलजा सक्सेना (कनाडा), नीना पॉल, उषा राजे सक्सेना, दिव्या माथुर, ज़किया ज़ुबैरी, उषा वर्मा, शैल अग्रवाल, स्वर्ण तलवाड़, अरुण सब्बरवाल, कादम्बरी मेहरा, वंदना शर्मा, शिखा वार्ष्णेय, ऋचा जैन जिंदल, तिथि दानी (ब्रिटेन), अर्चना पेन्युली (डेनमार्क), पुष्पिता अवस्थी (हॉलैण्ड), रेखा राजवंशी (ऑस्ट्रेलिया), संध्या सिंह (सिंगापुर), सुरीति रघुनंदन (मॉरीशस) अपने-अपने देश में हिन्दी साहित्य का झण्डा बुलंद किये हुए हैं। इन साहित्यकारों ने उपन्यास, कहानी, कविता, ग़ज़ल, आलेख जैसी बहुत सी विधाओं में साहित्य रचना की है।
मैंने हमेशा प्रवासी साहित्य को तीन स्थितियों में बांटा है। पहली स्थिति है जब एक लेखक भारत से किसी दूसरे देश में प्रवास करता है और वहाँ बसने के बाद लेखन के लिये अपने भारत के अनुभवों की ओर देखता है। इस स्थिति में वह नॉस्टेलजिक लेखन का सृजन करता है। नॉस्टेलजिया कोई नकारात्मक गुण नहीं है। भारत में भी बड़े महानगरों में रहने वाले लेखक एवं कवि अपनी रचनाओं के लिये अपने गाँव, चौपाल, गाय-भैंस, खेतों आदि की बात करते हैं। वो भी नॉस्टेलजिक हो कर लिखते हैं। नॉस्टेलजिया इन्सान की फ़ितरत में शामिल है। जैसे हर पीढ़ी के लिये अतीत बेहतरीन होता है जबकि वर्तमान की आलोचना की जा सकती है। मजेदार स्थिति यह है कि कुछ नारेवादी लेखक अपने मिथकों की आलोचना में बहुत आनन्द उठाते हैं।
प्रवासी लेखक दूसरी स्थिति में अपने अपनाए हुए देश की ओर ध्यान देना शुरू करता है और उसे एक बाहरी व्यक्ति की तरह देखना शुरू करता है। अब उसकी कहानियों में ऐसे वाक्य दिखाई देने लगते हैं – “अमरीका में तो ऐसा होता है”, “डेनमार्क का कल्चर अलग है” “ब्रिटेन की सड़कों पर गंद नहीं फेंका जाता” वगैरह वगैरह। यानि कि अभी भी प्रवासी लेखक अपने देश से पूरी तरह जुड़ नहीं पाया है और उसे समझने का प्रयास कर रहा है। मगर साथ ही साथ अपने अपनाए हुए देश से भारत की तुलना करता रहता है।
फिर आती है तीसरी स्थिति। इस स्थिति में प्रवासी लेखक अपने अपनाए हुए देश से पूरी तरह जुड़ जाता है। अब वह अपने आप को नये समाज का अंग मानने लगता है। उसके पासपोर्ट का रंग बदल जाता है। अब वह अपने अपनाए हुए देश के मुद्दों पर ठीक वैसे ही लिखता है जैसे कोई अंग्रेज़, अमरीकी या युरोपीय लेखक लिखेगा। मगर उसकी भाषा हिन्दी होती है। इस लेखन को ब्रिटेन का हिन्दी साहित्य, अमरीका का हिन्दी साहित्य, कनाडा का हिन्दी साहित्य इत्यादि कहा जा सकता है। कारण यह है कि अब उसके मुद्दे बदल गये हैं। चाहे वह प्रवासी भारतीयों पर ही लिख रहा हो मगर उसका दृष्टिकोण अलग हो चुका है।
प्रवासी महिला कथाकारों ने अपनी रचनाओं में विदेशी भूमि पर स्त्री की परिवेशजनित समस्याओं को प्रस्तुत किया है। यह कथा साहित्य काफ़ी हद तक विदेशों में निवास करने वाले भारतीय स्त्री-पुरुषों के निजी रिश्तों; आजीविका से जुड़ी तथा अन्य सामाजिक समस्याओं का चित्रण करता है। वैसे हिन्दी साहित्य की पहली वैब-मैगज़ीन शुरू करने का श्रेय भी एक महिला को ही जाता है – शारजाह की पूर्णिमा वर्मन ने अभिव्यक्ति एवं अनुभूति नाम की दो वैब-पत्रिकाएं वर्ष 1999 के आसपास शुरू की थीं। वे स्वयं भी एक सक्षम कथाकार एवं कवयित्री हैं।
विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों का जीवन, प्रवासी कथा साहित्य के माध्यम से ही मुख्यतः उपलब्ध होता है। प्रवासी नारी की स्थिति अधिक जटिल हो जाती है। वह एक तरफ़ तो भारतीय संस्कारों को बचाए रखना चाहती है और दूसरी ओर अपनी दूसरी पीढ़ी पर पश्चिमी रंग को चढ़ते देखती है और उससे पैदा हुए तनाव का सामना करती है। ज़किया ज़ुबैरी की कहानी साँकल इसका ज्वलंत उदाहरण है कि किस प्रकार एक माँ यह महसूस करती है कि उसका बेटा बड़ा होने के बाद केवल पुरुष बन गया है,पुत्र कहीं खो गया है। उसे अपने पति और बेटे में समानता दिखाई देने लगती है। स्थिति यहां तक बिगड़ जाती है कि रात को वह डरने लगती है कि पुत्र उसकी हत्या न कर दे और वह भीतर से अपने कमरे की साँकल चढ़ा लेती है।
प्रवासी लेखिकाएं अपने साहित्य में भारत के साथ एक रिश्ता बनाए रखती हैं मगर अपने आसपास के माहौल को कहानियों में सूक्ष्मता से चित्रित करती हैं। ज़किया ज़ुबैरी की ‘बेचारी ईडियट’, सुधा ओम ढींगरा की ‘सूरज क्यों निकलता है’, दिव्या माथुर की ‘पंगा’, अरुण सब्बरवाल की ‘उडारी’, उषा वर्मा की ‘रॉनी’, उषा राजे सक्सेना की ‘वोह रात’, अनिल प्रभा कुमार की ‘मैं रमा नहीं’, स्नेह ठाकुर की ‘प्रथम डेट’, शैलजा सक्सेना की ‘लेबनान की एक रात’, रेखा राजवंशी की गोरी ‘डायन’, जय वर्मा की ‘गुलमोहर’ कुछ महत्वपूर्ण कहानियां हैं जो प्रवासी जीवन का सूक्ष्म चित्रण करती हैं।
ब्रिटेन में सुरेखा चोपला एवं इंदु बारोठ जैसी महिलाएं ऑनलाइन हिन्दी शिक्षा का भी बीड़ा उठाए हुए हैं। यूके हिन्दी समिति एवं गुरुकुल के माध्यम से हिन्दी शिक्षण का निरंतर काम किया जा रहा है। वहीं वातायन नाम की संस्था के माध्यम से दिव्या माथुर करीब सौ ऑनलाइन कार्यक्रमों का आयोजन कर चुकी हैं। सच तो यह है कि अब भारतवंशी महिलाओं ने पूरे विश्व में अपनी उपस्थिति जीवन के हर क्षेत्र में दर्ज करवाई है। हम भारतीयों का मस्तक ऊंचा करने में इन हस्तियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।