हर पल के भीतर एक अकुलाई हुई अधीरता है। “मुझे जी लो, अन्यथा मैं खत्म हो जाऊंगा”। साथ ही, हर पल के भीतर एक उदासीन उपेक्षा भी निहित है। “छोड़ो भी मुझे क्या जी रहे हो, अभी मैं खत्म हो जाऊंगा”। और ये भी सच है कि दार्शनिक दृष्टि से वर्तमान का अस्तित्व सुरम्य धारा के समान होने के कारण अनुभवगम्य नहीं है। हम या तो अतीत में जीते हैं, अथवा भविष्य में रहते हैं। प्रस्तुत प्रत्येक क्षण अतीत बनता जाता है, भविष्य को हम वर्तमान बनाते रहते हैं। इस प्रकार मृत्यु के गर्भ में रहने वाले जीवन को अस्थायी कहना सर्वथा उचित है। साथ ही जीवन के बारे में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि यह जीवन कब समाप्त हो जाए?
स्टीफ़न हॉकिंग ने ‘द ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम’ में बताया है कि समय अपने वास्तविक स्वरूप में अखंड है, न कि तीन रूपों में बंटा हुआ, जैसा कि हमें प्रतीत होता है। समय की यह सतत् अखंडता उसके उच्चतर आयाम का गुण है और सामान्यतः अपेक्षाकृत विकास के निम्न आयाम में अभिव्यक्त हो रही मनुष्यता समय के खंडित स्वरूप को ही अनुभव कर पाती है। यह ठीक ऐसा ही है, जैसे किसी दो आयामी विश्व में त्रिविमीय घटना का घटित होना।
‘सुबह होती है शाम होती है, उम्र यूँ ही तमाम होती है’ की प्रक्रिया में रहने वाला मानव जब अंत समय को सामने देखता है, तब उसको ऐसा लगता है कि अरे, इतने वर्षों का समय इतनी जल्दी व्यतीत हो गया। सब कुछ सिनेमा की रील की भाँति आँखों के सामने घूम जाता है। ऐसा लगने लगता है कि सब कुछ एक स्वप्न था। जीवन के सुख-दुःखों की स्मृति स्वप्न के सुखद-दुःखद अनुभवों की भाँति शेष रह जाती है।
मनोविज्ञान की दृष्टि से चेतना पत्थर में सोती है, वनस्पति में जगती है, पशु में चलती है और मनुष्य में चिन्तन करती है। अतः चिन्तन करना मानवता की पहचान है। तो इस दृष्टि से मनुष्य वस्तुतः इस सृष्टि की सर्वोत्तम कृति है। केवल वही एक ऐसा प्राणी है जो खुलकर अपने हाथों का इस्तेमाल कर सकता है। और हाथों द्वारा जीवनोपयोगी अनेकानेक काम करता रहता है। विश्व में जितनी भी कलाकृतियाँ हैं, वे समस्त मानव के इन हाथों की ही देन हैं। ये कलाकृतियाँ सृजनहार की सृजनशीलता को सार्थक करती हैं। मानव ने ही कृत्य को सृजन बनाया है। और इस सृजन ने ही उसे आनन्द की राह दी है।
धरती पर मानव रूप में आने और जाने के उलटफेर में ये कोई नहीं जानता कि कौन पहले और कौन बाद में। तो मनुष्य के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं। केवल है तो मृत्यु से पहले कुछ सृजन।।। कुछ सार्थक कर गुजरने का ही समय। आपका मूल्यांकन इसी आधार पर होगा कि जन्म-मृत्यु के बीच आपने कैसा प्रदर्शन किया, क्या सार्थक किया, क्या सृजन किया। एक तरह से देखा जाए तो नकारात्मक भावनाओं को अभिव्यक्त करने का कोई न कोई ऐसा सकारात्मक तरीका ढूंढ लेना, जो समाज में सहज रूप से स्वीकार्य हो, सृजन ही तो है। और सृजन का एक सुंदर पक्ष ये भी है कि इससे अवचेतन मन में छिपी भावनाएं भी कला के माध्यम से दूसरों के सामने प्रकट हो जाती हैं।
हर इंसान के भीतर सृजन की अलग-अलग संभावनाएं होती हैं। हर इंसान सृजन अपने ढंग से अलग-अलग रूपों में कर सकता है। पर यदि सृजन नहीं किया तो आपका कर्म सिर्फ़ मेहनत रह जाता है। इसलिए अपनी मेहनत को, परिश्रम को, उसके भीतर के कृत्य को सृजन में बदलने का प्रयास करते रहना चाहिए। आपके कृत्य में शामिल आपकी योग्यता और आपकी लगन ही सृजन का आरम्भ है और सृजन के बाद मनुष्य श्रम रहित भी हो जाता है। यही आनंदमय स्थिति उसे थकान और उदासी से दूर ले जाती है। सही मायने में किसी भी कार्य को अत्यधिक प्रेम से करना ही रचनात्मकता है और तभी परिणाम में सौन्दर्य नज़र आता है।
स्वयं के लिए निर्णय लेना और स्वयं को मौका देना सृजनशील होने की पहली सीढ़ी है। कितनी सुंदर अनुभूति होती है कई बार यूं ही बेमतलब कुछ पल अपने साथ बिताना, रंग-बिरंगे फूलों की खूबसूरती को आंखों में संजोना, बारिश की नन्ही बूंदों को हथेलियों पर महसूसना, पंछियों के मधुर कलरव का संगीत अंतर्मन में बसा लेना, किसी लहलहाती नदी में पैरों को डालकर कदम गिन लेना, पर्वतों के सामने खड़े होकर सिर ऊपर उठाते जाना, समुद्री लहरों पर नृत्य करना, गुफाओं के बीच जाकर प्रतिध्वनि सुनना, धरती पर पड़े सूखे पत्तों का पीछा करना।।। यही, हाँ यही अनमोल पल हमें जोड़ते हैं प्रकृति से। और प्रकृति प्रेम ही सृजनात्मकता की दूसरी सीढ़ी है।
मुझे याद पड़ती है एक घटना। मेरे बाबा जो गाँव में रहते थे उन्होंने खास प्रयोग कर एक मिष्ठान का ईज़ाद किया और उसका नाम रखा ‘पपड़ी’। स्वाद मीठा था और खाने में खस्ता भी। दिनों-दिन इसकी बिक्री बढ़ती गई क्यूँकि स्वाद लोगों की जुबान पर चढ़ गया। माँग बढ़ती हुई देखकर बाबा अब हर रोज पपड़ी बनाने लगे जो शाम होते-होते बिक जाता। इसमें खास बात यह थी कि पपड़ी बनाने के लिए खास अनुपात में ली गई सामग्री बाबा ही तय करते थे। इस कला को हम सीखना चाहते थे पर असमय ही बाबा की मृत्यु हो गई। ये कला बाबा के साथ ही जन्मी और बाबा के साथ ही समाप्त हो गई। हम उसे विरासत के रूप में नहीं प्राप्त कर सकें ताउम्र इसका अफ़सोस रहेगा।
अच्छा दूसरी बात यह थी कि मेरे पिता जी ने मुझे बताया कि जब वे शिक्षा ग्रहण कर रहें थे तो उस समय दीक्षांत समारोह में साहित्यकारों को आमंत्रित किया जाता था और उन्हीं के हाथों डिग्री प्रदान की जाती थी। मेरे पिता जी को बी. एससी. की डिग्री महादेवी वर्मा के हाथों और बी. एड. की डिग्री आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के कर कमलों से प्राप्त हुई। ये जानकर मेरे मन में यही बात आयी कि काश मुझे भी उन्हीं के हाथों डिग्री मिलती। पर ये तो संभव नहीं। जब वे थे तब हम नहीं आज जब हम हैं तब वे नहीं पर अनमोल साहित्य के रुप में सुंदर सृजन हम नव पीढ़ियों के लिए वे विरासत के रुप में सौंप गए। जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी लाभान्वित हो रही है। अतः इसलिए भी जीवन में सृजन और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
साथ ही यहाँ पर मैं अरविंद अंकुर की पुस्तक ‘मानव जीवन विकास’ का भी जिक्र करना चाहूँगी जिसमें मनुष्य के चार आयामी विकास के सिद्धांत बताए गए हैं — शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और चेतनात्मक। विकास अवस्था में भावनात्मक विकास की अवस्था को उन्होंने प्राण या समय के आयाम में प्रतिष्ठित किया है। सरलता, विनम्रता, उदारता, करुणा, सेवा, श्रद्धा, प्रेम, समर्पण, साहस और सृजनात्मकता आदि मानवीय गुण भावनात्मक विकास के लक्षण माने गए हैं। भावनात्मक रूप से विकसित व्यक्ति ही वास्तविक रूप से सृजनात्मक होता है। सृजन के सघन क्षणों में समय के रुक जाने का अनुभव साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों आदि ने सहज ही किया है। इसी प्रकार के अनुभव प्रेम के गहन क्षणों में भी होने के उल्लेख मिलते हैं। सृजनात्मक व्यक्तियों का ऐसा अनुभव मात्र कपोल कल्पना नहीं माना जा सकता। वास्तव में भावनात्मक रूप से विकसित अवस्था में समय के वास्तविक अखंड स्वरूप का अनुभव आसान होता है। इस स्थिति में भूत, भविष्य, वर्तमान का विभेद नहीं रह जाता, मात्र समय ही रहता है और सृजन का चरम आनन्द।