‘कश्मीर फाइल्स’ पर एक अलग ही तरह की बहस छिड़ी हुई है. ठीक वैसी ही जैसी कि प्रायः टीवी परिचर्चा में देखने को मिल जाती है- कुतर्कों से भरी हुई. इनकी दो विशेषताएँ होती हैं- या तो एक गलत घटना को दूसरे गलत का उदाहरण देकर न्यायसंगत ठहराया जाता है. मसलन 84 में दंगे हुए थे, तब कहाँ थे या कि गोधरा के टाइम तो तुम चुप थे, अब ज़ुबान आ गई? या फिर क्रिया की प्रतिक्रिया कह घटना की संवेदनशीलता को ढक दिया जाता है. हिन्दू की बात होती है, मुस्लिम की बात होती है. सत्ता से प्रश्न किये जाते हैं उनकी नीयत में खोट भी दिखाया जाता है. राजनीति पर बात होती है, धर्म पर होती है पर हत्याओं पर नहीं! आतंक पर नहीं! समस्या पर, शोषण पर, दैहिक मानसिक उत्पीड़न पर बात नही होती. उस साहस पर बात नही होती जो न जाने कितने वर्षों से दबी कड़वी स्मृतियों को अंततः कह देने के लिए जुटाया गया है.
इस तथ्य में दो राय नहीं कि इस फ़िल्म के द्वारा जहां मरहम की दरकार थी, उस घाव को चाकू से कुरेद और गहरा कर दिया गया. अब घाव है तो रिसेगा ही. लेकिन यह भी तो सच है कि जब तक हम गलत को गलत कहना नहीं सीखेंगे, तब तक गलत होता रहेगा!
चलो, मान लिया –
एकबारगी मान भी लिया जाए कि यह फ़िल्म किसी एजेंडा के तहत ही बनी है या कि आगामी चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही यह अब रिलीज की गई है तब भी यदि इस बहाने से ही सही पीड़ितों को न्याय मिले तो क्या बुरा?
कश्मीर फिर अपनी पहली सी रंगत पा ले तो क्या बुरा?
जिस घटना को समझने से हम बचते रहे, अब जबकि वह सामने आ ही गई है तो इसे पूरी संवेदनशीलता के साथ समझना क्या बुरा?
32 साल पहले की दर्दनाक कहानी को हिन्दू-मुस्लिम नहीं, भारतीय बनकर देखें तो क्या बुरा? हम जो अफगानिस्तान और यूक्रेन पर अपनी संवेदनाएं दिखाते हैं, भावुक हो जाते हैं तो ये तो हमारे देश का दर्द है, उसे स्वीकारना क्या बुरा?
हाँ, यह बात अपनी जगह सही है कि कश्मीर से विस्थापित हुए लोगों में सभी कश्मीरी पंडित नहीं थे बल्कि कई अन्य गैर-मुस्लिम लोग भी थे. यह भी सही कि उस समय कुछ ऐसे मुस्लिम भी जरूर हुए होंगे जिन्होंने इन कश्मीरी पंडितों की मदद की ही होगी. लेकिन कहानी को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने के लिए बहुधा यह आवश्यक हो जाता है कि मुख्य घटनाओं के इर्दगिर्द ही कथानक को बुना जाए जिससे कि फ़िल्म अपने उद्देश्य से भटके नहीं! एक सच्ची कहानी को पर्दे पर लाना क्या बुरा?
फ़िल्म इसलिए देखी जानी चाहिए –
- भले ही कश्मीर फ़ाइल्स में सब ब्लैक एण्ड व्हाइट दिखाया गया! भले ही इसमें कोई ग्रे शेड वाला चरित्र नहीं था! पर फिर भी इस फ़िल्म से कोई आपत्ति इसलिए नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह उस विषय पर बात करती है जिसे अब तक या तो अछूता समझा गया या फिर गंभीरता से लिया ही नहीं गया.यह एक ऐसी कहानी है, जिसे कहा जाना जरूरी था. इस बहाने ही सही, यह चर्चा का विषय तो बना.
- यह कश्मीरी विस्थापितों की समस्या पर बिना किसी लाग लपेट के, खुलकर बात करती है. यह उस तथ्य को भी हमारे सामने स्पष्ट रूप से रख देती है कि कैसे हमारे युवाओं का ब्रेनवॉश कर उन्हें आतंकी बनाया जा रहा है.
- यह सत्ता और सिस्टम की कलई इस क़दर खोलती है कि सबके चेहरों का रंग उतर जाता है. इन्हीं सब तथ्यों से गुजरते हुए यह संदेश भी दे जाती है कि टूटे हुए लोग बोलते नहीं, पर उन्हें सुना जाता है!
- दर्द क्या होता है वह उस पीड़िता की आँखों में पढ़िए जिसके पति को उसके ही सामने भून दिया जाता है. फिर उसके खून से भीगे चावलों को उसके मुँह में यह कह ठूंस दिया जाता है कि इसे खाने के बाद ही बाकी सदस्यों की जान बख्शी जाएगी.
- दहशत कीतस्वीर समझनी है तो उन चेहरों से समझिए जो अपनी जमीन, जायदाद, बसा-बसाया घर और एक भरपूर जीवन उस जगह पर छोड़ दर-दर भटकने को मजबूर हुए जिसे दुनिया स्वर्ग कहती आई है. स्वर्ग में जिसने नर्क भोगा हो, उसकी पीड़ा को समझ पाना इतना मुश्किल है क्या?
- ‘धर्म परिवर्तन करो, कश्मीर छोड़ो या मर जाओ लेकिन अपनी स्त्रियों को यहाँ छोड़ देना’ इसे सुन जो तिलमिलाहट उत्पन्न होती है, इसका अनुमान तो हमें जरूर ही होना चाहिए क्योंकि’स्त्री’ और’इज़्ज़त’ पर तो हमारे समाज की धुरी टिकी है. लेकिन जब इसी स्त्री को निर्वस्त्र कर आरी से चीर दिया जाए तो मन चीखेगा कि नहीं? आत्मा तड़पेगी या नहीं?
- सड़ी हुई और निर्मम राजनीति के सामने आम व्यक्ति कैसे असहाय महसूस करता है, उसे इस फ़िल्म से समझ सबक लीजिए कि राजनीति और अपने आकाओं से दूर रहने में ही आपकी भलाई है क्योंकि ये आपका सर्वनाश कर अपना हित साधने के लिए बने लोग हैं.
पक्ष/विपक्ष एजेंडा वालों के लिए दो बातें –
पहली यह कि यदि आप राष्ट्रप्रेम की आड़ लेकर, किसी राजनीतिक एजेंडा के चलते या अपने दल का झंडा लेकर नारे लगाते हुए फ़िल्म देखने वाले हैं तो कृपया घर बैठकर शांति का अभ्यास करें. क्योंकि आप वही नफ़रत का ज़हर बोने जा रहे हैं, जिस ज़हर के विरुद्ध ये फ़िल्म बनी है. हर बुरी घटना, दंगे-फ़साद में धर्म टटोलने बैठेंगे तो यह खतरनाक खेल कभी बंद न हो सकेगा!
फ़िल्म को देखकर नारे लगाने से बेहतर है कि कुछ ऐसा किया जाए कि देश का वातावरण न बिगड़े. विस्थापितों का पुनर्वास हो. जितने भी पीड़ित-शोषित वर्ग हैं, उनके साथ खड़े होने की हिम्मत आए. किसी भी दल को घटनाओं का राजनीतिक लाभ न उठाने दें बल्कि उनसे अपराधियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही और पीड़ितों के लिए न्याय की मांग हो.
दूसरी बात यह कि कश्मीर फ़ाइल्स सच्चाई को परोसती एक फ़िल्म है कोई तुलनात्मक अध्ययन नहीं! यह हमारे इतिहास का वह भयावह, दर्दनाक पहलू है जिसे हमें बाकी कड़वी सच्चाईयों के साथ स्वीकारना होगा, फिर चाहे वह चौरासी हो, गोधरा हो, दिल्ली हो या मुज़फ्फ़रनगर! ये सब कपोल कल्पना हैं क्या? तो फिर, इस सच को मानने में हिचकिचाहट क्यों? बस इसलिए क्योंकि ये आपके वैचारिक खाँचे में फिट नहीं बैठता? सच को स्वीकारने में जिसे शर्मिंदगी महसूस हो रही या जरा सी भी अचकचाहट है तो क्या वह भी गुनहगारों की श्रेणी में नहीं आ जाता?
केवल फ़िल्म की बात –
विशुद्ध रूप से केवल फ़िल्म की बात करें तो इसका प्रचार इस हद तक कर दिया गया है कि फ़िल्म देखने से पहले ही आपकी अपेक्षाएं आसमान छूने लगती हैं और उसके बाद जब आप देखने बैठते हैं तो लगता है उम्मीद से कम मिला. लेकिन इसमें दोष फ़िल्मकार का नहीं बल्कि मनःस्थिति का ही है.
प्रारंभ में कहानी थोड़ी धीमी अवश्य लगती है पर कथानक में ऐसी कसावट है कि यह फ़िल्म शुरू से अंत तक बाँधे रखती है. सभी कलाकारों ने भी अपनी भूमिका का सटीक ढंग से निर्वहन किया है. अनुपम खेर एक सशक्त अभिनेता हैं. इस विषय से अतिशय जुड़ाव होने के कारण वे एक लंबे समय से कश्मीर पंडितों की पीड़ा पर अपनी भावनाएं भी अभिव्यक्त करते रहे हैं. वे आधी बात तो आँखों से ही कह देते हैं लेकिन न जाने कैसे वे यहाँ अपना सर्वश्रेष्ठ देने में चूक गए हैं. पल्लवी जोशी को देखना बेहद सुखद रहा.
विषय से सबकी भावनाएं जुड़ी हैं. दर्शकों का उत्साह भी देखते बनता है. फ़िल्म की सफ़लता का राज भी इसका मूल विषय ही है. लेकिन यदि फ़िल्म के बैकग्राउंड म्यूजिक पर थोड़ा और काम किया जाता तो यह और अधिक प्रभावी बन सकती थी. किसी भी फ्रेम में कश्मीर की उस खूबसूरती को न दिखाना जिसके लिए उसे इस धरती का स्वर्ग कहा गया है, भी अखरा.