भारत गणतंत्रीय राष्ट्र है, यहां गणों का शासन है, पर यह शासन व्यवस्था अंग्रेजों की देन नहीं है, अपितु अनन्त काल पूर्वभारत गणतंत्रीय राष्ट्र के साथ ही प्रकट हुआ।
आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्य: शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशु: सप्ति: पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठा: सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधय: पच्यन्तां योगक्षेमो न: कल्पताम्।। -यजु० २२/२२
वेद इस मन्त्र में राष्ट्र का मानचित्र चित्रित कर रहा है, कि इस प्रशासनिक व्यवस्था के किस-किस विभाग का कैसा-कैसा रूप रंग हो? जैसे कि नक्शे में मिट्टी के भेद से प्रदेशों का रूप दर्शाया जाता है अथवा मैदानी, पहाड़ी, रेतीले, पठारी, समुद्रीय स्थलों को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रदर्शित किया जाता है अथवा रेलों, सड़कों, नदियों को विशेष संकेतों से संकेतित किया जाता है। ऐसे ही इस मंत्र में राष्ट्र के जीवन को शब्दगत रूप दिया गया है। राष्ट्र शब्द देश के अर्थ में प्रचलित हो गया है, पर मूल रूप में वह एक प्रशासनिक व्यवस्था है। जीवन शब्द किसी के जीवन्त-जीते-जागते, चाहे जाने वाले रूप को दर्शाता है।
उक्त मंत्र में ऋषिराष्ट्र की उन्नति कीकामना के साथ स्पष्ट किया गया है किहमारे देश में गायें दुधारू हों, बैल कृषिकार्य करने में निपुण हों, राजा शूरबीर हों,औषधियां-बनस्पतियां, आरोग्यवर्धक होंऔर वर्षा प्राणदायी हो, पेड़-पौधे पुष्टवर्धकफल दायी हों। जनमानस परस्पर एक दूसरेसे प्रेम करे, राष्ट्र अतिबृष्टि- अनावृष्टि सेमुक्त हो आदि अपेक्षाओं के साथ गणतंत्रीय राष्ट्र की परिकल्पना की गयी है।
वास्तव में प्राचीन भारतीय इतिहास का गणतंत्र चहुत ही सुख-समृद्धि से व्याप्त था। ध्यान से देखें तो राष्ट्रीय गणतंत्र का ही लघु स्वरूप हमें परिवारव्यवस्था में देखने को मिलता है। शिवपरिवार इस का आदर्श स्वरूप है। जिसमें पति-पत्नी, संतान के साथ माँ गंगा, सर्प,नंदी का समुच्चय है। राजनीतिक विश्लेषण कहते हैं प्राचीन भारतीय गणतंत्र में आज की तरह मात्र सिर गणना द्वारा संचालितशासन व्यवस्था नहीं थी, अपितु देश के सभी नागरिक सदगुण युक्त होने व परस्परराष्ट्प्रेम प्रवाहित होने के अतिरिक्त समस्त नागरिक एक दूसरे के साथ स्नेह-प्रेम तो करे ही, साथ ही देश के नागरिकों की पूर्णता में सहायक थे। वनस्पति जगत गायआदि प्राणिजगत, गंगा आदि जलवायुजगत के पोषक युक्त नागरिक होने के कारण ही गणतंत्र को शक्तिमान माना जाता था। पर राष्ट्र का यह स्वरूप तभी तक सम्भव व सफल बना रहा, जब तक देश के जनमानस में आध्यात्मिक वृत्तियां प्रतिष्ठित थीं। तब ऐसा ही था अध्यात्म अर्धात सदगुणों की प्रतिस्थापना। क्योंकि सदगुण-शील व्यक्ति ही राष्ट्र निर्माण में सहायक समस्त संसाधनों को पुष्ट, पवित्र,आरोग्ववर्धक रख सकता है। दूसरे शब्दों में इसे राष्ट्र का आध्यात्मिकरण कह सकते हैं। ऋषियों ने भारतीय गणवंत्र के मूल में अध्यात्म की प्रतिष्ठा को ही महत्व दिया है। इसीलिए भारतीय गणतंत्र कोविश्व भर के गणतंत्रीय शासन व्यवस्था सेअलग ब उत्कृष्ट माना जाता था। ऐसागणतंत्र जिसमें मनुष्य के साथ सम्पूर्णजड़-चेतन का मर्यादित समन्वय कियागया था। यही भारत का आध्यात्मिकरणहै। बाह्य धार्मिक आडम्बरों से मुक्त थी, तब की गणतंत्रीय व्यवस्था। धर्म जीवन मूल्यों को बनाने के माध्यम थे।
जम्बूद्वीपे भरतखंडे, जो संकल्प के समय संस्कृत में बोला जाता है, इस बात का उल्लेख है कि भारत वर्ष जम्बूद्वीपके अन्तर्गत आता है। भारतीय संस्कृति विश्व की महानतम संस्कृति है। आज का भारतवर्ष जो कभी आर्यावर्त के नाम से जाना जाता था, दुनिया का प्राचीनतम राष्ट्र है। भारतवर्ष दुनिया को ज्ञान, विज्ञान और संस्कार प्रदान करने वाला राष्ट्र रहा है। जब दुनिया अज्ञानता के अन्धकार में जी रही थी तब ज्ञान का सूर्य भारतवर्ष से निकलकर समूची दुनिया पर ज्ञान वर्षा करता था। पिछले 2500 सालों में विभिन्न संगठनों, आक्रांताओं ओर देशों ने भारतवर्ष को बार-बार आक्रमण कर खंडित किया। 2500 सालों के ज्ञात इतिहास में 24 बार भारतवर्ष (आर्यावर्त) को खंडित किया जा चुका है। फ्रेंच, डच, कुषाण, शक,यमन, यूनानी, मुगल और अंग्रेजों के द्वारा भारतवर्ष पर अनेकों हमले किए गए। इतिहास में कहीं भी ऐसा नहीं मिलेगा कि इन्होंने अफगानिस्तान, म्यांमार,श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत, भूटान, मलेशिया जैसे देशों पर हमला किया क्योंकि ये समस्त भू भाग आर्यावर्त के अंतर्गत ही आते थे।
अफगानिस्तान को 1876 में, भूटान को 1906में, श्रीलंका को 1935 में, पाकिस्तान को 1947 मेंभारतवर्ष से अलग कर स्वतंत्र देश के रूप में मान्यतादी गई। 1875 से पूर्व तकअफगानिस्तान, भूटान, म्यांमार,पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, तिब्बत भारतवर्ष के अहम हिस्से थे। 1857 मेंअंग्रेजो के खिलाफ उठी क्रांति से अंग्रेज घबरा गए और फूट डालो और राज करो के सिद्धांत को अपनाते हुए सर्वप्रथम 1876 में अफगानिस्तान को भारतवर्ष से अलग कर दिया और यह क्रम निरंतर1947 तक जारी रहा। अगर हम महाभारत और रामायण काल की बात करें तो मलेशिया, इंडोनेशिया,थाईलैंड, फिलिपींस, वियतनाम, कंबोडिया जैसे देशभी भारतवर्ष (आर्यावर्त) के अटूट हिस्से थे।सिंगापुर का प्राचीन नाम सिंहपुर था।
संस्कृत के इन श्लोक में भारतीय भूभाग कहां से कहां तक फैला था, इसके बारे में स्पष्ट रूप से बताया गया है। अखंड भारत हिमालय से हिंद महासागर तक तथा ईरान से इंडोनेशिया तक फैला था। 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग किलोमीटर था जोवर्तमान में 33 लाख बर्ग किलोमीटर है। 1857 से1947 तक भारत को अनेकों बार बाहरी शक्तियों द्वारा खंडित किया गया। अफगानिस्तान को 1876 में,नेपाल को 1904 में, भूटान को 1906 में, तिब्बतको 1907 में श्रीलंका को 1935 में, म्यामार को1937 में और पाकिस्तान को 1947 में भारतवर्ष से अलग किया गया।
श्रीलंका को अंग्रेजों ने 1935 में भारत से अलग किया। श्रीलंका का पुराना नाम सिंहलदीप था। बाद में सिंहलदीप का नाम बदलकर सीलॉन किया गया। सम्राट अशोक के शासनकाल मेंश्रीलंका का नाम ताग्रपर्णी था। सम्राट अशोक के पुत्रमहेंद्र और पूत्री संघमित्रा बौद्ध धर्म का प्रचार करने केलिए श्रीलंका गए थे। श्रीलंका अखंड भारत का एकहिस्सा है।
अफगानिस्तान का पुराना उपगणस्थान था और कंधार का पुराना नाम गांधार था। अफगानिस्तान शैव मतावलंबी देश था। महाभारत में वर्णित गांधार अफगानिस्तान में है जहां से कौरवों की माता गांधारी और मामा शकुनि थे। शाहजहां के शासनकाल तक कंधार यानी गंधार का वर्णन मिलता है। यह भारतवर्ष का ही एक भाग था। 1876 में रूस और ब्रिटेन के बीच गंडामक संधि हुई। संधि के उपरांत अफगानिस्तान को अलग देश के रूप में स्वीकार किया गया।
म्यांमार (वर्मा) का प्राचीननाम ब्रह्मादेश था। 1937 में म्यांमार यानी जर्माको अलग देश की मान्यता अंग्रेजों द्वारा दी गई।प्राचीन काल में हिंदू राजा आणाब्रत का यहां उपज जुन्छ ऊजझण शासन था।
नेपाल, प्राचीन काल में देवधर नाम से जाना जाता था। भगवान बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में हुआ था और माता सीता का जन्म जनकपुर में हुआ था जो आज नेपाल में हैं। अंग्रेजों द्वारा 1904 में नेपाल को एक अलग देश बनाया गया। नेपाल हिंदू राष्ट्र नेपाल कहलाता था। कुछ सालों पहले तक नेपाल के राजा नेपाल नरेश कहलाते थे। नेपाल में 81 प्रतिशत हिंदू और 9त्र बौद्धहैं। सम्राट अशोक और समुद्रगुत्त के शासनकाल मेंनेपाल भारत का अभिन्न अंग था। 1951 में नेपाल के महाराजा त्रिभुबन सिंह ने तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से नेपाल को भारत में विलय की अपील की थी लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
थाईलैंड 1939 तक स्थाम नाम से जाना जाता था। यहां के प्रमुख नगर अयोध्या, श्रीबिजय थे। स्थाम में बौद्ध मंदिरों का निर्माण तीसरी शताब्दी से प्रारंम हुआ। आज भी इस देश में बहुत सारे शिव मंदिर मिल जाएंगे। वर्तमान थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में भी सैकड़ों हिन्दू मंदिर हैं।
कंबोडिया संस्कृत नाम कंबोज सेबना है, अखंड भारत का हिस्सा था। यहां पर प्रथम शताब्दी से ही शासन भारतीय मूल के कौंडिन्यराजवंश का था। यहां के लोग शिष, किणणु, बुद्ध कीपूजा करते थे। यहां की राष्ट्रभाषा संस्कृत थी। आजभी कंबोडिया में भारतीय महीनों के अपभ्रंश नाम जैसेचेत, विसाख, आसाढ़ प्रयोग में लाए जाते हैं। विश्वप्रसिद्ध अंकोरवाट मंदिर भगवान किशु को समर्पित है जिसको हिंदू राजा सूर्यदेव वर्मम ने बनवाया था। मंदिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत से संबंधित चित्र हैं। अंकोरबाट का प्राचीन नाम यशोधरपुर है।
वियतनाम का प्राचीन नाम चंपादेशहै और इसके प्रमुख नगर इंद्रपुर, अमराबती औरबिजय हुआकरते थे। यहां पर अनेकों शिव, लक्ष्मी,पार्वती, सरस्वती मंदिर आज भी मिलेंगे। यहां परशिवलिंग का भी पूजन होता था। यहां के लोगों कोचाम कहते थे जो मूलतः शैब थे।
मलेशिया का प्राचीन नाम मलय देशथा जो एक संस्कृत शब्द है। जिसका अर्थ है पहाड़ोंकी भूमि। मलेशिया का वर्णन रामायण और रघुबंशममें भी है। मलय में शैव धर्म प्रचलन में था। देवी दुर्गाऔर भगवान गणेश की पूजा होती थी। यहां की मुख्यलिपि ब्राम्ही थी और संस्कृत भाषा मुख्य भाषा थी।
इंडोनेशिया का प्राचीन नाम दीपांतर भारत है जिसका पुराणों में भी वर्णन है। दीपांतर भारतका अर्थ होता है सागर पार का भारत यह हिंदूराजाओं का राज्य था। सबसे बड़ा शिव मंदिर जाबाद्वीप में था। मंदिरों पर मुख्य रूप से भगवान राम औरभगवान कृष्ण की नक्काशी होती थी। यहां से प्राप्तभुवनकोश सबसे पुराना ग्रंथ है जिसमें संस्कृत के525 श्लोक हैं।
तिब्बत का प्राचीन नाम ट्रिविष्टम था जिसको 1907 में चीनियों और अंग्रेजों के एक समझौते के बाद दो भागों में बांटकर एक भाग चीन को और दूसरा भाग लामा को दिया गया। 1954 में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू चीनीभाई भाई हेतु तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया।
भूटान को 1906 में अंग्रेजों ने भारत से अलग किया और एक अलग देश के ख्प मेंमान्यता दी। भूटान संस्कृत शब्द से भू उत्थान से बनाहै जिसका अर्थ है ऊंची भूमि।
1947 में अग्रेजों ने भारत छोड़नेके पहले भारत का एक और बंटवारा पाकिस्तान केरूप में करके गए। 14 अगस्त 1947 को अंग्रेजों नेभारत को विभाजित करते हुए पूर्वी पाकिस्तान एवंपश्चिमी पाकिस्तान के रूप में बांट दिया। मोहम्मदअली जिन्ना ने 1940 से ही धर्म के आधार पर एकअला देश की मांग कर रहे थे जो बाद में पाकिस्तानबना। 1971 में भारत के ही सहयोग से पाकिस्तान फिर से बांटा गया और बांग्लादेश का निर्माण हुआ।
पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत के ही हिस्से हैं। अलग-अलग कालखंड में भारतवर्ष को विभिन्न देशोंमें बांट दिया गया। अब इन खंडों को एक-एक करकेपुनः भारत में मिलाकर ही अखंड भारत का पुनर्निर्माणकिया जा सकता है। इन देशों को भारत में मिलाना असंभव जैसा है लेकिन असंभव नहीं है। पाकिस्तानअधिकृत कश्मीर और बलूचिस्तान के लोग अपनीआजदी की मांग लंबे समय से करते आ रहे हैं। अखंड भारत के पुनर्निर्माण का श्री गणेश पाकिस्तानअधिकृत कश्मीर को भारत में मिलाकर करना चाहिए। वो देश जिसे इतिहास में विश्व गुरुके नाम से जाना जाता हो, उस देश को आज मेक इन इंडिया की शुरुआत करनी पड़ रही है। सोने की चिड़िया जैसा नाम जिस देश को कभी दिया गया हो, उसका स्थान आज विश्व के विकासशील देशों में है। शायद हमारा वैभव और हमारी समृद्धि की कीर्ति ही हमारे पतन का कारण भी बनी। भारत के ज्ञान और सम्पदा के चुम्बकीय आकर्षण से विदेशी आक्रमणता लूट के इरादे से इस ओर आकर्षित हुए। वे आते गए और हमें लूटते गए। हर आक्रमण के साथ चेहरे बदलते गए लेकिन उनके इरादे वो ही रह, वो मुठ्ठी भर होते हुए भी हम पर हावी होते गए। हम वीर होते हुए भी पराजित होते गए क्योंकि हम युद्ध कौशल से जीतने की कोशिश करते रहे और वे जयचंदों के छल से हम पर विजय प्राप्त करते रहे।
हम युद्ध भी ईमानदारी से लड़ते थे और वे किसी भी नियम को नहीं मानते थे। इतिहास गवाह है, हम दुश्मनों से ज्यादा अपनों से हारे हैं, शायद इसीलिए किसी ने कहा है, “हमें तो अपनों ने लूटा, ग़ैरों में कहां दम था, हमारी कश्ती वहां डूबी जहां पानी कम था।” जो देश अपने खुद की गलतियों से नहीं सीख पाता, वो स्वयं इतिहास बन जाता है। हमें भी शायद अपनी इसी भूल की सज़ा मिली जो हमारी वृहद सीमाएं आज इतिहास बन चुकी हैं।