हम सभी के अपने अंधकार हैं और अपने उजाले हैं। अंधकार से उजाले की ओर जाने के लिए हम दीये की ओर ताकते हैं जबकि रोशनियों का ज़ख़ीरा हमारे भीतर है। जीवन को दैदीप्यमान बनाने की सोच जागृत होनी चाहिए। दीगर बात है कि रोशनियों को अंगीकार करने का हम सभी का ज़रिया भी भिन्न-भिन्न है किंतु मकसद समान है खुशियों को हमारे आर-पार महसूस करना।
मन की अंधेर नगरी में उम्मीदों का दीप प्रज्जवलित करना ही अंधेरों में रोशनियों की गुंजाइश की पड़ताल करना है अतः अपने-अपने हिस्से का दीपक हम सभी को स्वयं के भीतर जलाना चाहिए। भीतर का अमानवता, अज्ञानता रूपी अंधकार दूर हो जायेगा तो आसपास स्वयं दीपावली होने लगेगी।
रोशनियों का मजमा जुटने को है घरों की मुंडेर पर, चौहद्दी के भीतर, बड़े और छोटे घरों की ताखों पर, तुलसी के चौबारों में, पेड़ों और फूलों पर, ये रोशनियों का कारवां ताउम्र हम सभी की ज़िंदगी में बरक़रार रहे यही अभिलाषा है दीप पर्व पर सभी के लिए।
दीप पर्व पर ये जो रोशनियों की जाज़िम धरती और वृहद आकाश में अपना प्रभाव दिखायेंगी यह क्षणिक है। भीतर तो घोर अंधेरा है। रोशनी स्वयं नहीं बिखेरेगी अपना नूर, न ही कोई जाज्वल्य अंतरिक्षयान असंख्य दीपों को लेकर समस्त संसार व मन का कोना-कोना लौकिक करेगा। मन के विस्तृत व घटाटोप अंधकार को भगाने के लिए तो एक अदना सी ज्योत की दरक़ार है, जो निराकार है और जो पर्याप्त है। अंधकार के बादलों से सूरज की ओर गमन के लिए कहना उचित होगा। जो प्रज्ज्वलित लौ बाहर नहीं है, हर मनुष्य के भीतर है। स्वयं पर शोध करना, स्वयं को जानना यानि कि स्वयं से साक्षात्कार। बाहर की रोशनियों के मायने तभी हैं जब हमारे विचारों के नगर-उपनगर उन्नत सोच, सौहार्द्र, प्रेम, सर्व धर्म समभाव, दया, संवेदनाओं से प्रकीर्णित हों।
रोशनी का भी अपना ही कद है। बिना प्रयास के अस्तित्व में नहीं आता है। भीतर के अंधेरों को पराजित कर उस पर विजय पाने के लिए बहुत घिसना, खपना और समर्पित होना होता है। मन की शुद्धता के लिए यानि अंधकार के उन्मूलन के लिए, निरंतर अभ्यास चाहिए। विसंगतियो से दूर रहने के लिए विरत रहकर मस्तिष्क के दरवाजों को धीमा सा ही खुला रखना होगा ताकि सिर्फ़ विशुद्ध ख़्यालों की आवाजाही ही हो भीतर।
मन की भित्तियों में उजाला होगा तो आस-पास रोशनी ज़रूर रिसेगी और एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे तक रोशनियों की पहुंच का वितान यूं ही विस्तृत आकार ले सकेगा दीप की वलियों की मानिंद।
यह सकारात्मक विचारों की लौ बिन बाती और बिन दीप की है जो अदनी सी है किंतु दैदीप्यमान है। जो तेल में लबालब डूबी हुई नहीं है वह तो बस देह के भीतर अपना अस्तित्व बनाये विराजमान होकर निरंतर जलती रहे तो जिंदगी के परिदृश्य में प्रकाशोत्सव बना रहे।