रवींद्र बाबू की जयंती पर विशेष
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता में हुआ। उनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर और मां का नाम शारदा देवी था। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट जेवियर स्कूल में पूरी की। इसके बाद वे बैरिस्टर बनने के सपने के साथ 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में एक पब्लिक स्कूल और बाद में लंदन विश्वविद्यालय से क़ानून की पढ़ाई की लेकिन 1880 में बिना डिग्री लिए भारत लौट आए।
रवींद्रनाथ टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से ऊंचे स्थान पर रखते थे। गुरुदेव ने कहा था, “जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा।” टैगोर गांधी जी का बहुत सम्मान करते थे। लेकिन कई मुद्दों पर दोनों महानुभावों में असहमति थी। दरअसल भारत का स्वाधीनता आंदोलन बहुत दिलचस्प आंदोलन था। महात्मा गांधी उस आन्दोलन के केंद्र बने और उनके इर्दगिर्द एक बड़ा संगठन खड़ा होता है जिसमें अलग अलग प्रकार की सोच के लोग थे, उनके व्यक्तित्व अलग अलग थे। यह जो जमावड़ा था, वह बड़ी शख्सियतों का जमावड़ा था। जब स्वाधीनता आंदोलन में ये सभी अंग्रेजों से लड़ रहे थे तब भी इनकी एक दूसरे से बहस होती रहती थी। इस जमावड़े में गांधीजी और टैगोर सहित सभी लोग अंतराष्ट्रीय सोच के लोग थे ।रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी के विरुद्ध बयान दिया करते थे उनकी आलोचना करते थे, परंतु महात्मा गांधी, रवीन्द्र बाबू के विश्वविद्यालय के लिए धन इकट्ठा किया करते थे, और खुद अपनी आलोचना को प्रकाशित करते थे। इस प्रकार यह एक सार्वजनिक आलोचना का माहौल था जिसमें इस बात की इजाजत थी कि आप मुझसे असहमत हो सकते हो पर व्यापक मूल्यों को लेकर एक आम सहमति थी।
शांति निकेतन की स्थापना रवींद्र बाबू के लिए एक जीवंत स्वप्न था, एक जीवन-लक्ष्य था। शांति निकेतन बनने के दौरान पहले उनकी पत्नी, फिर पुत्री, फिर पिता और फिर पुत्र को खो बैठने के बावजूद भी वे अपने काम में अडिग रहे। शांतिनिकेतन उनके जीने का सबब बना। वह उनका परिवार भी था और समाज भी।
महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर ने यूरोप से नैतिक कुश्ती लड़ी और जीती। गांधी और रवींद्र बाबू ने यूरोप के समक्ष यही उदाहरण पेश किया कि ताकत जितनी बड़ी चीज है, वह दया और प्रेम से बढ़कर नहीं है। बुद्धि जितनी भी बड़ी हो, अनुभूति से छोटी ही होती है। अपने उपन्यास ‘घर संसार’ में वे लिखते हैं कि ताकत और बौद्धिकता की चकाचोंध में यूरोप, प्रेम और अनुभूति से दूर न चला जाय।
हेथाय आर्य , हेथा अनार्य , हेथाय द्राविड़ -चीन,
शक-हूण-दल, पाठान-मोगल एक देहे हलो लीन ।
रणधारा बाहि, जय गान गाहि , उन्माद कलरवे
भेदि मरु-पथ, गिरि-पर्वत यारा एसे छिलो सबे ।
महाकवि रवीन्द्र बाबू की इस बंगाली कविता का भावार्थ यह है कि भारत रुपी महासमुद्र में यहाँ आर्य हैं, यहाँ अनार्य हैं, यहाँ द्रविण और चीनी वंश के लोग भी हैं , शक, हूण, पठान और मुग़ल न जाने कितनी ही जातियों के लोग इस देश में आये और सबके सब एक ही शरीर में शमा कर एक हो गए। यह कविता भारतीय एकता की अद्भुत कविता है। यह भारत में बसने वाली सभी जतियों के साथ एकात्म होने का भाव है ।
रवींद्र बाबू भारतीय नवोत्थान के कवि थे। राजनीति में बड़ा से बड़ा नेता बड़े से बड़े मंच पर झूठ बोल सकता है, किंतु कवि की कविता कभी असत्य का समर्थन नहीं करती। कविता, कवि के ह्रदय की अनुभूति होती है और इस अनुभूति का साजो सामान सीधे समाज के भीतर से खिंचकर आता है। समाज एक तरह से निराकार प्रतिमा है जिसकी धड़कन कवि के कलेजे में उठती है, जिसकी शंकाएं और विश्वास कवि के मुख से व्यक्त होते हैं। रवींद्र बाबू को भारत की सामासिक संस्कृति की जो अनुभूति उठी वह उनकी कविता में व्यक्त हुई।
रवींद्र बाबू की कविताएं और उनके भाव पूरी दुनिया में फैले। उन्होंने तीन खूबसूरत राष्ट्रगान लिखे। भारत, बांग्लादेश व श्रीलंका। भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बांग्ला’ गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
आजाद भारत में सांस लेना गुरुदेव को नसीब नहीं था।
7 अगस्त 1941 को कलकत्ता में गुरुदेव का निधन हो गया। अंततः जब 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ गांधीजी उस दिन कलकत्ता में ही थे। निर्मल बोस जो कलकत्ता में गांधीजी के वक्तव्य लिखने का कार्य करते थे उन्होंने भी गांधीजी से कहा कि रवींद्र बाबू आज होते तो कहते कि आपको 15 अगस्त के दिन दिल्ली में रहना चाहिए। ‘एक आदमी का मूल्यांकन, उसके जीवन के उस सर्वश्रेष्ठ क्षण से होना चाहिए, जब उसने अपने जीवन का सबसे उदात्त सृजन किया हो। आज 15 अगस्त आपके जीवन का सबसे उद्दात सृजन है। आपके चार दशक के संघर्ष का परिणाम देश की आजादी है। आपको आज दिल्ली में होना चाहिए।
गांधीजी ने इसके उत्तर में निर्मल बोस से जो कहा, उसे सुनकर निर्मल बोस रोने लगे। गांधीजी ने कहा ”जिस उद्दात सृजन की बात आप कह रहे हैं वह रवींद्र बाबू जैसे एक महान कवि के लिए ही है, क्योंकि कवि को आसमान के तारों की रोशनी इस धरती पर उतारना है, लेकिन मेरे जैसे आदमी का मूल्यांकन इस बात से होगा कि मैं अपनी जीवन-यात्रा के दौरान दीन दुखियों की सेवा करते हुए अपने पैरों पर कितनी धूल एकत्र करता हूँ।”
रवींद्र बाबू ने लिखा कि भारत की समस्या राजनैतिक नहीं, सामाजिक है। यहां राष्ट्रवाद नहीं के बराबर है। हकीकत तो ये है कि यहां पर पश्चिमी देशों जैसा राष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता, क्योंकि सामाजिक काम में अपनी रूढ़िवादिता और सड़ी गली मान्यताओं का हवाला देने वाले लोग जब राष्ट्रवाद की बात करेंगे तो दुनिया में कौन उनपर यकीन करेगा? भारत को राष्ट्र की संकरी मान्यता छोड़कर अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।’
महाकवि रवींद्र बाबू की जन्मतिथि पर उन्हें सादर नमन।