प्रेम वृत्त में??
“अरे। यहाँ क्यों नहीं बैठती? किताबों में इस उमर में क्या मिलेगा, लड्डू?” एक दिन नहीं, दो दिन नहीं जब ये संभाषण हर रोज़ के हो गए भाई कान पक गए, सिर चक्कर खाने लगा और अपनराम चुप्पी साधकर उस रास्ते से गुजरने लगे जहाँ से संभाषण की संभावनाएं बनी ही रहती हैं। उस तीर्थ की ओर देखे बिना जहाँ रामायण के पाठ के साथ ही मुझ जैसे लोगों को पकड़कर बैठने की भरसक कसरत की जाती थी।
“अरे भैया। जाने दो न, पकड़ूँ तोरी बैयां —”
“अभी पता नहीं चलता न, जवानी का भूत सिर पर चढ़कर बोलता है न, पता चलेगा बुढ़ापे में —ब्ला–ब्ला –ब्ला”
एक दिन निकल ही तो गया मुँह से कि देखा जाएगा जब सामने आएगा बुढ़ापा लेकिन भई, वहाँ तो मजमा लगता था, हर रोज़ लगता था। लगता उस समय था जब घर का सारा काम-धाम खत्म हो जाता, पुरुष अपने काम पर और बच्चे अपने स्कूलों की ओर रिक्षा में बैठकर टाटा –बाय-बाय करके चले जाते। अब खाली समय, शैतान का घर। इसीलिए रामायण, गीता के पाठ के लिए सामने वाले बरामदे में पाँच/सात ऐसी महिलाओं का मजमा लगता जो बेचारी अपने सिर पर पूरे जहान को भगवान से मिलने के बोझ का ठेका उठाकर रखतीं। दो चौपाई पढ़ी जातीं फिर फलाने की छोकरी फलाने के साथ सोसाइटी की पीछे की गली में हर रोज़ मिलती है।
“और–पता भी है वो राजपूत है, और वो बामण —”
“हाय राम। कैसा कलजुग आ गया, बताओ भला —-”
“अरे। हमें क्या मतलब –राम का नाम लो —-”
हाँ, यह बात तो है, मतलब तो नहीं था केवल इसके कि अपना ग्रुप बढा लिया जाए जिससे अधिक से अधिक लोगों की बातें सुनने को तो मिलें। जितने ज्यादा लोग, उतनी ज़्यादा मजेदार अलग-अलग तरह के किस्से। अब सारे समय तो भजन नहीं हो सकता और न ही रामायण और गीता का पाठ!अपनी बिरादरी बढ़ाने में जो पुण्य मिलता, वह सबसे ज़्यादा होता इन चौपाइयों और श्लोकों से पढ़ने से!
बात सबसे बड़ी थी कि ब्राह्मण समाज की महिलाएं अपने सनातन घरम का प्रसार करने में ऐसी संलग्न जिन्हें अपने साथ समाज के ब्राह्मण समाज की उन महिलाओं की चिंता अधिक थी जो बिना बात ही झोले में कंधे पर किताबें लटकाए अपना समय बर्बाद करने पर तुली रहती हैं।
फिर कीर्तन चालू, साथ ही एक खोजी दृष्टि भी कि और किसको अपने इस धर्म के कार्य मंत सम्मिलित किया जा सकता है? उस समय मेरा उधर से निकलने का समय होता और मैं पकड़ी जाती।
मज़ेदार बात यह थी कि यह कोई अनपढ़ ग्रुप नहीं था, यह ‘सो-कॉल्ड’ वह शिक्षित वर्ग था जो अपने घरों में माँओं को देखकर आया था और उनसे कहीं अधिक पढ़-लिखा यानि ‘ग्रेजुएट’ था।
शादी के बाद पढ़ाई, भला ये भी कोई बात है। शादी के बाद घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ कम होती हैं जो पन्ने पलटने में अपना ज़िंदगी का समय बर्बाद करो। शांति से ऐसे जागृत लोगों में बैठकर अपने जनम का उद्धार करो न!
भई। ठीक हो सकती है उनकी बात लेकिन पल्ले तो पड़ी नहीं कभी क्योंकि एक-दो बार पकड़कर बैठा भी लिए गए तो पदों, श्लोकों और भजन के बीच में जब दूसरे प्रवचन सुनने को मिले तब मन त्राहि-त्राहि करने लगा।
न-न गलत मत समझिएगा, यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है, हमारे ही जनम की है यानि लगभग अपनी ही उमर वालों की। आज की पीढ़ी भी अपनी उस शाश्वत आदत से छुट्टी नहीं पा सकी जो पता नहीं कितने बरसों से चली आ रही है, बस —फ़र्क यह होता है कि तौर-तरीके बदल जाते हैं। इनमें से ही जब दूसरी पीढ़ी नौकरियों पर जाने लगती है तब उनकी बातों और चर्चाओं का स्टैंडर्ड और ऊँचा दिखाई देने लगता है।
-मन में कुछ विचारों की उत्पत्ति हुई जो कुछ इस प्रकार हैं ;
‘ज़िंदगी की उलझनों की एक शाम है उनके नाम जो ऐसे शब्दों से परे है जो मनों में केवल और केवल स्नेह प्रसारित नहीं करते, जो जागृत करते रहते हैं इस सोए हुए समाज को, अपनी जाति को जगाते हैं , करते हैं उजागर सोते हुए मनों में उन शब्दों से जिन शब्दों में नहीं होता कोई आडम्बर, जो सरल, सहज होते हैं और अपने कर्मों के माध्यम से शुभ संदेश प्रसारित करते हैं। ‘पता भी नहीं चला आखिर ये पंक्तियाँ उतर क्यों गईं?
प्रकृति के प्रेम, स्नेह से बना मनुष्य गफ़लत में पड़ जाता है, मुझे लगता है उसका कई बड़े अन्य कारणों में से एक प्रमुख कारण है प्रकृति के सानिध्य की उपेक्षा। जिस ईश्वर को हम कहीं न कहीं ढूंढते फिरते हैं वह तो हमारे भीतर पूरे आचार-व्यवहार में, हमारी सोच के केंद्र बिन्दु में, हमारी हर साँस में हर पल इधर से उधर टहलता ही तो है। जिस दिन उसने टहलना बंद किया, उस दिन यह शरीर मिट्टी ही तो हो जाता है।
भगवान से प्रेम नहीं करोगे तो यही न सड़ते रहोगे इसलिए अपने धार्मिक ग्रंथ पढ़ो, दूसरों को भी पकड़कर सुनाओ, न सुनें तो गुस्से होकर सुनाओ, गालियाँ दो, और पर निंदा तो सबसे महान कर्म है, उससे ही तो कल्याण हो सकेगा। अब अगर बताओगे नहीं किसी को कि समाज में क्या हो रहा है तो जागोगे कैसे? और खुद नहीं जागोगे तो समाज को कैसे जगाओगे?
प्रश्न तो बड़े सही और धारदार थे लेकिन मेरे जैसे के पास उत्तर नदारद था। एक प्रेम था जो किसी भी महान प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ था, जो अपने भीतर ही सभी प्रश्नों के उत्तर समेटे हुए था। एक बार देखो तो सही। आँखें खोलो तो सही। बंद आँखों और बंद दिल से रामायण, गीता का पाठ पढ़ोगे, भजन-कीर्तन करोगे तो उस प्रकृति के प्रेम को तो भूल ही जाओगे जो भीतर है, सदा से है।
अपना विश्लेषण जब हम स्वयं नहीं कर पाते तो ऐसी परिस्थिति में वृत्त में घूमते रह जाना बड़ा स्वाभाविक हो जाता है। कुछ हम ढीले पड़ जाते हैं और रही सही कसर यह बाहरी जगत पूरी कर देता है।
प्रेम का पाठ पढ़ाने की ज़रूरत इस प्रकार से कहाँ है, वह तो भीतर का वह गहन भाव है जो किसी के सामने बखान करने की अथवा किसी का सुधार करने की अथवा किसी पर कीचड़ उछालने की ज़रूरत पर बल नहीं देता। वह तो चित्त शांत करता है। वह सबके भीतर है, उसका कोई वृत्त नहीं, वह किसी विशेष स्थान पर नहीं, वह तो वृत्त में रह ही नहीं सकता, वह प्रकृति की हर नन्ही से नन्ही वस्तु में है और विशाल से विशाल में! वह दिल के हर कोने में है।
मत बांधने का प्रयास करो उसको किसी वृत्त में क्योंकि वह प्रेम है और प्रेम को कोई भी बंधन स्वीकार नहीं। महसूस किया क्या मित्रों?