स्मृति शेष: पं.बिरजू महाराज
“गीतंवाद्यं च नृत्यं च त्रयं संगीत मुच्यते।”
अर्थात् गायन, वादन एवं नर्तन इन तीन कलाओंके समावेश को संगीत कहते हैं। तीनों कलायें एक दूसरे से स्वतंत्र रहकर भी एकसूत्र में पिरोये रहते हैं।कला की विकास यात्रा संस्कृति का निर्माण करती हैं। भारतीय संगीत हमारे देशकी सांस्कृतिक धरोहर है। संगीत के अंतर्गत तीन विधायें आती हैं- गायन, वादनऔर नृत्य।
कथक नृत्य उत्तर भारत का एकमात्र शास्त्रीय नृत्य है जिसकी उत्पत्ति मूलतः कथावाचन से हुई है। प्राचीन काल में कथावाचक महाभारत, रामायण इत्यादि धार्मिक एवं पौराणिक ग्रन्थों के विभिन्न प्रसंगों को जनसाधारण के समक्ष रोचक ढंग से प्रस्तुत कर उनमें निहित धार्मिक और दार्शनिक तत्वों को अपनी कथावाचन कला के माध्यम से प्रस्तुत करते थे। प्राचीन कथावाचन की कलामें समयानुसार धीरे-धीरे परिवर्तन हुए और उनमें मनोरंजकता के पुट का समावेश होता गया। कथावाचक कथावाचन के साथ-साथ पद संचालन, अंग-प्रत्यंग, भाव इत्यादि का प्रयोग भी करने लगे जिसके फलस्वरूप शास्त्रीय नृत्य शैली’कथक’ का आर्विभाव हुआ। कालान्तर में इसी शैली के कई घराने विकसित हुये जिनमें ‘लखनऊ घराना’ ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। जिसका प्राप्त इतिहास लगभग 400 वर्षों से भी अधिक पुराना है।
मानव जाति में जन्म के साथ ही सुख-दुख, हर्ष, विषाद, क्रोध, रोमांच, आक्रोश,भय, चपलता इत्यादि अनेक भाव विभावों का संचार प्रारम्भ हो जाता है जो जिन्दगीके विभिन्नर मोड़ों पर विविध रंगों की अमिट छाप छोड़ जाती है। नृत्य क्रिया संसार केलिए प्रकृति का अनमोल उपहार है। मनुष्य ने अपने हृदय में उठ रहे विभिन्न भावोंको अभिव्यक्त करने के लिये प्रकृति को ही सशक्त माध्यम बनाया। आकाश में पक्षीका उड़ना, धरती पर पशुओं की क्रिया, मोर का नाचना, नदी, झरनों का कलकल स्वरके साथ बहना, पहाड़ों की स्थिरता, समुद्र की गहराई एवं लहरों का उतार-चढ़ाव, सूर्य,चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, ऋतुओं का परिवर्तन इत्यादि प्रकृति के समस्त क्रिया कलापों से प्रेरणालेकर मानव अपने हृदय में उमड़ते अनगिनत भावों को शारीरिक गति द्वारा व्यक्त करनेलगा। अपने शरीर के अंग प्रत्यंगों के संचालन द्वारा अपनी बातों को समझाने लगा।प्रकृति के अद्भुत क्रिया कलापों तथा दृश्यों से प्रेरित होकर खुशी और हर्षोल्लास मेंमस्ती से झूमने लगा जो स्वतः नर्तन का रूप धारण कर लिया।मनुष्य भावात्मक तथा अति संवेदनशील प्राणी है और नृत्य उन संवेदनाओं को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम बना। नृत्य अंगों और भावों की सौंदर्यमयी भाषा बन गई।
सामान्यतः ‘कथक’ का अर्थ ‘कथा कहे सो कथक कहावे” से लिया जाता है। उत्तरीभारत में उत्तर प्रदेश की एक जाति जो अपनी जीविका के लिये संगीत नृत्य परआधारित थे ‘कथिक’ कहलाते थे, तो इसी जाति वाचक संज्ञा के आधार पर इसकानाम कथक नृत्य हो गया। विभिन्नय शब्दकोषों के अनुसार कथक नामक प्रचलित शब्दके पर्यायवाची शब्द कथिक, कथिकों, कहुब, कत्थक इत्यादि शब्द प्रकाश में आये।
वर्तमान में कथक की परम्परात शैली को कायम रखते हुए नवीन एवं सृजनात्मक प्रयोग होने लगे हैं, जिनका श्रेय लखनऊ घराने की सातवीं पीढ़ी के नृत्याचार्य पं. बिरजू महाराज जी को जाता है। कथक सम्राट पं. बिरजू महाराज जी ने कथक नृत्य को पुर्नजीवन देने के साथ-साथ अपनी सृजनधर्मिता के द्वारा परम्परागत कथक शैली को कायम रखते हुए अनेक नृत्य संरचनाओं के सृजन के अलावा लखनऊ पघराने के नृत पक्ष, नृत्य पक्ष एवं नाट्य पक्ष को अत्यन्त समृद्ध किया। इस प्रकार कथक नृत्य शैली, जो मध्यकाल में एक सीमित दायरे में थी, उसका विस्तार एवं प्रचार-प्रसार हुआ तथा उसका बहुमुखी विकास हुआ। आज कथ्क शैली को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर पहुंचाने का श्रेय निःसन्देह पदूमविभूषण पं. बिरजू महाराज जी को जाता है।
पं. बिरजू महाराज जी का एक मुख्य योगदान शिक्षण की व्यवस्थित विधि विकसित करने में निहित है। पं. बिरजू महाराज जी ने अपने नृत्य कौशल और तकनीक का मुक्त हस्त से दान दिया। अब तक जो चीजें परिवार के गुप्त भण्डार में संरक्षित थीं, महाराज जी ने उसे और समृद्ध बनाकर अपने विद्यार्थियों को सिखाया। पं. बिरजू महाराज जी में एक खास बात है कि वे श्रेष्ठताके लिये सही तौर-तरीकों के पालन पर कठोरता से जोर देते हैं। इस बात का परिणाम उनके कई शिष्य-शिष्याओं के कार्यों में देखा जा सकता है। पं. बिरजू महाराज जी अभिनय क्षेत्र में भी बेजोड़ हैं। ये कथक के भावपक्ष के व्यवहार और उसकी श्रेष्ठताका लगातार पालन करते रहे हैं। इनका यह गुण भी इनके कई शिष्य-शिष्याओं में देखा जा सकता है।
नृत्य शिक्षा के क्षेत्र में पं. बिरजू महाराज जी का बहुत ही बड़ा योगदान है। शिक्षा देने का काम इन्होंने वस्तुतः बालपन से ही शुरू कर दिया था। पं. बिरजू महाराज जी ने सैकड़ों शिष्यों को शिक्षित किया है जिनमें से काफी कथक के क्षेत्र में सक्रिय और व्यावसायिक रूप में लगे हुये हैं तथा राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ख्याति प्राप्त कर रहे हैं। यह तथ्य किसी भी मानदण्ड से एक उल्लेखनीय उपलब्धि तथा महान योगदान है।
सामाजिक, ऐतिहासिक, कलात्मक तथा अन्य कई कारणों से कलाओं के बढ़ते हुये लोकतंत्रीकरण, संरक्षण और गुरू तथा शिष्य के बीच सम्बन्ध के बदलते स्वरूप,व्यक्ति तथा सामग्री की बढ़ती हुई गतिशीलता, नये तकनीकी साधनों, कला प्रस्तुति की नई शैलियों और विधियों, कला शिक्षा संस्थानीकरण, जन संचार के माध्यमों के प्रभाव के कारण हमारी शैली में काफी बदलाव आ रहा है और इस संदर्भ में प्रदर्शनकारी कलायें कोई अपवाद नहीं हैं। पं. बिरजू महाराज जी, जो इस तीव्र गति से परिवर्तनशील स्थिति के एक अंग है, ने इस तीव्र गति से परिवर्तनों की पृष्ठभूमि में प्राप्त अवसरों का पूरा और सचेत उपयोग किया है जिसके फलस्वरूप कथक का अनेक दिशाओं में और अनेक तरीकों से विस्तृत विकास हुआ है, इसका श्रेय मुख्यतः पं. बिरजू महाराज जी को जाता है। पं. बिरजू महाराज जी द्वारा कथक को दिया गया शक्तिशाली संवेग निश्चय ही उनके महान योगदान को दर्शाता है।
पं. बिरजू महाराज जी के नृत्य में पौराणिक एवं ऐतिहासिक विषयों की ओर ज्यादा झुकाव रहा है, यद्यपि थोड़ी सीमा तक धर्म निरपेक्ष विषयों को भी स्थान दिया गया। इसके अलावा लीक से हटकर लयकारी पर आधारित महाराज जी ने कई नृत्य संरचनाओं का सृजन किया है। अपनी अधिकांश कोरियोग्राफिक कृतियों के लिये पं. बिरजू महाराज जी ने स्वयं संगीत की रचना की है। संगीत से पं. बिरजू महाराज जी का लगाव उतनी ही संपूर्णता से रहा है जितना कि नृत्य के साथ। उनके संगीत में शास्त्रीय, लोक तथा जनप्रिय लयों का मिश्रण होता है जो उसे अद्भुतता प्रदान करती है। पं. बिरजू महाराज जी द्वारा निर्देशित अनेक नृत्य-नाटिकाओं,नृत्य संरचनाओं, वाद्यवृन्दों को काफी लोकप्रियता हासिल हुई।
26 वर्ष की अल्पायु में ही पं. बिरजू महाराज जी को ‘केन्द्रीय संगीतनाटक अकादमी’ का पुरस्कार मिला। इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के ‘डॉक्टरेट’ की मानक उपाधि से वे विभूषित किये गये। मध्यप्रदेश शासन द्वारा पं.बिरजू जी के व्यक्तित्व की अद्वितीयता, शास्त्रीय नृत्य में कथक शैली को नई सौन्दर्य दृष्टि देने और श्रेष्ठ सृजनधर्मिता के लिये ‘कालिदास सम्मान’ से विभूषित किया गया। कथक में महान योगदान के लिये ‘सोवियत लैंड नेहरूअवार्ड’, आंध्र रल’, ‘नृत्य चूड़ामणि’, ‘कथक सम्राट’ इत्यादि के अलावा ‘पद्मविभूषण’ उपाधि से भी इन्हें विभूषित किया गया। हाल ही में दीनानाथ मंगेशकर अवार्ड से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त पं. बिरजू महाराज जी को उनके अद्वितीय प्रदर्शन और उच्चकोटि की रचनाशीलता के लिये देश-विदेशों में कई संस्थाओं द्वारा समय-समय पर कई उपाधियों से विभूषित किया जाता रहा है।
पद्मविभूषण पं. बिरजू महाराज जी लखनऊ घराने के इतिहास में एक असाधारण व्यक्तित्व हैं। नृत्य में ही नहीं, दूसरी कलाओं के इतिहास में भी ऐसा कम ही हुआ है जब किसी कलाकार ने अपनी उपस्थिति इतनी केन्द्रीय बना ली हो कि सभी शैलियाँ, सभी घराने उसके ऐसे अमिट और अनिवार्य प्रभाव के दायरे में आये हों। आज रसिकों और साधारणजन दोनों के बीच कथक और पं. बिरजू महाराज जी एक दूसरे के पर्यायवाची बन गये हैं। पं. बिरजू महाराज जी एक ऐसे महान व्यक्तित्व हैं जिनका नाम लेने से कथक नृत्य और कथक कहने से बिरजू महाराज जी साकार हो उठते हैं।
लखनऊ घराने के अदभुत मशालवाहक पं. बिरजू महाराज जी कथक के महानतम प्रस्तावक हैं जो अपनी कला और परम्परा के लिये पूर्ण मस्तिष्क से समर्पित रहे तथा जिन्होंने कथक के कौशल को पुनर्जीवित कर सारे विश्व में ‘लखनऊ घराना’ के कथक को फैला दिया।
पं. बिरजू महाराज जी अपने आप में संस्था स्वरूप थे। यह पं. बिरजू महाराज जी की कथक साधना, एकांत निष्ठा और कल्पनाशील सृजनात्मकता के सहज संयोग से ही संभव हुआ है। परम्परा की प्रामाणिकता की रक्षा करते हुए पं. बिरजू महाराज जी नेसृजनात्मक साहसिकता के साथ कथक शैली का अनेक कई दिशाओं में विस्तार किया है और यह सिद्ध किया है कि शास्त्रीय कला जड़ या स्थिर नहीं है, उसमें समकालीनता भी है और निरंतर गतिशीलता भी है।