(17 अक्तूबर 1923 – 21 मार्च 2003)
पति की आसमयिक मृत्यु से टूटी शिवानी को सांत्वना देते हुए उनके मित्र अमृतलाल नागर ने उनसे कहा था- देखो गौरा बेन, मनुष्य दो तरह से जीता है, एक घुलकर, एक तपकर। हम नहीं चाहते कि तुम घुलकर जियो। तुम्हें तपकर जीना है, खूब लिखो और उसी स्याही में अपना दुख मिला दो। . . . . लेखनी को सदा जंगल से पकड़ी गई नई-नई नागिन समझो गौरा बेन ! बिना खोले पिटारे में बन्द रखोगी तो ढकना खोलते ही डस लेगी। उसे रोज बीन बजाकर झुमाना सीखो।
हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में उनका योगदान कितना रहा, यह कहना मुश्किल है पर यह जरूर है कि कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने का श्रेय शिवानी को जाता है। शिवानी कुछ इस तरह लिखती थीं कि लोगों की उसे पढने को लेकर जिज्ञासा उत्पन्न होती थी। उनकी भाषा शैली कुछ-कुछ महादेवी वर्मा जैसी रहीं पर उनके लेखन में एक लोकप्रिय किस्म का मसविदा था। उनकी कृतियों से यह झलकता है कि उन्होंने अपने समय के यथार्थ को बदलने की कोशिश नहीं की। उनकी कृतियों में चरित्र चित्रण में एक तरह का आवेग दिखाई देता है।
शिवानी जी अक्सर रवीन्द्रनाथ की पंक्तियों से यही मंतव्य स्पष्ट करती थीं: नारद कहिलो हाँसी, सेई सत्य जा रचिबे तूमी। घटे जा सब सत्य नहे, कवि तव मनोभूमि। रामेर जम्मस्थाने अयोध्यार चेये सत्य जेनो। ( नारद ने हँसकर कहा कवि से, सच वही है जो तुम अपनी मनोभूमि पर रचते हो, वह सब नहीं, जो घटता रहता है। इसी से राम की जन्मस्थली अयोध्या का असली सच समझ लो। )
स्वातंत्र्योत्तर भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय हिंदी कथाकार शिवानी का रचनाकार नाम इस कदर चर्चित हुआ कि गौरा पंत उसके तले दब–ढक सी गईं। रचना की भरी–पूरी अर्धशती जीने के बाद अस्सी वर्ष की उम्र में, 21 मार्च, 2003 को राजधानी दिल्ली में शिवानीजी ने अंतिम सांसें लीं। 17 अक्तूबर 1923 को राजकोट, गुजरात में शुरू हुई जीवन–यात्रा ने यहाँ विराम लिया और हिंदी समाज को यह सोचने पर विवश किया कि छोटे–छोटे गुटों में बँटा–कटा हमारा यह समाज कब रचनात्मकता की पहचान करना सीखेगा!
कुमाऊँनी ब्राह्मण परिवार में जन्मी शिवानी में अपने मूल्यांकन को लेकर कभी कोई तनाव या कुंठा नहीं रही उलटे उन्होंने यही कहा कि जितना दे सकी हूँ, उससे कहीं अधिक मैंने पाया है। प्रारंभिक शिक्षा शांतिनिकेतन में पाई तो लेखन भी छात्र–जीवन में ही बांग्ला में शुरू किया पहली कहानी बांग्ला में लिखी, लेकिन गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के कहने पर फिर मातृभाषा को ही लेखन का माध्यम बनाया कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक शिवानी ने गुरूवर हजारीप्रसाद द्विवेदी को स्मृतियों में सदैव बनाए रखा।
प्रारंभ में ही पारिवारिक वातावरण ऐसा मिला कि एक विस्तृत कथा–फलक बनता चला गया। दादा पं. हरिराम पांडे उच्च कोटि के विद्वान् और मदनमोहन मालवीय के मित्र थे। पिता कई रियासतों के राजकुमारों के शिक्षक और मंत्री रहे। अनेक रियासतों से होते हुए कुमाऊँनी लोक–संस्कृति, परंपरा और चरित्र शिवानी के कथा–संसार में रचते–बसते चले गए। ‘धर्मयुग’ में रचना–प्रकाशन का क्रम क्या प्रारंभ हुआ, फिर तो अनेक धारावाहिक उपन्यास पाठकों की प्रिय रचना बन गए। यह कहना जरूरी है कि अपनी आकर्षक कहन के जरिए शिवानी हिंदी की सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार बन गईं।
बंगला साहित्य और संस्कृति का शिवानी पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी ‘आमादेर शांति निकेतन’ और ‘स्मृति कलश’ इस पृष्ठभूमि पर लिखी गई श्रेष्ठ पुस्तकें हैं। शिवानी की कथा यात्रा की शुरुआत हुई थी शाहजहाँपुर से। जहाँ उन्होंने ‘लाल हवेली’ लिखी थी। ‘कृष्णकली’ उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘चौदह फेरे’, ‘भैरवी’, ‘कैंजा’, ‘पूतोंवाली’, ‘कालिंदी’, ‘विषकन्या’, ‘लाल दीवारें’ और ‘अतिथि’ सरीखी बाँध लेनेवाली अनेक कथाओं को कौन भुला सकता है चरित्रों के बहाने कथा की अद्भुत फाँस तैयार करनेवाली यह कथाकार समाज में होनेवाले बदलावों को अचीन्हा नहीं छोड़तीं जहाँ वह पली–बढ़ीं, बंगाल हरदम उनकी स्मृतियों में छाया रहा। पाठकों को उन्होंने उस दुनिया से रू–बरू कराया, जिसमें रहते हुए वह अपनी पसंद की चीजें चुनता है, विरोध करता है, समझौते और चुनाव करता है।परिवर्तनशील शहरी समाज में नजर बनाए रखनेवाली इस रचनाकार की लोकप्रियता अपने आप में इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि उनके विचारों से इत्तेफाक रखनेवालों की तादाद कभी कम नहीं रही। उनके पात्रों में यों तो हर उम्र के लोग हैं, लेकिन प्रायः वे युवा पात्रों को तरजीह देती नजर आती हैं। उनके चरित्र देर तक पाठक के मन में बसे रहते हैं। हिंदी कथा के पाठकों में पैठ बनानेवाले उन जैसे रचनाकार कम ही होंगे।
शिवानी एक सकारात्मक दृष्टि लेकर चलने वाली लेखिका थी। उनका लेखन प्रतिवाद नहीं करता था बल्कि मनुष्य को और अपने समय को पढ़ने की कोशिश करता था, विश्वास दिलाता था।
माता-पिता की रजामंदी से तयशुदा शादी में एक वस्तु की तरह सौंप दी गयी वैवाहिक यात्रा के तहत एक बुद्धिमान स्त्री के जीवन में प्रेम (यदि आ सका तो) निरंतर स्वीकार और अस्वीकार की एक गहरी भीतरी छटपटाहट से घिरा रहता है। ‘लाल हवेली’ के विभाजन के दौरान दरबदर होकर पाकिस्तान में धर्मान्तरण को अभिशप्त नायिका हो या पति के ठंडेपन से हताश ‘बंद घडी’ की गृहिणी, इनका चित्रण आज से आधी सदी पूर्व भारतीय समाज में न तो सहज था न निरापद। सामान्य घर-गृहस्थी के बीच, हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई, हर वर्ग की स्त्री के जीवन की अनकही हजारों भीतरी सच्चाइयों का का दर्द कभी मार्मिक ब्योरों, कभी अपनी परिहास रसिक टिप्पणियों और कभी लोकभाषा के मुहबरों से उघाड़ने वाली शिवानी की यह कहानियां इसलिए आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। ‘करिये छिमा’ की अनपढ़ अनब्याही माँ हो या पति के साथ लूटपाट करती रही ‘गहरी नींद’ की अपराधिनी अख्तरी, अथवा पिता द्वारा बेचीं गई ‘टोला’ की चोर लक्ष्मी। उनकी कहानियों जैसा करुणा और हास्य का अपूर्व समन्वय सहजता से कर पाना बेहद दुष्कर है, जहाँ हमको उनका हास्य समाज की उपरी परत उघाड़ कर हँसता है, और साथ ही एक मार्मिक करूणा भीतर तक नश्तर की तरह प्रवेश कर दारुण सच्चाई भी दिखाती है, कि यह भी जीवन है, देखो इसे।
‘अनाथ’, ‘मणिमाला की हँसी’, ‘करिये छिमा’, ‘तोप या धुँआ’ सरीखी उनकी कहानियों में परिहास और करुणा के बीच अचानक खुले जीवन के कई अकथनीय पहलू दिखाते हैं कि प्रेम या परिणितियों की अपनी कोई नैतिकता नहीं होती। पर फिर भी प्रेम से बड़ा शायद ही कोई दूसरा नैतिक अनुभव हो।
उनकी अंतिम कहानी– ‘लिखूँ’ का चरित्र प्रिया दामले भी याद रह जाने वाला है। एक तो उसका व्यक्तित्व और फिर शिवानी की किस्सागोई, पाठक एकबारगी तो फँसकर रह ही जाता है। ऐसे पाठकों की संख्या असंख्य है, जो शिवानी के कथाजगत में अपने असल जीवन की छवि देखते हैं जाने कितने पाठक ऐसे होंगे, जिन्होंने उनकी रचनाओं से मैक्सफैक्टर सरीखे आधुनिक जीवन के टिप्स लिये होंगे, उनके पात्र जिनकी कल्पनाओं में छाए रहे होंगे।
उनकी संस्कृतनिष्ठ भाषा का–सा प्रवाह और बंगला कथा के संस्कार ही हैं, जिन्होंने उन्हें हिंदी का शरत बनाया। स्त्री पात्रों के अंतरतम की गहराइयों में उतरना उनके कथा–संसार की विशेषता हैं ग्रामीण अंचल से लेकर शहरी आधुनिक समाज तक और देश से लेकर विदेश तक यात्राओं के बीच उनके पात्र सहज आकर्षण लिये हैं। आडंबर से शिवानी को सख्त चिढ़ थी उनका कहना है, ‘आज लोग त्योहारों पर उपहार भेजनेवालों के हृदय की गरिमा को नहीं तौलते, वे उपहारों की गरिमा तौलना सीख गए हैं। बाह्याडंबर जितना ही बढ़ता जा रहा है उतना ही हृदय सिमट–सिकुड़ छोटा होता जा रहा है।’ समय–प्रवाह में बदलती जा रही त्योहारों की दुनिया में काफूर हो रहे उत्साह और वर्तमान हो रही विवशता को वह बहुत गौर से देख और अनुभव कर रही थीं।
उन्होंने एक जगह लिखा है– ‘…मैं उस युग की साक्षिणी रही हूँ, जब इन्सान इन्सान था, न हिंदू, न मुसलमान हर हिंदू त्योहार में देश भर के पढ़े–लिखे अपढ़ मुसलमान समान उत्साह से भाग लेते थे और हर हिंदू उसी उत्साह से मुसलमानों के त्योहार में भाग लेता था हर हिंदू जबान पर सेवइयों की मिठास रहती और हर मुसलमान गुझियों का आनंद उठाता था।’
ऐसा नहीं है कि शिवानी बनारस के हिंदू–मुसलिम के भयानक दंगे को भूल गयीं थी बल्कि एक रचनाकार की समझदार आँख ने यह देख लिया था कि ‘तब वे चतुर–चालक अंग्रेजों की भड़काई आग थी, आज हमारे अपने राजनीतिज्ञ ही हमारे घरों को फूँक तमाशा देख रहे हैं।’
कभी शिवानी ने कहा था, ‘भारतीय वर्तमान समाज अपना स्वाधीन चिंतन बहुत पहले खो चुका है आज की हमारी नवीन संस्कृति हो या नवीन चिंतन, उसका लगभग सबकुछ पश्चिम से उधार ली गई संपत्ति है वह कर्ज चुकाने में एक दिन हम स्वयं कंगाल हो जाएँगे यह हम अभी नहीं समझ पा रहे हैं, जब समझेंगे तो बहुत देर हो चुकी होगी।’ सचमुच बहुत देर हो चुकी है चिंतन तो छोड़िए, अब तो सामान्य व्यवहार भी स्वाधीन नहीं।
निरंतर भ्रमण के बीच बिना पति-पुत्र की निगरानी और सीमित सी सुविधाओं के साथ व्यतीत किया गया उनका अपना गैर पारंपरिक वैरागी जीवन उनका निजी सलीब था या या चरम उपलब्धि। दरअसल दुनिया के हर साहित्यकार की तरह शिवानी की साहित्य की जड़ें भी एक सहज भ्रमणशीलता और खुले आत्मविश्वासी मन से अपना जीवन-रस ग्रहण करती थीं। और इसलिए एक चातक की तरह समाज प्रदत्त जीवन के तमाम विलासिताओं को उन्होंने भूखी-प्यासी होते हुए भी सदा खुद से दूर रखा, और जब पिया तो साहित्य के स्वाति नक्षत्र का जल ही पिया।
शिवानी भारतवर्ष के हिंदी साहित्य के इतिहास का बहुत प्यारा पन्ना थीं। अपने समकालीन साहित्यकारों की तुलना में वह काफी सहज और सादगी से भरी थी। उनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान बड़ा है पर फिर भी हिंदी जगत ने उन्हें पूरा सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हकदार रहीं।
शिवानी की कहानियाँ इच्छाओं की पूर्ति की कहानियाँ नहीं, इच्छाओं की पहचान की, साथ बैठकर युगानुभव या भावजगत साझी करने की सहज और विशुद्ध भारतीय परम्परा से उपजी कहानियाँ हैं। वे भावजगत ही नहीं, भाषा के स्तर पर भी बिना किसी ‘वाद’ या विचारधारा की बैसाखी के सुधी पाठकों को अपनी सहज जड़ों, जरूरतों का अहसास करा सकती हैं। इसीलिए उनके हर पाठक को, वह उत्तराखंड का सरल क्लर्क हो या बोटवाला, या बनारस, प्रयाग का कोई विद्वान् रसिक नागर पाठक, शिवानी की कहानियाँ पढ़ते हुए, उनके मुहावरों, भाषा प्रयोगों का आनन्द लेते हुए उनकी सह उपस्थिति का सबको सहज अहसास होता रहता है और शायद इसीलिए कहा भी गया है कि उन जैसी सुकवि लेखिका की काया को बुढ़ापे या मृत्यु से कोई भय नहीं- ‘नास्ति येषांयशस्काये जरामरणजं भय’।
गोरा पंत शिवानी
जन्म: 17 अक्टूबर 1923
निधन : 21 मार्च 2003
शिक्षा-दीक्षा: शांति निकेतन
साहित्यिक सेवाओं के लिए 1982 में पद्मश्री से सम्मानित
प्रमुख कृतियाँ –
उपन्यास – कृष्णकली, कालिंदी, अतिथि, पूतों वाली, चल खुसरों घर आपने, श्मशान चंपा, मायापुरी, कैंजा, गेंदा, भैरवी, स्वयंसिद्धा, विषकन्या, रति विलाप, आकाश।
कहानी संग्रह – शिवानी की श्रेष्ठ कहानियाँ, शिवानी की मशहूर कहानियाँ, झरोखा, मृण्माला की हँसी।
संस्मरण – अमादेर शांति निकेतन, समृति कलश, वातायन, जालक।
यात्रा विवरण – चरैवैति, यात्रिक।
आत्मकथ्य – सुनहुँ तात यह अमर कहानी
‘कृष्णकली’ उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है।
प्रथम उपन्यास ‘लाल दीवारें’ धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था।
‘करिये छिमा’ पर फिल्म एवं ‘सुरंगमा’, ‘रतिविलाप’, ‘मेरा बेटा’ और ‘तीसरा बेटा’ पर टीवी धारावाहिक बन चुके हैं।