महाभारत काल की प्रेम कहानियों से भला कौन परिचित नहीं होगा? ऐसी ही एक कहानी थी राजा दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम कहानी। भला कोई ऐसा होगा जो इनकी कहानी से अनभिज्ञ होगा?
संक्षिप्त रूप में कहानी फिर भी बता दूं – राजा दुष्यंत एक बार वन में गये तब वहां महर्षि विश्वामित्र एवं मेनका से उत्पन्न हुई कन्या शकुंतला अपनी सखियों के संग विहार कर रही थी। शिकार करते हुए राजा का दिल शकुंतला पर आ गया। तब उन दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया। राजा दुष्यंत पुनः लौट गए बिना शकुंतला को साथ लिए और जाते हुए उसे दे गए अपनी एक मुद्रिका (अंगूठी)। उसके बाद उन्होंने मुड़ कर शकुंतला की सुध नहीं ली। लेकिन जब कुछ समय बाद जब शकुंतला राजा के यहां गई तो उन्होंने उसे पहचानने से ही इंकार कर दिया।
राजा की यादाश्त इस मामले में खोने की कहानी भी इसी में आती है। जहां कण्व ऋषि के आश्रम में शकुंतला रह रही थी वहां एक बार ऋषि दुर्वासा आए और उनकी अनभिज्ञता करने के कारण उन्होंने शकुंतला को श्राप दे दिया। फिर क्या हुआ यह सब बताने की आपको आवश्यकता नहीं। फिर भी आप जानना चाहें तो ‘संस्कृत’ भाषा में बनी इस फ़िल्म को देख सकते हैं।
अरे ये क्या! ‘संस्कृत’ भाषा में? जी हाँ… अब आप कहेंगे एक ओर जहां बड़े-बड़े निर्देशकों की फिल्में सिनेमाघरों में पिट रहीं हों ऐसे में भला इतनी मुश्किल लैंग्वेज वाली फिल्म देखने जाएगा कौन? देखना तो दूर पहली बात तो ये कि देवताओं, बुद्धिजीवी वर्गों, पंडितों की इस भाषा को आम आदमी समझेगा कैसे? तो फिर सवाल तो कई आपके दिल-दिमाग में खड़े होंगे। सबसे पहला तो यही कि आखिर संस्कृत में ही फ़िल्म क्यों? तो सुनिए जनाब इन सब सवालों का शमन करने के लिए ही तो फ़िल्म बनाई गई है कि जिस भाषा को आज तक हम केवल पूजा पाठ में या बेहद कम लोगों द्वारा आज भी पठन-पाठन में काम ली जा रही है उसमें भी फिल्में बनाईं जा सकती हैं। बस जरूरत है तो उन कहानियों को फिर से पढ़कर सिनेमाई भाषा में चिंतन मनन करके उसी भाषा में बनाने की।
अब आप कहेंगे इसे देखें कहाँ? तो ठहरिये वो भी बतातें हैं पहले जानना नहीं चाहेंगे फ़िल्म कैसी बनी है? निर्देशक कौन है? कलाकार आदि तमाम बातें नहीं जाननी आपको? पहली बात तो ये इसी 12 अगस्त को देश के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में ‘बुक माई शो’ पर रिलीज़ की गई इस फ़िल्म को आप 320 रुपये चुकाकर ऑनलाइन बुक माई शो के एप्प और वेबसाइट पर देख सकते हैं।
अब बात करूं निर्देशक और निर्देशन की तो संस्कृत में बनी इस ऐतिहासिक फिल्म के निर्देशक हैं – भारतीय शास्त्रों अच्छी पकड़ रखने वाले कथाविद, प्रसिद्ध वक्ता, लेखक एवं संस्कृत भाषा के स्कॉलर ‘दुष्यंत श्रीधर’। श्री धर के निर्देशन की यह पहली ही फ़िल्म है और क्या खूबसूरत तरीके से उन्होंने इसे पर्दे पर उतारा है कि आप इस कहानी को भले हजारों दफ़ा पढ़, सुन और विभिन्न रूपों में देख चुके होंगे फिर भी देखना चाहेंगें।
महान कवि कालिदास की अमूल्य कृति ‘अभिज्ञान शकुंतलम’ जिसने कालिदास को महाकवि कालिदास की संज्ञा प्रदान की तथा साहित्याकाश में उन्हें सदा के लिए अमर बना दिया उसका फिल्मी रूपांतरण करते समय हालांकि निर्देशक दो-एक जगह चुके भी हैं। लेकिन क्या इस बात के लिए इन लोगों की पीठ नहीं थपथपाई जानी चाहिए कि कई प्रतिष्ठित फ़िल्म समारोहों में सम्मानित हो चुकी इस कृति को एक ऐसी भाषा में उन्होंने फिल्माया जिसमें आज तक तक के भारतीय सिनेमा के 109 सालों के इतिहास में दो दर्जन फिल्में भी नहीं बनीं हैं ठीक से।
निर्देशक श्रीधर और श्रीनिवास कन्ना द्वारा मिलकर प्रोड्यूस की गई इस फ़िल्म में केवल संस्कृत भाषा का ही इस्तेमाल हुआ है ऐसा नहीं। बीच-बीच में तमिल, तेलुगु, कन्नड़, प्राकृत भाषा में आने वाले गीत तथा कुछ संवाद को जोड़ कर यह फ़िल्म 8 भाषाओं का खूबसूरत संगम है। जिसमें बेझिझक आपको डूबकी लगानी ही चाहिए। और गर्व करना चाहिए ऐसी कहानियों तथा ऐसी फिल्मों से जुड़े लोगों पर।
फ़िल्म जितनी खूबसूरत है उसका छायांकन ‘मागी नतेशो’ के द्वारा भी उतना ही उम्दा किस्म का किया गया हैं। हां एडिटिंग के मामले में पांच बार के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार विजेता ‘बी लेनिन’ ने फ़िल्म को इतना अधिक एडिट कर दिया गया कि कहानी को बहुत कम समय में जैसे ये लोग बता देना चाहते हों। इस मामले में थोड़ा फ़िल्म दस-बारह मिनट बड़ी की जाती तो जो कहानी आम जनमानस में विचरण करती आ रही है उसे विस्तृत रूप में देखने पर शेष बचा हुआ आनन्द ही अधिक उत्पन्न होता। सम्भवतः इसके निर्देशक को इतना ही कहना उचित लगा हो।
प्रसिद्ध म्यूजिक डायरेक्टर ‘राजकुमार भारती’, साई श्रवणम (अकादमी पुरस्कार विजेता फिल्म ‘लाइफ ऑफ पाई’ के लिए साउंड रिकॉर्डिंग करने वाले) का म्यूजिक, वहीं कुछ कुल दो-एक जगहों पर राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीत चुके ‘पट्टनम रशीद’ भी जब फिल्म में मेकअप के मामले में कमियां छोड़ दें तो साफ़ नज़र आता है कि फ़िल्म कितने कम बजट में बनी होगी।
कम बजट का असर अवश्य साफ दिखाई पड़ता है बावजूद इसके फ़िल्म में कोई कसर नहीं बाकी रह जाती तो वो इसलिए कि कहानी भी तो उन्होंने महाकवि कालिदास की लिखी हुई ली है। जब ऐसी फिल्मों में ऐसी पुण्यात्माओं का साथ जुड़ा हो तो कमी क्यों कर रह जाएगी। बल्कि कमी तो तब कही जाएगी जब आप और हम ऐसी फिल्मों को देखने से कतराएंगे। अरे अंग्रेजी में सब टाइटल भी हैं इसमें और थोड़ी बहुत भी संस्कृत आपने अपने जीवन में पढ़ी गई तो यह इतनी भी मुश्किल नहीं कि इसे देखा न जा सके।
बाकी एक्टिंग के मामले में शंकुतला बनी ‘पायल विजय शेट्टी’ खूबसूरत लगीं बस एक जगह छोड़ वे अच्छा काम करती नजर आईं। जब फ़िल्म खत्म होते समय ‘अनार्य’ कहते समय की भाव भंगिमा जिस तरह से नजर आती हैं उसमें थोड़ा और डूबने की आवश्यकता थी उन्हें। बाकी पूरी फिल्म यह नायक- दुष्यंत एवं नायिका – शकुंतला की भाव भंगिमाओं के लिए तो अवश्य ही देखी जानी चाहिए। दुष्यंत के रूप में ‘शुभम जयबीर सहरावत’ थियेटर के मझें हुए कलाकार के रूप में नजर आते हैं। साथी कलाकारों में अनसूया के रूप में ‘सिरी चंद्रशेखर’, प्रियंवदा के रूप में ‘सुभागा संतोष’ ठीक रहीं।
लीड रोल के अलावा सबसे ज्यादा प्रभावित किया तो विश्वामित्र एवं मेनका के रूप में रंजीत एवं विजना ने। ‘पवित्रा श्रीनिवासन’ , ‘वाई जी महेंद्र’ , ‘टीवी वरदराजन’ आदि बखूबी अपने काम को अंजाम तक पहुंचाते नजर आते हैं। तो जाइये घर बैठे ही कालिदास की कृति पर बनी इस पहली संस्कृत फ़िल्म का आनन्द लीजिए और गर्व कीजिए कि आज भी हमारे देश में ऐसे भी लोग हैं जो देववाणी की रक्षार्थ उम्दा कहानियों को अपने स्तर पर पूरे जोखिम के साथ कहने का दुस्साहस कर रहे हैं। जी हां यह क्या दुस्साहस नहीं? संस्कृत में फ़िल्म बनाना? क्योंकि हम तो मसाला, मनोरंजन, अश्लील इंस्टाग्राम रील्स या बॉलीवुड की कचरा फिल्मों को देखने के लिए ही तो जन्में हैं न!
नोट – यह भारतीय सिनेमा के इतिहास की दसवीं फ़िल्म है जो अब रिलीज हुई है। इसके अलावा आईएमडीबी के आंकड़े बताते हैं कि अब तक कुल अट्ठारह फिल्में ही संस्कृत में बनीं है। जिनमें भी कालिदास की इस कृति पर संस्कृत में बनने वाली यह पहली फ़िल्म है।