स्नेहिल नमस्कार
मित्रों!
भोर के इन लम्हों में जब अंगड़ाई के लिए उठे हाथ रह गए अधर में ही नन्हे नन्हे बूँदों की तारों पर लटके मोतियों ने मुस्कुराते हुए अपना स्नेहिल मनुहार पहुंचाया मुझ तक। ठगी रह गई, टकरा गई आँखों में भरी मुस्कान उनसे। अंगड़ाई के लिए उठे हाथ नीचे लटक आए। हतप्रभ मैं पहुंच गई उनके पास। यहाँ से लेकर वहाँ तक, जहाँ तक दृष्टि भी पूरी तरह नहीं पहुंच रही थी, माँ प्रकृति का प्रेम ही प्रेम बरस रहा था। बिन भीगे ही भींज उठा मेरा तन-मन ! प्रेम कहाँ वृत्त में था? पसरा पड़ा था, चारों ओर…. समेटना भर था अपनी झोली में। मैंने गंगा-स्नान कर लिया था।
हमारी यात्रा बहुत छोटी है…हम सब भिज्ञ हैं किंतु कर बैठते हैं नाटक अनभिज्ञ होने का! ऐसा नहीं महसूस होता, पकड़ लें उन स्नेहिल पलों को और बिखेरता दें हर मन के आँगन में! कुछ दिनों पहले एक कहानी पढ़ी, उसके कुछ अंश साझा करने का मोह संवरण नहीं हो पा रहा।
एक बुजुर्ग महिला बस में यात्रा कर रही थीं….अगले पड़ाव पर, एक सुंदर युवती बस में चढ़ी और बुजुर्ग महिला के पास बैठ गई…उसने अपने साथ में बैठी बुजुर्ग महिला के बैग्स को उन्हें चिढ़ाने के इरादे से छुआ….
वह हिलती-डुलती ,कुछ व्यंग्य-बाणों की तरजीह में कुछ न कुछ ऊट-पटाँग करती रही। संभवत:वह उन वृद्ध महिला का संयम देखना चाहती थी अथवा उन्हें कुछ कहने के लिए उकसाना चाहती थी।
युवती ने देखा कि उसके शरारत करने के बावजूद बुजुर्ग महिला चुप थीं, मुस्कुराते हुए उसकी शरारत का आनंद ले रही थीं। युवती असमंजस में भर उठी ,उसके मन में वृद्ध महिला की नाराज़गी की तस्वीर थी लेकिन ऐसा तो कुछ हुआ नहीं |उसने उनसे पूछा:-
“मैंने आपके साथ शरारत की, फिर भी आप चुप हैं,शिकायत क्यों नहीं की? मुझे डाँटा क्यों नहीं? आपको गुस्सा नहीं आया?”
बुजुर्ग महिला ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया:-
“असभ्य होने या इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आपके साथ मेरी यात्रा बहुत छोटी है और मैं अगले पड़ाव पर उतरने जा रही हूँ … ”
यह बहुत प्यारा उदाहरण है, समझने के लिए कि हमारे पास बेहूदा बातों के लिए समय है कहाँ?
हम हैं कि समझते हैं, लिखवाकर लाए हैं अमरपट्टा, किसी के साथ कुछ भी, कैसा भी व्यवहार करना हमारे अधिकार क्षेत्र में है।
ये आजकल जैसी हरकतें हो रही हैं धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, समूहों के बीच प्रतिद्वंद्विता के नाम पर…. कहाँ ले जा रही हैं खींचकर? समाज के महत्वपूर्ण अंग अर्थात् स्त्रियों को ‘देवी’ की उपाधि से विभूषित करने वाले लोगों,कुछ तो सोचो,कुछ तो बोलो ,मुँह तो खोलो ! क्या नपुंसक होने के हस्ताक्षर कर दिए हैं?
इस चुप्पी से कुछ हासिल न कर सकोगे, प्रेम की बात तो छोड़ो, जिंदा रहने की खलिश से भी हरारत ही मिलेगी। घटना चाहे कहीं की भी हो, जाति तो मनुष्य ही है। आज वहाँ, कल यहाँ —कारण और समय अथवा वातावरण बदलने से कुछ न होगा। सोच बदलनी होगी –समझना होगा कि हमारा स्टेशन कभी भी आ सकता है। हम कर क्या रहे हैं? यह सब केवल तभी और तभी बंद होगा जब मनुष्य बनेंगे अन्यथा —-
व्यथित है मन, स्नेह की बाती जलाने वाले मन ,प्रेम की व्याख्या को हर पल नवल रूप देने वाले मन में गहरी पीड़ा है, कसक है और है एक प्रार्थना कि ज़रा पलड़े में तोलकर देखें स्वयं को —
‘सबको सम्मति दे भगवान’ की अभ्यर्थना से प्रेम,स्नेह ,दुलार को पुकारने का करती हूँ प्रयास/ ज़िंदगी तो बनी रहे, सबके आस-पास।