गर्व करो कि, “भारत कृषि प्रधान देश है” यह पेड मीडिया भारत की कमजोरी को छुपाने के लिये यह टर्म्स करोड़ों बार बोलकर, छापकर भरती रही है। असल में प्रश्न यह होना चाहिए कि “भारत कृषि प्रधान देश क्यों है?” यदि हम इस प्रश्न को स्वयं से पूछे तो एक ही जवाब/कारण मिलेगा कि “भारत में औद्योगिक कारखाने, कंपनियाँ आदि नहीं हैं इसलिए मज़बूरी में खेती करते है यदि उन्हें बेहतर अवसर मिले तो 90% लोग खेती त्याग देंगे”।
भारत की 60 प्रतिशत उपजाऊ भूमि होने के बावजूद और 35 प्रतिशत प्राकृतिक रूप से सिंचित है। याद रखें कि भारत क्षेत्रफल के हिसाब से 7 वां सबसे बड़ा देश है और इजरायल 150 वें स्थान पर है। फिर भी हमारे किसान पीड़ित हैं क्योंकि भारत में कृषि सुधार सरकारी घोषणापत्र का सिर्फ एक स्थायी हिस्सा है। किसी को भी वास्तव में किसानों की परवाह नहीं है।
आज कोई किसान बनना नहीं चाहता। सब के सब आईटी कंपनी की ओर, बड़े-बड़े शहरों की ओर अपना रुझान कर रहे हैं। पैसों का असमान वितरण हो गया है हमारे देश में जो अमीर है वह बहुत ज्यादा अमीर है और जो गरीब है वह इतना गरीब है कि मत पूछो। भारत मे गरीबी बहुत ज्यादा है। भारत सरकार द्वारा अनेक योजनाएं चलाई गई पर गरीबी को कम नही किया जा सका, और बढ़ने लगी। भारत मे अनेक धर्मगुरु, महंत है जो यह दावा करते हैं कि भाग्य में जो लिखा है वही होगा अर्थात जिसके भाग्य में धन नहीं वह कुछ भी कर ले निर्धन ही रहेगा।
आज भी हमारे देश हिंदुस्तान की 50% आबादी अपनी आजीविका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि या उससे संबंधित अन्य उपक्रमों से अर्जित करती है। जब देश आजाद हुआ था (वर्ष 1947) तब मूलरूप से देश की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित थी। उस समय कृषि का योगदान भारतीय अर्थव्यवस्था में 50 % से भी ज्यादा था। उंन दिनों वर्षा आधारित खेती होती थी, यही कारण था कि भारतीय कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता था। कभी सूखा एवं कभी बाढ़, कभी-कभी तो दोनों का एक साथ आना एक सामान्य बात थी। ज्ञात हो कि वर्ष 1950 में जितना हम खाद्यान्न उत्पादन करते थे (50 मिलियन टन) आज हम उतना अपने सुरक्षित भंडारण में रखते है।
जब भी कृषि की बात होती है, तब देश में कृषि जगत में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाले एम.एस.स्वामीनाथन का नाम उभरता है। छठवें और सातवें दशक में लोगों की आम शिकायत हुआ करती कि विदेशी गेहूं खाने से गला छिल सा गया है। वह उस वक्त के गेहूं की क्वालिटी से असंतुष्ट रहा करते। उनमें यह फीलिंग हुआ करती कि इसमें सुधार कब होगा और हम अच्छी कोटि का गेहूं कब खा पाएंगे। कृषि प्रधान देश होते हुए भी खेती में वह नज़रिया नहीं था जिससे कि फसल की गुणवत्ता और उसके गुणों में सुधार आ सके। इस दर्द को कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन भली भांति जानते।
ध्यान देने वाली बात है कि वह स्वयं खेती से कोसों दूर थे। वह यू.पी.एस.सी. की परीक्षा मे बैठे और आई.पी.एस. के लिये उत्तीर्ण हो गये। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद कई सालों से लोग भुखमरी की कंगाल स्थिति में छटपटा रहे थे जो उनसे देखा नही जाता। अपने देश के किसानों को खुशहाल बनाने के लिये वे प्रतिबद्ध रहे। इसी कमिटमेंट के चलते आई.पी.एस के चयन को त्याग कर उन्होंने कृषि की ओर अपना ध्यान, मन और पढ़ाई में लगाया। उस समय देश की प्राथमिकता अपनी इकोनॉमी में सुधार ला कर लाखों लोगों को भुखमरी से मुक्ति दिलवाना था।
उन्होंने इसे अपनी ज़िंदगी का मिशन बनाया और उसी शिक्षा को अपने कैरियर के लिये चुना जो सदियों से कृषि जगत में व्याप्त प्राचीन तकनीक को बदल कर अर्थव्यवस्था में रफ्तार ला सके और बढ़ती जनसंख्या के भोजन से संबंधित डिमांड को पूरा कर उस समय के कुशाग्र इस विद्यार्थी ने एक्सेप्ट किया और इस अनसुलझी समस्या से भिड गये। गौर कीजिये उनका शस्त्र केवल उनकी शिक्षा था। जिसकी पटरी को उन्होंने देश हित में बदला। यह उनकी सनक थी कि वह देश के किसानों की तकदीर को बदलेंगे।
इसे अपने जीवन का लक्ष्य बना वे इस मुहिम में जुट गये। इस तथ्य से वह परिचित थे कि मौसम की कृपा पर चलने वाला यह कारोबार जोखिमों और तरह तरह की बाधाओं व सामाजिक धारणाओं से जूझ रहा है। अपने अन्नदाता के साथ खड़े होने और उनकी स्थितियों में बदलाव लाने वाले वह पहले एग्रीकल्चर साइंटिस्ट रहे जिसने कृषकों का संबंध वैज्ञानिक तकनीक से जोडा।
वन मैन आर्मी की मानिंद उस पूरे परिदृश्य को बदलने के वास्ते उन्होंने नयी तकनीक का आविष्कार किया। आलू पर अपने रिसर्च के कार्य को छोड चावल पर शोध करने लगे। चावल की जापानी और भारतीय किस्मों पर शोध किया। यहां उनकी किस्मत बदली और उन्हे कोशा स्थित इंस्टीट्यूट में नौकरी मिल गयी जहां उन्हे गेहूं पर रिसर्च का काम सौंपा गया जो उस समय बडा जटिल कार्य था। साथ ही साथ वह चावल पर भी शोध के अपने कार्य को करते रहे। उनके सहयोगी इस दुसाध्य कार्य के लिये उन्हें डिस्करेज किया करते थे और कहते कि यह असंभव कार्य है। लेकिन वह अपनी ज़िद पर अड़े। विकिरण के सहयोग से परीक्षण. आरंभ किया और वहीं पर गेहूं की कई किस्मों को विकसित कर उन्होने अपने सहयोगी वैज्ञानिकों की इस परिभाषा को निराधार साबित कर दिया कि एटमी किरणों के सहारे गेहूं पर शोध के कार्य नहीं हो सकते।
संघर्ष और समस्याओं से जूझने की उनकी प्रवृत्ति बचपन से ही रही। जब उनकी आयु 10 वर्ष की थी तब असमय उनके पिता डॉ सांबाशिवम का देहांत हो गया। वह डॉक्टर थे। इस वज्रपात के बावजूद उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। उनके पिता गांधीवादी विचारधारा के अनुयायी थे जिसका प्रभाव उनके जीवन पर भी पडा। त्रावणकोर विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया लेकिन कृषि में और गहन ज्ञान प्राप्त करने के लिये उन्होंने फिर से कोयंबटूर कृषि विश्वविद्यालय से पुनः बी.एस.सी की पढाई की। कृषि में सुधार का उनका सपना अपनी बाल्यावस्था से रहा क्योंकि अपने अन्नदाता किसानों की दयनीय स्थिति को देख कर वह द्रवित रहते। अतः इसकी गहन शिक्षा प्राप्त कर वह यह जानने के लिये आतुर रहते कि किस प्रकार सुधार हो सकता है? सन 1949 में उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान के जेनेटिक्स और प्लांट रीडिंग विभाग में एसोसिएट फेलोशिप मिल गयी अपने अच्छे शोध कार्य से उन्होंने वहां सभी को प्रभावित किया और 1952 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पी एच डी प्राप्त की जिसमें उनके शोध का सब्जेक्ट था “आलू”।
अपने पिता डॉ सांवाशिवम और मां पार्वती ठंगम्मल से उन्होंने यह प्रेरणा पायी कि “असंभव शब्द ही हमारे दिमाग की इच्छाओं को क्रियाशील बनाये रखने में मददगार होता है और हम बड़े से बड़े उद्देश्य को हासिल कर सकते हैं।”
“इतिहास में सन 1943 में बंगाल में अब तक के पड़े सबसे भयंकर अकाल की कारुणिक स्थितियों ने उन पर गहरा आघात किया। जिसमें भारी संख्या में भूख से लोगों की मृत्यु हुई। कहा जाता है कि इस अकाल में लोग दाने-दाने के मोहताज हो गये थे। इस घटना ने उनके युवा मन को इतना द्रवित किया कि उन्होंने चावल और गेहूं की अच्छी किस्म को अपने अनुसंधान से भारी मात्रा में उगाने के तौर तरीकों को खोजने के लिए अपने प्रयासों को और तेज़ किया। तब अंग्रेज़ी हुकूमत के अनाचार और अत्याचार से भी वह रुष्ट रहते (वह यह भी जानते थे कि खेती और मज़दूरी से जुडे लोगों को बड़ी मशक्कत के बाद एक वक्त का खाना नसीब होता है।
एम.एस.स्वामीनाथन वह पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने सबसे पहले गेहूं की श्रेष्ठ किस्म को पहचाना। वह जेनेटिक वैज्ञानिक हैं। मूल रूप से तमिल भाषी इस वैज्ञानिक ने मैक्सिकों के बीजों को, पंजाब की घरेलू किस्मों के साथ मिश्रित किया इससे उच्च उत्पादकता वाले गेहूं के संकर बीज विकसित हुए। उनका यह प्रयोग पूर्णतः सफल सिद्ध हुआ। यह हमारे देश की कृषि के लिये पुनर्जागरण जैसा रहा। इससे न सिर्फ फसल की अच्छी क्वालिटी आयी बल्कि इससे भारी मात्रा में इतना उत्पादन होने लगा कि देश अनाज की पैदावार में आत्मनिर्भर बन गया। भारत की गणना अच्छी कोटि का अन्न पैदा करने वाला देशों में होने लगी। पूरा परिदृश्य बदल गया। कल तक जो अन्न के संदर्भ में अन्य देशों पर निर्भर था वह इस कृषि वैज्ञानिक की सूझबूझ से आत्मनिर्भर ही नहीं बना बल्कि वह दूसरे देशों को अपना अन्न भेजने लगा। इसे गेम चेंजर बनाने का श्रेय प्रसिद्ध एग्रीकल्चर साइंटिस्ट डॉ एम.एस.स्वामीनाथन को जाता है।
डॉ स्वामीनाथन के प्रयत्नों का ही परिणाम है कि भारत की जनसंख्या में प्रतिवर्ष पूरा एक आस्ट्रेलिया समा जाने के बाद भी वह खाद्यान्नों का निर्यात कर रहा है और निरंतर उसके उत्पादन में बढ़ोतरी हो रही है। गेहूँ की पैदावार के मामले में भारत ने जो छलांग भरी, उसकी हर ओर प्रशंसा होती है। अतः डॉ स्वामीनाथन को “हरित क्रांति“ का जनक भी कहा जाता है।
वास्तव में अनाज की उन्नति के लिये बीजों में सुधार की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। जिसे इस कृषि वैज्ञानिक की कौशल पूर्ण प्रज्ञा ने समझा और उसमें जो परिवर्तन किये उसकी सराहना पूरे विश्व में होती है उनकी इस विराट विश्व ख्याति को इसी से समझा जा सकता है कि इस महान वैज्ञानिक को विश्व भर से अभी तक 50 से अधिक डॉक्टरेट की उपाधियाँ मिल चुकी हैं। भारत सरकार द्वारा सन 1967 में पद्म श्री, 1972 में पद्म भूषण और 1989 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। तमिलनाडु के कुंभकोणम में 7 अगस्त 1925 को जन्मे इस महान वैज्ञानिक, शिक्षाविद, प्रशासक, समाज सेवक स्वदेश और कई देशों के कृषि सलाहकार स्वामीनाथन ने 28 सितंबर 2023 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
वे 2007 से 2013 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे और उन्होंने यहां भी खेती-किसानी से जुड़े मुद्दे को उठाया। स्वामीनाथन को 1987 में कृषि के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार कहे जाने वाला प्रथम खाद्य पुरस्कार मिला था।
भारत में कृषि-क्रांति के जनक, विश्व खाद्य पुरस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति, कृषि में नवाचार के ऊर्जाघर एवं कृषि विज्ञानी डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन का देह से विदेह हो जाना एक स्वर्णिम युग की समाप्ति है, एक अपूरणीय क्षति है। भारत को अन्न के अकाल से मुक्त कर अन्न का भंडार बनाने वाले इस कृषि-युगपुरुष के अवदान इतने बहुमुखी हैं कि वे सदियों तक कृतज्ञ राष्ट्र की धमनियों एवं स्मृतियों में जीवित रहेंगे। वे अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गये हैं कि भारतीय कृषि एवं वैश्विक खाद्य के संकट उभरने का नाम नहीं लेंगे। भारत के भाल पर अनूठा एवं विलक्षण करने वाले महान् व्यक्तियों में स्वामीनाथन एक थे। स्वामीनाथन सच्चे भारतीय एवं राष्ट्रीयता से ओतप्रोत व्यक्तित्व थे।