कितनी ही दफ़ा अपने आसपास के कुछ लोगों से हम चाहकर भी कुछ कह नहीं पाते। इसका कारण किसी प्रकार की झिझक या उनसे कोई ईर्ष्या नहीं है बल्कि ऐसा उन समझदार लोगों की अति की चतुराई है, जिसे उन्होंने जब-तब कुछ भी कहने, समझाने पर अधिकतर जताया है कि वे बहुत समझदार हैं उन्हें हम जैसों की तुच्छ बुद्धि वाली समझाइश की कतई भी आवश्यकता नहीं है। भई,गुमान हो भी क्यों ना उन्हें! आखिर वे सब भी खूब पढ़े-लिखे समय के साथ चलते आधुनिक तौर-तरीकों वाले लोग जो हैं जिन्होंने दुनिया देखी भी है और दुनियादारी निभाना भी खूब जानते हैं वे।
वे नहीं जानते तो बस इतनी सी बात कि-अभिभावकों का काम बच्चे को जन्म देना,उसे पढ़ा-लिखा कर बड़ा कर देना, विवाह कर के मुक्ति पा लेना भर नहीं है।
अभिभावक हो जाने का मतलब है आजीवन तपस्वी हो जाना। वह तपस्या जिसके पड़ाव लगातार पार करते जाने पर कोई वर पुरस्कार स्वरूप नहीं मिलता बल्कि अनेकों चुनौतियाँ हर मुहाने पर मुस्तैदी से खड़ी मिलती हैं।
समय के चक्र को यदि आप मानते हैं तो कहना चाहूँगी कि ये घोर कलयुगी दौर है, जिसमें नवजात बालक- बालिका हों, युवक-युवती हों या अधेड़ स्त्री-पुरुष…कोई भी किसी भी विकृत मानसिकता का पीड़ित बन सकता है। ऐसे अमानुषिक उत्पीड़न ना उम्र देखते हैं ना रिश्ते-नाते और ना ही लिंगभेद।
ऐसे में युवा वयस्क तो फिर भी शब्दों-संवादों, बातों, इशारों, छु
ऐसे में सबसे बड़ी व समझदारी भरी भूमिका होती है उन बच्चों के अभिभावकों की। क्योंकि आप ही तो अपने बच्चों के सबसे करीब होते हैं। मेरी नज़र में जिस उम्र तक बालकों को गुड टच-बेड टच का अंतर नहीं समझाया जा सकता तब तक वे शिशु जितने ही आँके जाऐंगे।
शिशु निश्छल प्रेम को भलीभाँति पहचान लेता है लेकिन वह किसी की बदनीयती को भाँप कर भी उसे बोलने या समझाने में असमर्थ रहता है क्योंकि उसके पास उस (कु)कर्म,कुंठित आचरण को व्यक्त करने हेतु शब्द नहीं होते। शिशु कुछ कर सकता है तो बस इतना कि वह अपने चेहरे से,शरीर के हाव-भाव से उस लिजलिजी हरकत या व्यक्ति के प्रति अपनी अभिव्यक्ति को प्रकट कर सकता है कि फलाँ व्यक्ति से वह सहज है या असहज!
पहले ही कह चुकी हूँ कि अभिभावकों की जिम्मेदारी अजीवन तपस्या है। लेकिन यह भी मानें कि यह तप बालक के निमित्त सबसे अग्र, उग्र व सजग रहना चाहिए। यही वह समय सारणी है जिसमें हमें अपने बच्चों की इन्द्रियाँ बनना है। वे नहीं तो कम से कम हम सूँघ सकें उनके समीप का खतरा, हम पढ़ लें उनका अबोला भय। इसके लिए थोड़ा शक्की भी हो जाऐंगे तो बिल्कुल गलत नहीं होगा।
कुंठित या विकृत मानसिकता के गिद्ध जितनी ताक घर से बाहर लगाये रहते हैं उतने ही चील घर के भीतर, गहरी मित्रताओं-पारिवारिक सम्बन्धों व अड़ोस-पड़ोस में भी भरे दिखेंगे अपनी पैनी चोंच लिए हुए।
यह तो मानेंगे आप कि “किसी से मत कहना !” यह वाक्य अपने अंदर एक मानसिक ऊहापोह का भूचाल छुपा के बैठा है और जब इसके आगे जब ‘वरना’ शब्द लग जाता है तो समझ लेना जरूरी है कि मानवता कहीं वीभत्स रूप ले कर बहुत घिनौनी हो गई है ।
सही समझ रहे हैं मैं “बाल यौन उत्पीड़न” की ही बात कर रही हूँ। एशिया में हमारा देश इस घृणात्मक अपराध में दूसरे नंबर पर आ कर नामवरी कर रहा है। हृदय कंपित होने लगता है जब कहीं ओर पास कोई ऐसी घटना सुनाई दे या अखबार खोलते ही कुछ ऐसा दिखाई पड़े। आज आँकड़े महज बालिका तक सीमित नहीं इस अपराध ने बालकों भी अपने शिकंजे में कसा हुआ है।मानसिक प्रवृत्ति इतनी खंड़ित हो चुकी है, किशोरों व युवाओं की सक्रिय आपराधिक गतिविधियों से “बाल सुधार गृहों” की गणना भी बढ़ती ही जा रही है। उम्र के इन पायदानों पर अपराध बोध नितांत शून्य हो चुका होता है। हमारे समाज में कुछ बहुत विकराल कमियाँ हैं, बेढ़ब सोच है कि ‘हमारे बालक सुरक्षित हैं तो हमें क्या?’ छोड़ो,हम क्यों किसी के फटे में टाँग अड़ाऐं?’ चुप बैठो! फालतू कोतवाली, कचहरी के चक्कर में समाज में इज्ज़त का फैलारा फैल जाएगा’!
आखिर कब तक हम ऐसे बेतुके कथनों की आड़ में मुँह छुपाते फिरेंगे?
कब तक अनदेखा करेंगे उस कुत्सित सोच व कर्म के राक्षस को? जब वह निगल लेगा आपके बालकों की मासूमियत,उनका अस्तित्व,उनका बचपन… क्या तब तक?
चलिए, बाहर वाले, अडोस-पडोस के, अनजाने बच्चों की न सही अपने बच्चों का ही विश्लेषण कर लीजिए। सच कहूँ तो आपकी एक प्रतिशत की भी सतर्कता अपने बच्चे समेत कम से कम पाँच बच्चों का जीवन बर्बाद होने से बचा सकती है। आपने जन्म दिया है, पर अब समय देने की बारी है। अति व्यस्तताओं,व्यवसाय-नौकरी या सोशलाइट होने के चलते उन्हें अनदेखा करना घातक सिद्ध हो सकता है। पारिवारिक समारोहों,छुट्टियों में ददिहाल-ननिहाल जाने पर, सामाजिक कार्यक्रमों, विद्यालयों-आवासीय विद्यालयों आदि जगहों पर सम्मिलित होते समय विशेष ध्यान रखें बच्चों के हाव-भाव,क्रियाकलापों पर! कहीं वे किसी से मिलने से चिढ़ तो नहीं रहे। वे कतरा तो नहीं रहे या वे रुँआसे हो जायें या फिर किसी के सामने या आसपास होने पर अजीब सी एंजायटी, कंपन या घृणा के,भय के भाव चेहरे पर आऐं या वे भावशून्य एकदम गूँगे के समान हो जाऐं तो समझना आपको है कि बच्चा बिना बोले भी एक अलार्म दे रहा है। सोचना आपको है कि हँसता-खेलता,खुशी में उछलता बालक अचानक यूँ ही अकारण तो ऐसा रूखा,डरा-सहमा व्यवहार नहीं करेगा?
उसकी आँखों में भय की परछाई को पकड़िए। राक्षस घर के भीतर का हो या बाहर का पहचानना आपको ही होगा।
मुश्किल है मगर नामुमकिन बिल्कुल भी नहीं। कठिन इसलिए है कि बाहर वाले या अनजाने से आप एक अलग स्तर पर निपट सकते हैं, परन्तु घर के भीतर के असुर से निपटने को मानसिक रूप से बहुत गहराई व दृढता संजोनी पड़ेगी। मानसिक तौर पर रिश्तों के आगे झुके होने का, समाज के बीच बात निकल आने के डर का फायदा उठाना ये कुत्सित बुद्धि बखूबी जानते हैं।
धर दबोचिए इन राक्षसों को और बचाइए अपने बच्चों का बचपन,उनका तन,उनका मन।
यही नहीं आप सामाजिक प्राणी हैं व जिम्मेदार भी, तो अपने आसपास के बच्चों पर, उनके केयर टेकर मेल/फीमेल पर निगाह रखें और कुछ भी अनयूजुअल या अनैच्छिक सा महसूस होने पर निगाह पैनी कर के घटना होने के पहले ही संबंधित परिवारों या अभिभावकों को भी सचेत करें।
पैसे नहीं लगते अवेयरनेस बटोरने और फैलाने के आसपास के परिवेश में। अपने बच्चों से दोस्तों की तरह खुल कर विद्यालयीन गतिविधियों पर, रिश्तेदारों, पडोसियों,मित्रों पर खुली-स्वस्थ चर्चा करें व उनके विषय में पूरी जानकारी अपने पास रखें। बालकों के मन की सुनने का समय उन्हें दें। समय-समय पर उन्हें अपने साथ का विश्वास दिलाकर उनसे वार्तालाप में दिलचस्पी दिखाऐं, ताकि वे दिल की बात आपसे खुलकर कर सकें। बच्चों के बौद्धिक स्तर के साथ-साथ मानसिक व शारीरक बदलावों पर भी गौर करें, उनसे मित्र बनकर बातें करें। बालक किसी व्यक्ति विशेष के नाम या आगमन से घबरा तो नहीं रहा? या किसी से मिलने पर कंपकंपा तो नहीं रहा? बहुत सी छोटी-छोटी बातों को नोटिस कर के हम उस अधखिले फूल को टूटने से बचा सकते हैं ।
हम ही अपने बालकों के असुरक्षित भाव को सुरक्षा का कवच पहना सकते हैं।
महज फीस भरने, ट्यूशन लगाने या रिपोर्ट कार्ड देख भर लेने से जिम्मेदारी पूरी नहीं होती। एक बालक के पैदा होने में नौ महीने का वक्त लगता है अगर हम उसे अपना वक्त ही नहीं देंगे तो सभी बाह्य सुविधाऐं बेमानी हैं। वंचित मत रखिये अंगनाई की फुलवारी को अपने कीमती समय व देखभाल से। बगिया हमने उगाई है हमारी है तो देखरेख का जिम्मा भी हमारा ही है। पहले समय दीजिये स्वयं सहज हो कर फिर बालक-बालिकाओं से बात करिये। भूल कर कि आप माता पिता हैं घुल जाइए उनमें, दोस्त बनिये पक्के वाले दोस्त जिस से कुछ भी कहने में बालक कभी कोई झिझक न महसूस करे। अपना समय अपने शैशव को देने से बहुत बड़ी जीवनपर्यन्त पीड़ा देने वाली दुर्घटना टाली जा सकती है। समझाइये उसे एक परिपक्व भरोसे के साथ कि यदि कोई भी कहे-“किसी से मत कहना या माँ पापा को मत बताना” …वही बात वह हमें सबसे पहले आकर बिना किसी भय, झिझक के साझा करें।
बालक हमारे जीवन का आवश्यक अध्याय है, जिसका अध्ययन ही हमारा, उसका व समाज का बेहतर निर्माण कर सकेगा।