आखिरकार पेरिस में हुए 30 वें ग्रीष्म ओलंपिक का, जो 26 जुलाई से 11 अगस्त तक आयोजित हुआ, समापन हो गया और यह आयोजन भी उम्मीद के मुताबिक ही रहा जहाँ रूस के अनुपस्थिति में सबसे प्रबल दो टीमों अमेरिका और चीन के बीच आखिरी दिन तक सिरमौर बनने का दौर चलता रहा और अमेरिका 126 पदक जीतकर फिर से पहले पायदान पर रहा. अमेरिका और चीन दोनों ने बराबर बराबर स्वर्ण पदक (40)जीते लेकिन अमेरिका ज्यादा रजत पदक जीतने के चलते पहले पायदान पर रहा. पिछले ओलंपिक में भी अमेरिका चीन से एक स्वर्ण पदक ज्यादा जीतकर पहले पायदान पर रहा था लेकिन अगली बार भी ऐसा ही होगा, अनुमान लगा पाना मुश्किल है. एथेंस में सन 1896 में हुए पहले ओलंपिक, जिसमें 12 देशों से कुल 280 खिलाड़ियों ने (जो कि सारे पुरुष थे) भाग लिया था, से लेकर इस बार पेरिस में हुए ओलंपिक , जिसमें 206 देशों के कुल 10714 महिला एवं पुरुष खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया, ओलंपिक ने बहुत दूर तक का सफर तंय कर लिया है. पहले ओलंपिक के बाद आजकल दो तरह के ओलंपिक खेल होने लगे हैं जिसे ग्रीष्म ओलंपिक और विंटर ओलंपिक कहते हैं. पेरिस लंदन के बाद दूसरा ही शहर हो गया है जिसने ओलंपिक तीसरी बार आयोजित किया है और 1924 में हुए ओलंपिक के पूरे 100 साल बाद पेरिस ने फिर से ओलंपिक खेल की मेजबानी की है और बखूबी की है. वैसे तो कोई भी आयोजन बिना किसी विवाद के हो सकना नामुमकिन सा ही है और इस बार भी कुछ विवाद इस ओलंपिक के साथ जुड़ गए हैं. लेकिन आयोजन के भव्य स्तर को देखते हुए ये विवाद बहुत मामूली नजर आते हैं.
अब अगर हम हिन्दुस्तान की बात करें तो सबसे पहले हमारे देश ने 1900 में ओलंपिक में भाग लिया था (हालाँकि देश उस समय अंग्रेजी शासन के अधीन था) और नार्मन प्रिचार्ड ने दो रजत पदक जीते थे. स्वतंत्रता के बाद कुश्ती में के डी जाधव ने 1952 में पहला पदक जीता था. कर्णम मल्लेश्वरी पहली महिला खिलाड़ी थी जिसने सन 2000 में पदक जीता था. आज की तारीख में यह कल्पना करना भी मुश्किल लगता है कि हमारा देश पहला एशियाई देश था जिसने ओलंपिक में पदक जीता था और उसके बाद सन 1920 से लगातार हमारा देश ओलंपिक में भाग ले रहा है और आजतक सिर्फ 41 पदक ही जीत पाया है. अब अगर एक और एशियाई देश चीन की ही बात करें तो उसने इस बार 40 स्वर्ण पदक जीते हैं जो हमारे द्वारा कुल जीते गए पदकों से सिर्फ एक ही कम है. अगर हम हॉकी को हटा दें, जिसमें आजतक कुल 13 पदक, जिसमें 8 स्वर्ण पदक भी शामिल हैं, तो बाकी सभी खेलों में आजतक सिर्फ 28 पदक (जिसमें 2 स्वर्ण पदक शामिल हैं) जीते गए हैं. एक ही ओलंपिक में सबसे ज्यादा दो पदक दो बार जीते गए हैं, एक पहली बार 1900 में नॉर्मन प्रिचार्ड ने तो दूसरी बार इस बार यानी 2024 में मनु भाकर और दोनों ही पेरिस में जीते गए हैं. दो अन्य दो पदक जीतने वाले हैं नीरज चोपड़ा, सुशील कुमार और पी वी सिंधु.
आज अगर हम जनसंख्या की बात करें तो हमारा नंबर पहला है और अगर हम इसके बनिस्पत जीते गए पदक को देखें तो बेहद शर्मनाक स्थिति नजर आती है. इसी देश में एक और खेल क्रिकेट के बेहतरीन खिलाड़ी पैदा होते हैं और हमारा देश न सिर्फ कई बार विश्व विजेता बनता है बल्कि हमारे देश में एक साथ कई टीम बनायीं जा सकती है. वहीं हॉकी भले ही हमारा राष्ट्रीय खेल है, लेकिन इसमें हमारी बादशाहत ख़त्म हो गयी है. और एक समय था जब दुनिया में हमारा डंका बजता था, आज हम ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर ही अपने आप को इस तरह गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं गोया हमने ओलंपिक में सबसे ज्यादा पदक जीत लिए हों. मैं हॉकी में लाये गए कांस्य पदक को कमतर नहीं बता रहा हूँ लेकिन क्या हमारा इतना बड़ा देश बस चंद पदक पाकर ही संतुष्ट हो सकता है.
हमारा प्रदर्शन इस ओलंपिक में पिछले ओलंपिक से कमतर रहा है क्योंकि इस बार न सिर्फ हमारे पदक कम आये हैं बल्कि पिछली बार एक स्वर्ण पदक भी हमारे पास था जो इस बार नहीं है. मजे की बात यह भी है कि हमारे पड़ोसी मुल्क ने सिर्फ 7 खिलाड़ियों को भेजकर एक स्वर्ण पदक जीत लिया है जबकि हमने 110 खिलाड़ियों का दल भेजा था. ये भी सच है कि इस बार हमारे खिलाड़ियों के साथ दुर्भाग्य भी जुड़ा जिसके चलते हम एक निश्चित पदक, जो स्वर्ण पदक भी हो सकता था, से वंचित रह गए. बहरहाल एक और पदक मिल भी गया होता तो हमारी स्थिति में कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ना था क्योंकि वैसे भी हमारी स्थिति 71 वीं ही थी.
अगर हम खिलाड़ियों की बात करें तो उनमें से कुछ पहली बार ही ओलंपिक में गए थे लेकिन उसके बाद भी इन्होने पदक जीतकर साबित कर दिया कि अगर मन में दृढ निश्चय हो तो अनुभव नहीं होने पर भी सफलता मिल सकती है. लेकिन कुछ खिलाड़ियों ने दूसरी या तीसरी बार भी इसमें भाग लिया और उम्मीद के हिसाब से प्रदर्शन नहीं कर पाए. जिन्होंने पदक जीता उनका नाम तो सबको पता ही है लेकिन जिनसे पदक की बहुत उम्मीद थी और वो बस एक कदम दूर रह गए उनमें इस ओलंपिक में कई नाम हैं. सबसे पहला नाम पी वी सिंधु का है जिनसे इस बार भी पदक मिलने की सबको उम्मीद थी लेकिन वह नाकाम रहीं. इसी क्रम में नाम आता है निखत जरीन का जिनसे हम लोग स्वर्ण पदक की उम्मीद लगाए बैठे थे. लवलीना बोरहोइन भी पदक की प्रबल दावेदार थीं लेकिन चूक गयीं. लक्ष्य सेन, अदिति अशोक, बलराज पंवार, अर्जुन बबूता, माहेश्वरी चौहान एवं अनंतजीत नरुका, शरथ कमल, मनिका बत्रा, मीराबाई चानू, निशांत देव, सात्विक साईराज एवं चिराग शेट्टी, एच एस प्रनॉय, 4 गुणा 400 मीटर दौड़ की पुरुष टीम, अविनाश साबले, ज्योति यराजी, दीपिका कुमारी, भजन कौर, तीरंदाजी टीम इत्यादि भी पदक के बिलकुल पास आकर चूक गए या उस स्तर का दबाव नहीं झेल पाए. इस सिलसिले में हम विनेश फोगाट की बात नहीं करें तो यह गलत होगा जिन्होंने पहले राउंड में ही विश्व चैंपियन को हराया और उसके बाद दो और खिलाड़ियों को हराने के बाद फाइनल में पहुँच गयीं. जिस तरह का उनका प्रदर्शन था उससे उम्मीद बंधी थी कि विनेश पहला स्वर्ण पदक जीत लेंगी लेकिन अपने साथ के लोगों की नाकामी के चलते वह मात्र 100 ग्राम ज्यादा वजन होने के चलते फाइनल नहीं खेल पाई. कम से कम उनको समय रहते अगर फाइनल से हटा लिया गया होता तो भी रजत पदक मिल ही चुका था लेकिन इतनी बड़ी चूक हुई कि जीता हुआ पदक भी चला गया. भारतीय ओलंपिक संघ को केन्या की ही तरह अपना पक्ष रखना था जिससे कम से कम रजत पदक मिल सके लेकिन कहीं न कहीं कुछ चूक रह गयी.
अब अगर खेलों को प्रोत्साहन देने की बात करें तो कागजों में तो यह खूब हो रहा है लेकिन जमीनी हक़ीक़त पर बात कुछ और ही है. चीन ने, जो पदक तालिका में दूसरे स्थान पर रहा है, अपने देश में खेल के लिए किस कदर मेहनत किया है और कितना पैसा खर्च करता है, यह किसी से छुपा नहीं है. हमारे यहाँ जहाँ साल में 3400 करोड़ रूपये खेल पर खर्च होते हैं, वहीं चीन लगभग 3 लाख करोड़ रुपये खेलों पर खर्च करता है. और इसी का नतीजा है कि वह लगातार पदक तालिका पर दूसरे स्थान पर काबिज है और आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर वह आगे चलकर पहले स्थान पर काबिज हो जाए. हम हर जगह प्रतिभा को उतना महत्त्व नहीं देते हैं, जितना देना चाहिए और राजनीति ने खेलों में हमारी स्थिति को और बदतर बना दिया है. पहले खिलाडी इस लिए भी खेलों में भाग लेते थे कि एशियाई खेलों या ओलंपिक में पदक मिलने पर रेलवे या पुलिस विभाग में नौकरी जरूर मिल जायेगी लेकिन अब तो यह भी बंद हो गया है. हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्य सबसे बेहतर खिलाडी तैयार करते हैं लेकिन सबसे ज्यादा पैसा उन राज्यों को दिया जाता है जहाँ से कोई खिलाड़ी नहीं निकलता.
बहरहाल कुछ उम्मीद की किरण भी नजर आती है, उदाहरण के तौर पर ओडिशा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने जिस तरह हॉकी के लिए काम किया है, उसका नतीजा पिछले दो ओलंपिक से नजर आ रहा है. तमाम कम्पनियाँ भी सामने आ रही हैं और केंद्र तथा राज्य सरकार भी पदक विजेताओं को खूब पुरस्कार राशि प्रदान कर रही है. बस जरुरत है खेलों पर ज्यादा खर्च करने की और बिना राजनीति बेहतर खिलाड़ियों को कम उम्र से ही प्रोत्साहित करने की और फिर शायद हमारे देश जो सबसे युवा देश होने जा रहा है, वह पदकों के मामले में इस तरह शर्मसार नहीं होगा.