कबीर जयंती पर विशेष
कबीरदास पन्द्रहवीं शताब्दी के सबसे शक्तिशाली और प्रभावोत्पादक व्यक्ति थे। वे संयोग से ऐसे युग-संधि के समय उत्पन्न हुए थे, जिसे हम विविध धर्म साधनाओं और मानोभावों का चौराहा मान सकते हैं। वे मुसलमान होकर भी मुसलमान नहीं थें। वे साधु होकर भी साधु अगृहस्थ नहीं थे। वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। वे योगी होकर भी योगी नहीं थें। वे साधुओं का सत्संग भी रखते थे और जुलाहे का काम भी करते थे।
कहा जाता है कि एक रात उस घाट की सीढ़ियों पर जा पड़े जहाँ से रामानन्द जी स्नान करने के लिए उतरा करते थे। स्नान को जाते समय अँधेरे में रामानन्द जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। रामानन्द के मुंख से निकला ‘राम राम कह’। कबीर ने इसी को गुरु मंत्र मान लिया और वे अपने को रामानन्द जी का शिष्य कहने लगे।
कबीर निर्गुण पंथी थे। निर्गुण सन्त, सिद्ध संतों के उत्तराधिकारी थे और सिद्ध संत वर्णाश्रम धर्म के घोर विरोधी रहे थे। वे शास्त्रों के बंधनों से मुक्त स्वाधीन चिंतक वाले पुरुष थे। इसलिए ये धर्म के बाह्य आडम्बरों से घृणा करते थे। कबीर सच्चे सहज मार्गी हुए क्योंकि गृहस्थ जीवन का उन्होंने तिरस्कार नहीं किया, क्योंकि आडम्बर, बाह्ययाचार और लोगों को ठगने की विद्या का उन्होंने आश्रय नहीं लिया और अपना कौटुम्बिक दायित्व निभाते हुए भी उन्होंने अपने को मानवता के ऊँचे नमूनों में परिवर्तित कर दिया। सहज मार्ग कबीर के समय प्रचलित था और उसके निन्दितरूप को भी कबीर जानते थे। इसलिए सहज को व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है-
सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय।
जिन सहजै विषया तजै, सहज कहावै सोय।।
जो कछु आवै सहज में, सोई मीठा जान।
कड़वा लगै नीम सा, जामें एंचातान।।
सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय।
जिन सहजै हरि मिलै, सहज करी जै सोइ।।
इसी प्रकार हठयोग पर राजयोग की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए कबीर दास ने कहा कि-
साधो, सहज समाधि भली,
गुरु प्रताप जा दिन ते लागी, जुग जुग अधिक चली।
जहँ जहँ डोलूँ, सो परिचर्या, जो जो करूँ सो पूजा।
सहजयान के पूर्व के धर्माचार्य सन्यासी हुआ करते थे।
सदियों तक भारत के ऋषियों ने परम् तत्व पाने के लिए इंद्रियों को काबू करने की बात कही। लेकिन 12 शताब्दियों के तजुर्बे ने बता दिया कि इंद्रियों और मन पर काबू करना ढोंग के सिवाय कुछ नहीं है। आदमी, आहार की तरह काम भोगों में भी पशुओं से ज्यादा भिन्न नहीं है। सहजिया सम्प्रदाय केवल बौद्धों तक ही सीमित नहीं रहा अपितु इसकी चपेट में वैष्णव धर्म भी आया।
इस्लाम के साथ जब सूफी धर्म भारत आया तब उसके साथ यह शिक्षा भी आयी कि इश्क-हकीकी तक पहुंचने के लिए इश्क-मजाजी सोपान का काम दे सकता है।
शगल बेहतर है इश्कबाजी का
क्या हकीकी का क्या मजाजी का।।
दादू ने भी इसी परंपरा को आगे ले गए-
पुरुष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग।
जें जें जैसी ताहि सों, खेलें तिस ही रंग।।
सूफीमत में परमेश्वर साकार सौंदर्य है और साधक साकार प्रेम। बाले जिबरील के एक शेर में साधक परमेश्वर से कहता है कि यह भी कैसी विचित्र स्थिति है कि सौंदर्य भी पर्दे के अंदर छिपा बैठा है और प्रेम भी आवरण के पीछे है।
हुस्न भी हो हिजाब में, इश्क भी हो हिजाब में,
या खुद आशकार हो, या मुझे आशकार कर।
कबीर ने प्रेम की बेचैनी और विरह की आतुरता का जो वर्णन किया है, उससे हिंदी साहित्य में एक नई भावुकता जन्मी। उन्होंने परमात्मा को अपना पति मानकर विरह और मिलन की बेचैनी को इस प्रकार व्यक्त किया-
सोवों तो सपने मिलें, जागों तो मन माहिं।
लोचन राता सुधि हरी, बिछुरत कबहुँ नाहिं।
लिखलिखी की है नहीं, देखा देखी बात।
दूल्हा दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।
नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
पलकों की चित डार के, पिया को लिया रिझाय।
चूड़ी पटकों पलंग से, चोली लावों आगि।
जा कारन यह तन धरा, ना सूती गर लागि।
कबीर ने इस्लामी भावुकता से मिश्रित कर जो प्रेम और विरह की धारा चलाई वही आगे चलकर महादेवी वर्मा के मुख से निकली-
अंखियन तो झाईं पड़ी, पंथ निहार निहार।
जिव्हा तो छाला पड़ा, नाम पुकार पुकार।
कै विरहन को मींच दे, कै आपा दिखराय।
आठ पहर को दाझना, मो पै सहा न जाय।।
कबीर , नानक आदि गृहस्थ होते हुए भी उच्च कोटि के धर्माचार्य हुए। दूसरे समाज में जो तू तू मैं मैं चल रही थी उससे भी ये लोग दुखी थे। ये बुद्धदेव द्वारा संशोधित नए धर्म के उग्र प्रतिनिधि थे। दार्शनिकों, पंडितों और धर्माचार्यों के धरातल के नीचे मध्यकाल में जनता के स्तर पर जो धार्मिक चेतना उठी, जो हृदय मंथन हुआ उसका निष्कर्ष धार्मिक एकता के रूप में इन संतों ने किया।
कबीरा यह तो घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुई धरे, जो पइठे इति मांहिं।।
कबीर में एक प्रकार की घर फूँक मस्ती और फक्कड़ाना लापरवाही के भाव मिलते हैं।
कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर फूंके आपना सो चले हमारे साथ।।
कबीर को अपने-आप पर अखण्ड विश्वास था। उन्होंने कभी भी अपने ज्ञान को, अपने गुरू को अपनी साधना को सन्देह की दृष्टि से नहीं देखा।
गुरु गोविन्द दोऊ खडे़ काके लागूं पाँय,
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।।
वे जब पण्डित या शेख पर आक्रमण करने को उद्यत होते हैं तो इस प्रकार पुकारते हैं मानो वे नितान्त नगण्य जीव हो; केवल बाह्यचारों के गट्ठर, केवल कुसंस्कारों के गुड्डे।
साधारण हिन्दू गृहस्थ पर आक्रमण करते समय भी वे लापरवाह रहते हैं। और इस लापरवाही के कारण ही उनके आक्रमण मूलक पदों में एक सहज सरल भाव और एक जीवन्त काव्य मूर्तिमान हो उठा है। यही लापरवाही कबीर के व्यंग्यों की जान है।
पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
ताते यह चाकी भली, पीस खाए संसार।।
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥
कबीर ने बार-बार इस्लाम और हिन्दू दोनों धर्मों के बाह्यचारों का खण्डन किया और बार बार वे जनता का ध्यान इस बात की ओर ले गए कि धर्म का वास्तविक संबंध जिन मूल तत्वों से है, वे तत्व किसी एक धर्म की पूँजी नहीं है। उनका निवास सभी धर्मों में है। इस प्रक्रिया में उन्होंने मूर्तिपूजा और मस्जिद की संस्था पर बड़े गहरे वार किए।
‘पंडित! बद बदौं सो झूठा।
जनेउ पहिरि ब्राह्मण जो होना
मेहरी को क्या पहराया?
वो जनम की सूद्रिन परसे
तू पाँडे क्यों खाया?
सुन्नत करि मुस्लिम जो होना,
औरत को क्या कहिए?
अरध सरीरी नारि बखानी,
ताते हिन्दु रहिए?
कबीरदास ऐसे ही मिलन बिन्दु पर खड़े थे, जहाँ से एक ओर हिन्दुत्व निकल जाता है और दूसरी ओर इस्लाम। जहाँ एक ओर ज्ञान निकल जाता है दूसरी ओर अशिक्षा। जहाँ एक ओर योग मार्ग निकल जाता है, दूसरी ओर भक्तिमार्ग। जहाँ से एक ओर निर्गुण भावना निकल जाती है दूसरी ओर सगुण साधना। डसी प्रशस्त चौराहे पर वे खडे़ थे। वे दोनों ओर देख सकते थे और परस्पर विरूद्ध दिशा में गए मार्गों के दोष-गुण उन्हें स्पष्ट दिखाई दे जाते थे।
इस प्रकार कबीर मुख्य रूप से निर्गुण भक्त थे। वे उन निरर्थक आचारों को व्यर्थ समझते थे, जो असली बात को ढंक देते है और झुठी बातों को प्राधान्य देते हैं। वे सच्चे अर्थों में ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होंने भारतीय समाज में वैचारिक जड़ता के खिलाफ एक जन आंदोलन चलाया और यही मत प्रतिपादित किया कि मन, वचन और कर्म से शुद्ध महामानव ईश्वर के पीछे नहीं बल्कि ईश्वर उनके पीछे भागता है-
मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पीछे पीछे हरि फिरें, कहत कबीर कबीर।।