आशारानी व्होरा का जन्म अविभाजित हिन्दुस्तान के जिला झेलम की तहसील चकवाल ग्राम दुलह में 7 अप्रैल 1921को हुआ था। इनकी मृत्यु 21 दिसंबर 2008 को हुई थी। उनका वास्तविक नाम शकुन्तला था। इन्होनें समाजशास्त्र में एम.ए. एवं हिंदी प्रभाकर की उपाधि प्राप्त की थी। व्होरा जी ने 1946 से 1964 तक महिला प्रशिक्षण तथा समाज-सेवा के क्षेत्रों में सक्रिय रहने के बाद स्वतंत्र लेखन किया। हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छपती थी ।आशा जी की चार हजार से ज्यादा रचनाएँ और नब्बे पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उन्होंनें समाज सेवा के साथ स्वतन्त्र पत्रकारिता, लेखन-कार्य,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के करीब 40 विशेषांकों का संयोजन-सम्पादन किया है। महिला-विषयक,व्यावहारिक समाज-शास्त्र, स्वास्थ्य, किशोरोपयोगी, संस्मरण-साक्षात्कार, बालोपयोगी, काव्य-संग्रह जैसे विविध विषयों पर बहुत बड़ी संख्या में पुस्तकों की रचना की है।
आशा जी के 5 काव्य संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे जो अपने समय में काफी चर्चित हुए थे इसकी प्रति आज अनुपलब्ध है। आशा जी के सम्पूर्ण रचना संसार का विस्तृत परिचय आशारानी व्होरा एक सार्थक रचना यात्रा (संपादक विष्णु प्रभाकर) पुस्तक से प्राप्त होता है। आशा जी के संदर्भ में सूर्या (स्मारिका -८, संपादक रामशरण गौड) में मृदुला सिन्हा का लेख “अवसान एक कलमजीवी लेखनी का” से उनके साहित्यिक जीवन के योगदान के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उनकी अहम भूमिका का परिचय मिलता है मृदुला सिन्हा जो गोवा की राज्यपाल थी और प्रसिद्ध साहित्यकार थी उनके मित्रों में शामिल थी। पद्मश्री शीला झुनझुन के अनुसार आशा जी एक संस्था थीं ,वह कुशल संगठन कर्ता एवं संचालक भी थी।
आशा जी ‘रचना पुरस्कार’ कलकत्ता; ‘अंबिकाप्रसाद दिव्य पुरस्कार’ भोपाल; ‘कृति पुरस्कार’ हिंदी अकादमी, दिल्ली; ‘साहित्य भूषण सम्मान’ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ; ‘गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार’ केंद्रीय हिंदी संस्थान (मानव संसाधन विकास मंत्रालय) से सम्मानित और हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की सर्वोच्च उपाधि ‘साहित्य वाचस्पति’ से पुरस्कृत केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा एवं हिंदी अकादमी दिल्ली की सदस्य भी रहीं थी।1964 में पत्रिका सरिता के संपादकीय में भी रही हैं। साप्ताहिक हिंदुस्तान कादम्बिनी हिंदुस्तान दैनिक जागरण, स्वदेश, पंजाब केसरी और अमर उजाला जैसे पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होते थे।
इन्होंने नन्हे बच्चों के लिए अंकुर शिशु संस्कार संस्थान केंद्र ‘,पल्लव बाल भवन (नर्सरी) व बाल पुस्तकालय की स्थापना की। महिला रक्षा समिति (1946), महिला शिल्प कला केन्द्र (1947) सूर्या संस्थान 1992 जैसी संस्थाओं को अपने साहसिक कार्य के माध्यम से स्त्री और साहित्य की उन्नति की। आशा जी के सूर्या संस्थान को स्थापित करने का उद्देश्य अनुवाद, प्रशिक्षण,भाषा गोष्ठियों का आयोजन है जिसमें विभिन्न भाषाओं के लेखक एकत्रित होकर अपने विषयों की चर्चा करते हैं। उन्होंने एक शोध पुस्तकालय भी चलाया था जिससे हिन्दी साहित्य की प्रगति हो।
अपने लेखन साहित्य में उन्होंने सर्वाधिक लेखन स्त्री के संदर्भ में किया है। उनकी प्रमुख पुस्तकों में स्वतंत्रता सेनानी लेखिकाएं, सुनो किशोरी, क्रांतिकारी किशोरी नारी शोषण आईने और आयाम, नारी कलाकार, भारत की प्रथम महिलाएं, किशोरियों का विकास, भारत की अग्रणी महिलाएं, नोबेल पुरस्कार प्राप्त महिलाएं, भारत सेवी महिलाएं, विश्वविख्यात महिलाएं आधुनिक समाज में स्त्री महिलाएं और स्वराज औरत कल आज और कल इत्यादि हैं। इसके अतिरिक्त क्रांतिकारी किशोर, स्वतंत्रता सेनानी लेखक पत्रकार पुस्तकों के साथ अनेक बाल साहित्य का सृजन आशा जी ने किया है। भारत की प्रथम महिला क्रांतिकारी भीकाजी कामा पर उनका लेख काफी चर्चित रहा है। आशा जी कामा जी के द्वारा संपादित व प्रकाशित वंदे मातरम पत्र के साथ ही भारतीय तिरंगे तिरंगा झंडा का नमूना बनाने की रोचक कहानी बताती हैं।
महिलाएं और स्वराज पुस्तक प्रकाशन विभाग दिल्ली से प्रकाशित है। इस पुस्तक में सात खंड हैं जिसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की संपूर्ण पृष्ठभूमि महत्वपूर्ण घटनाएं और प्रमुख महिला स्वाधीनता सेनानीयों का विस्तृत विवेचन इस पुस्तक में किया गया है। रानी गिलगु, तारा रानी श्रीवास्तव, सरला देवी, मृणालिनी, सुशीला दीदी इत्यादि अनेक ऐसी स्त्री स्वतंत्रता सेनानी है जिन के संदर्भ में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है उनसे परिचित कराया क्या है। पुस्तक में गांधी से पूर्व स्वाधीनता आंदोलन के साथ ही गांधी के पश्चात हुए विभिन्न आंदोलनों में स्त्री सहभागिता को व्यापक तौर पर रेखांकित किया गया है।
अपनी पुस्तक स्वतंत्रता सेनानी लेखिकाएं में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली हिंदी की स्त्री रचनाकारों का वर्णन किया है। सुभद्रा कुमारी चौहान, सरोजिनी नायडू इत्यादि के स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग के लिए प्रेरक परिस्थितियों का वर्णन के साथ ही उनके काव्य से भी परिचित कराया है। विद्यावती कोकिल के संदर्भ में वह कहती हैं कि —–” विद्यावती कोकिल अपनी किशोरावस्था से ही गांधीजी के प्रभाव में आकर राष्ट्रीय गीत, कविताएँ लिखने लगी थीं। उन दिनों का कोई कवि सम्मेलन यदि उनके गीतों के बिना सूना रहता था तो स्वतंत्रता-संग्राम के सभा-मंच भी उनकी ओजस्वी राष्ट्रीय कविताओं के बिना अधूरे समझे जाते थे ।” 1921 में गांधीजी को गिरफ्तारी पर सुशीला दीदी द्वारा लिखा गया पंजाबी गीत “गया ब्याहन आजादी लड़ा भारत दा डोली से घर आसी लड़ा – भारत दा” का उल्लेख करते हुए वह सुशीला से पाठकों को परिचित कराती हैं सुशीला के साहित्य और उनके देश प्रेम से लोग अनजान ही हैं।
आशारानी व्होरा ने अपनी कृति सुनो किशोरी में लेखन की नवीनतम पत्र-शैली में किशोर वय के विशेष प्रशिक्षण के लिए किशोरियों के साथ उनके स्तर पर संवाद स्थापित किया है। सुनो किशोरी महाराष्ट्र बोर्ड मुंबई के कक्षा 12 के पाठ्यक्रम में शामिल है। किशोरी की शंकाओं, प्रश्नों एवं दुश्चिंताओं का समाधान एक माँ, एक अंतरंग सहेली और मार्ग-निर्देशिका के रूप में किया गया है। किशोरियों के हृदय में झाँककर, मित्रवत् उन्हें विश्वास में लेकर उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय का बोध कराया है। यह पुस्तक किशोरियों को उनकी देखभाल, सुरक्षा तथा जीवनोपयोगी शिक्षा देने के साथ ही उनका भरपूर मार्गदर्शन भी करती है तथा उनमें निर्णय लेने की क्षमता को भी बढ़ाती है।
आशा जी की सभी रचनाएँ उनके गहन अध्ययन का प्रमाण देती हैं। नोबेल पुरस्कृत महिलाएं पुस्तक में आशा जी अपनी स्त्री विषयक विचारधारा को प्रकट करते हुए कहती हैं कि—- “स्त्री परिवार की धुरी है। केंद्र में होने से परिवार उसकी प्राथमिकता है। पुरुषों की तरह वह सबकुछ छोड़-छाड़कर दिन-रात अनुसंधान में, लेखन में या शोध-कार्य में लगी नहीं रह सकती। घर-बच्चों की जिम्मेदारी के बाद कैरियर या अन्य क्षेत्रों के प्रति समर्पण उसके लिए द्वितीय स्थान पर है। इसीलिए कई बार प्रखर प्रतिभाएँ भी अपने विशेष क्षेत्रों में सामने न आकर एक अंतराल के बाद घर की चारदीवारी में ही दम तोड़ देती हैं। न तो सब मदर टेरेसा की तरह तपस्विनी हो सकती हैं, न म्याँमार की आंगसान सूकी की तरह आजीवन क्रांति को समर्पित, न ही विज्ञान में नई खोजों में बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त करनेवाली बारबरा मैकलिनटाक, जरट्रड बी. इलियन, रीटा लेवी मांटेलिसिनी की तरह वैज्ञानिक अनुसंधान के अपने ध्येय की खातिर विवाह न करनेवाली। फिर भी वर्षों लंबी साधना या अनवरत संघर्ष के बाद नोबेल पुरस्कार जैसी बड़ी उपलब्धि प्राप्त करनेवाली इस अल्प संख्या पर भी हमें यों गर्व होना चाहिए कि अनेकानेक बाधाओं के बीच काम करते हुए ही कोई महिला इस उच्चतम शिखर तक पहुँच पाती है।”
इसी प्रकार औरत कल आज और कल पुस्तक में पौराणिक आख्यानों में वर्णित स्त्रियों से लेकर के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तक स्त्रियों के साहस और शौर्य उनके योगदान को पुस्तक में खूबसूरती से समेटा गया है। स्त्रियों की स्थिति पर विचार करते हुए आशा जी अपने गहन शोध को प्रस्तुत करती हैं। वह कहती हैं कि भारत के इतिहास में वैदिक काल की सावित्री जैसी ऋषिकाएं उपनिषद काल की गार्गी मैत्रेयी जैसी विदुशिकाएं मध्यकाल व पूर्व आधुनिक काल की अहिल्याबाई होलकर लक्ष्मीबाई जैसी वीर स्त्रियां अपना गौरवपूर्ण स्थान रखती है, पर सामान स्त्री का इतिहास इससे अलग रहा है। प्राचीन काल की अधिकार संपन्न भारतीय नारी मध्य काल के बाद 19वीं शताब्दी तक आते-आते लगभग पूरी तरह अधिकार विहीन व परनिर्भर हो चुकी थी परंतु स्वतंत्रता पूर्व नवजागरण काल से स्थिति बदलने लगी थी। आजादी की लड़ाई और सामाजिक सुधारों में बराबर की हिस्सेदारी से भारतीय स्त्री को स्वतंत्र भारत के संविधान में बराबरी के वैधानिक अधिकार मिल गए। उन्नत कहे जाने वाले पश्चिमी देशों की स्त्रियों के लिए जिन्हें पुरुष प्रतिद्वंदिता में पढ़कर अपने वोट के अधिकार के लिए भी घोर अपमान सहते हुए 80 वर्ष लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। यह एक आश्चर्यजनक घटना थी और भारतीय महिलाओं की अभूतपूर्व सफलता इसलिए कि हमारे यहां स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए अलग संघर्ष नहीं करना पड़ा। नवजागरण काल के सामाजिक सुधार हो या अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम भारतीय स्त्रियों ने अपनी लड़ाई पुरुषों की अगुवाई में उनके साथ सहयोग से उनके कंधे से कंधा मिलाकर लड़ी थी, इसलिए किसी भी क्षेत्र में उतरने के लिए उन्होंने मार्ग की बाधाओं को आसानी से पार किया। देश की आजादी के तुरंत बाद उन्हें मिले बराबरी के अधिकार इस लड़ाई के प्रतिफल स्वरूप थे।
नारी शोषण पुस्तक में आशा जी सीमोन द बोउवा (द सेकंड सेक्स) और आई बेट्टी फाइडन की फेमिनिन मिस्टिक या नारी रहस्य पुस्तक का उल्लेख किया है जो तत्कालीन समय में उभरने वाले महिला आंदोलनों की अध्ययनशीलता को प्रदर्शित करता है। पुस्तक में उन्होंने दोनों पुस्तकों पर व्यापक चर्चा की है। 1972 में यू पोटगीज लैटस पुर्तगाल की टीम लेखिकाओं,ब्रिटेन की एना कोट, मैरा बेल मागन की पुस्तक द टोटल वूमेन, मेरी वाल स्टोन की पुस्तक स्त्रियों के अधिकार का औचित्य, फ़्रेंच में गिजेल हलिमी जैसे पुरूषों ने औरत का मुकदमा पुस्तक लिखकर स्त्री स्वतंत्र में अपना योगदान दिया था। इन सबके संदर्भ में आशा जी व्यापक रूप से चर्चा करती हैं। इन चर्चाओं को पढ़कर के उनके गहन शोध व अध्ययन का एक छोटा सा अनुमान को लगाया ही जा सकता है आशा जी के पुस्तकों की सूची को देख करके उनकी समकालीन जागरूकता स्त्री उत्थान की चिंता अपने आप व्यक्त होती है।
स्त्री स्वतंत्रता के संदर्भ में आशा जी ने कहा कि हमारा मुक्ति आंदोलन पश्चिम के विमेन लीव की नकल नहीं हो सकता है। स्त्री की स्वतंत्रता की पक्षधर आशा जी अपने बोर्ड लेखन के कारण तत्कालीन समय में काफी चर्चित रही। वह साफ शब्दों में कहती हैं कि —–“नीर भरी दुख की बदली या अबला जीवन हाय वाले मूल्य बदलने हैं तो नारी को अपने आप में भी शिक्षित बनना होगा और पुरुष की शक्ति बनकर दिखाना होगा। सफलता तभी मिलती है जब समय को बदलने का संकल्प लेकर चला जाए।”
विभिन्न आलोचनात्मक एवं शोधपरक पुस्तकों के अतिरिक्त आशा जी ने अन्य साहित्य का भी निर्माण किया है। जिसमें संस्मरण साहित्य की उनकी पुस्तक मैं इनसे मिली ने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की थी। इस पुस्तक की प्रसिद्धि के कारण इन्होंने इसका दूसरा भाग भी लेखन कर प्रकाशित कराया था, जिसमें लेखिका ने विभिन्न क्षेत्रों के विशिष्ट व्यक्तियों के संस्मरण लिखे हैं। इसमें माखनलाल चतुर्वेदी, जैनेंद्र कुमार, भवानी प्रसाद मिश्र, क्षेमचंद सुमन, यशपाल जैसे रचनाकारों के संस्मरण साहित्यिक समरसता के साथ उपस्थित किए गए हैं। इसके साथ ही समीक्षा के पुट भी इस पुस्तक में दिखाई देते हैं। किशोरियों का मानसिक विकास पुस्तक में लोना, लता, लता की मां जैसे पात्रों के माध्यम से भारतीय स्त्रियों की समस्याओं को कथात्मक ढंग से पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। जीवनी परक साहित्य की बात करें तो भीकाजी कामा, लक्ष्मीबाई इत्यादि की जीवनीयों को रोचक व तथ्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त बाल साहित्य के क्षेत्र में भी आशा जी ने काफी कार्य किया है। उनके बाल रचनाओं में कविता की प्रधानता ज्यादा रही है, जिसे हम इंटरनेट के माध्यम से आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। एक बालगीत का उदाहरण दे रही हूं-
हैया रे हैया …
हैया रे हैया …
कागज़ की मेरी नाव चली,
इस पार चली, उस पार चली
छ्प्पक छैया, छ्प्पक छैया |
हैया रे हैया…
तिर-तिर तिर-तिर तिरती जाती
छप छप छप छप करती जाती
छ्प्पक छैया, छ्प्पक छैया |
हैया रे हैया …
धीरे-धीरे डोले नैया
थप्पक थैया, थप्पक थैया
छ्प्पक छैया, छ्प्पक छैया |
हैया रे हैया …
हैया रे हैया …
अपनी व समय व समाज से संबोधित संवेदी तू तथा प्रति संगठित होती रचनाकार के रूप में आशा जी को लंबे समय तक याद किया जाएगा वर्तमान महानगरी जीवन जब हम परतंत्रता को झेल रहे थे तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही शोषण से मुक्त नहीं हो पा रहे थे कामुक का पलायन और महानगरी जीवन को उत्कृष्ट मानने वाले आशा जी की इन पंक्तियों को पढ़कर सोचने पर अवश्य मजबूर होंगे-
प्रकृति से दूर जाकर
अपार धन कमा कर
हम फिर लौट रहे हैं प्रकृति में
फ़ार्म हाउस संस्कृति में।
आज उनकी जन्म शताब्दी पर हमारा यह कर्तव्य बनता है कि उनके किए गए उत्कृष्ट कार्यों को हम स्मरण करें वह अपने श्रद्धा सुमन शब्दों के माध्यम से अर्पित करें।