जब भी कोई स्त्री स्वयं पर हुए शोषण की बात करती है तो प्रायः लोग कहते हैं कि “जब इतने लंबे समय तक इनका शोषण हो रहा था तो उसी वक़्त आवाज़ क्यों नहीं उठाई?”
कितना आसान है न यह कह देना! पर इसका उत्तर समझना सबके बस की बात नहीं!
सुनिए, स्त्रियों को बोलने में समय लगता है क्योंकि उसके सामने पहले उसका परिवार आता है। उससे जुड़े लोग आते हैं। वह जानती है कि ये समाज उसे जीने नहीं देगा और परिवार की उम्र ताने सुनते कटेगी। घर से बाहर निकलना बंद हो जाएगा।
जान लीजिए कि जिसे आप मुँह बिचकाकर अनदेखा कर जाते हैं, उपहास उड़ाते हैं, वह बहुत ही हिम्मत और साहस का काम है। आपको नहीं पता कि इस हादसे को दुनिया के सामने लाने से पहले वह अपने-आप से कितना लड़ी होगी। कितनी ही बार टूटकर बिखरी होगी और फिर खुद ही खुद को संभाला होगा। बोलते समय न जाने कितनी बार गला रुँधा होगा, शब्द अटके रहे होंगे।
यह आम स्त्री की कहानी है। इसलिए इसका उत्तर पाने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं। अपने घर की स्त्रियों से पूछिए। दो साल की छोटी बच्ची से लेकर आँखों में मोतियाबिंद लिए वानप्रस्थ में प्रवेश करती स्त्री से पूछिए कि क्या कभी उनका शोषण हुआ है? उनकी आँखों की शर्मिंदगी और चेहरे का उड़ा रंग आपके होश उड़ा देगा। आपके पैरों तले जमीन खिसक जाएगी, आप कहीं डूबकर मर जाना चाहेंगे जब वो कहेगी कि “घर की इज़्ज़त की खातिर मैं चुप रही।”
वो वर्षों पुरानी घटना और उसके ज़ख्म अब भी उसके ज़हन में उतने ही ताजा हैं जितना ताजा आपका यह सवाल है। कभी सोचा है कि कहीं जाने के लिए वह एक साथ क्यों तलाश करती है? बाहर स्वयं अकेले जाने से या बेटी को भेजने से क्यों डरती है? कभी उसकी आँखों में तैरते भय को पढ़ सके हैं आप? कभी सोचा कि एक दर्द को छुपाकर जीना और उसके साथ मुस्कुराते हुए रहना क्या होता है?
वह कहती नहीं तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह कहना नहीं चाहती, बल्कि इसलिए नहीं कहती कि आपसे बर्दाश्त न हो सकेगा। वह अपनी पीड़ा को सहन करते हुए इस बात की चिंता अधिक करती है कि आपकी ये नाक, जिसकी लंबाई स्त्री की देह और उसके लुटने के अनुपात पर निर्भर है, कहीं कट न जाए!
उसे यह सोचकर भी घबराहट होती है कि फिर उसका परिवार समाज में जी कैसे सकेगा! कितनी बदनामी होगी! लोग क्या कहेंगे? जिसने इज़्ज़त ‘लूटी’, वह तो शान से घूमेगा क्योंकि पुरुष है। और फिर इज़्ज़त तो स्त्रियों की ही होती है। उसे ही लूटा जाता है, वही दाँव पर लगती है, उसे ही बेचा और खरीदा जाता है। कोई भी युग रहा हो, पवित्रता की परीक्षा में सदा स्त्रियाँ ही बैठाई गईं हैं और पुरुष न्यायाधीश बना इतराया है।
बचपन से ही लड़कियों के दिमाग में कूट-कूटकर भर दिया जाता है कि “तुम ही हमारा मान हो। देखना, कुछ ऊँचनीच न हो जाए वरना हम कहीं के न रहेंगे। इज़्ज़त को बचाने का भार भी उसी पर है। क्योंकि हर हाल में उसे ही सुनना पड़ता है कि अकेले क्यों गई थी? रात में जाने की क्या जरूरत थी? इतने छोटे कपड़े क्यों पहने? इतना हँस-हँसकर क्यों बात कर रही थी? जी, सही समझे! सारा दोष उसी का है। कुल मिलाकर पीड़िता ही अपराधी है।
दरअसल पितृसत्तात्मक समाज ने बड़ी चतुराई से स्त्रियों को अपनी इज़्ज़त का फॉर्मूला बना लिया। एक ऐसा फॉर्मूला जो अब पूर्णतः स्थापित एवं सिद्ध हो चुका है।
‘तब क्यों चुप थे?’ इस एक वाक्य ने हर अन्याय को justify करने की कोशिश की है। अपने भीतर झाँकिए, आसपास देखिए और समझने का प्रयास कीजिए कि जो स्त्रियाँ शोषण के विरुद्ध लड़ रहीं हैं। क्या समाज उनका साथ दे रहा है? क्या ऊपर तक उनकी आवाज पहुँच रही है? उनकी पीड़ा से कितनों की आँखें नम हुईं हैं? क्या आप उनके साथ हैं? इस पर बात कीजिए। क्योंकि जब इसे समझना सहज, अराजनीतिक और विशुद्ध संवेदनापूर्ण हो जाएगा, समाधान तब ही निकलेगा। उच्च पदों पर बैठे जिन लोगों से उम्मीद है, उनकी चुप्पी हैरान भी करती है। दुख यह भी है कि पुरुष कैसे इतनी सरलता से उसी को दोषी ठहरा देता है जबकि वह स्वयं एक स्त्री से जन्मा है।