(मानवाधिकार दिवस 10 दिसंबर)
मानव अधिकारों की अवधारणा अति प्राचीन है। यह उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव जाति, समाज और राज्य। मानव अधिकारों की धारणा मानव सुख से जुड़ी है। मानव सुख की धारणा बढ़ते-बढ़ते सामाजिक सुख, राष्ट्रीय सुख और अंतर्राष्ट्रीय सुख में परिणत हो गई है। आधुनिक काल में यह माना जाने लगा है कि अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुख-समृद्धि मानव अधिकारों की उपलब्धि और उपभोग पर आधारित है।
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के पूर्व मानव अधिकारों की स्थिति किसी न किसी रूप में थी। प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व ही कुछ लेखकों ने यह मत व्यक्त किया था कि कुछ मूल अधिकार थे, जिन्हें मनुष्य जाति के अधिकार कहते हैं, इन्हें अंतर्राष्ट्रीय विधि व्यक्तियों को गारण्टी करता है चाहे वह किसी राज्य की राष्ट्रीयता वाले हों या राष्ट्रीयता विहीन हों। इन लेखकों के अनुसार यह अधिकार जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता तथा अंतर्विवेक की स्वतन्त्रता आदि थे।
हैरोल्ड लास्की के अनुसार, “अधिकार मानव जीवन की ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना सामान्यतया कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” मानवाधिकार उन अधिकारों को कहते हैं जो मानव को मानव होने के कारण मिलने चाहिए। वे अधिकार व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं।
17वीं सदी की वैज्ञानिक तथा बौद्धिक उपलब्धियों, थामस हाब्स के भौतिकवाद, रेने डिस्काहन के बुद्धिवाद, फ्रांसिस बेकन और जॉन लॉक के अनुभववाद तथा स्पिनोज़ के विचारों से प्राकृतिक विधि ओर विश्वव्यापी व्यवस्था में आस्था को प्रोत्साहन मिला। इस सम्बन्ध में जॉनलॉक का चिन्तन तथा अठारहवीं सदी के दाशनिक मान्टेस्कू वाल्टेयर और जीन जेक्स रूसो के कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 1688 ई० की कान्ति से सम्बद्ध अपने विचारों से जॉन लॉक ने इस बात को सिद्ध कर दिया कि कुछ अधिकार प्रकट रूप से व्यक्ति को मनुष्य होने के कारण उपलब्ध हैं। यह इस कारण है कि प्राकृतिक स्थिति में वे विद्यमान थे। उनमें से प्रमुख हैं, जीवन का अधिकार, स्वतंत्रताका अधिकार ओर सम्पत्ति का अधिकार। सभी मनुष्य प्राकृतिक रूप से समान हैं। 17वीं सदी की वैज्ञानिक तथा बौद्धिक उपलब्धियों, थामस हाब्स के भौतिकवाद, रेने डिस्काहन के बुद्धिवाद, फ्रांसिस बेकन और जॉन लॉक के अनुभववाद तथा स्पिनोज़ के विचारों से प्राकृतिक विधि और विश्वव्यापी व्यवस्था में आस्था को प्रोत्साहन मिला। इस सम्बन्ध में जॉनलॉक का चिन्तन तथा अठारहवीं सदी के दाशनिक मान्टेस्कू वाल्टेयर और जीन जेक्स रूसो के कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 1688 ई० की क्रांति से सम्बद्ध अपने विचारों से जॉन लॉक ने इस बात को सिद्ध कर दिया कि कुछ अधिकार प्रकट रूप से व्यक्ति को मनुष्य होने के कारण उपलब्ध हैं। यह इस कारण है कि प्राकृतिक स्थिति में वे विद्यमान थे। उनमें से प्रमुख हैं, जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार ओर सम्पत्ति का अधिकार। सभी मनुष्य प्राकृतिक रूप से समान हैं।
आधुनिक मानवाधिकार कानून तथा मानवाधिकार की अधिकांश अपेक्षाकृत व्यवस्थाएं समसामयिक इतिहास से संबंध हैं। द ट्वेल्व आर्टिकल्स ऑफ द ब्लैक फॉरेस्ट (1525) को यूरोप में मानवाधिकारों का सर्वप्रथम दस्तावेज माना जाता है। यह जर्मनी के किसान–विद्रोह(Peasants’ War ) स्वाबियन संघ के समक्ष उठाई गईं किसानों की मांग का ही एक हिस्सा है। ब्रिटिश बिल ऑफ राइट्स ने युनाइटेड किंगडम में सिलसिलेवार तरीके से सरकारी दमनकारी कार्रवाइयों को अवैध करार दिया। 1776 में संयुक्त राज्य में और 1789 में फ्रांस में 18वीं शताब्दी के दौरान दो प्रमुख क्रांतियां घटी। जिसके फलस्वरूप क्रमश: संयुक्त राज्य की स्वतंत्रता की घोषणा एवं फ्रांसीसी मनुष्य की मानव तथा नागरिकों केअधिकारों की घोषणा का अभिग्रहण हुआ। इन दोनों क्रांतियों ने ही कुछनिश्चित कानूनी अधिकार की स्थापना की।
सबसे पहले इनकी घोषणा 18 वीं शताब्दी मेंयूनाइटेड स्टेट्स बिल ऑफ राइट्स और फ्रांस में पुरुष एवं नागरिकअधिकार घोषणापत्र में हुईं, हालांकि इनमें से कुछ अधिकार और 1215 केमैग्ना कार्टा में भी दिए गए थे, जो 1689 में इंग्लिश बिल ऑफ राइट्स में व्यक्त किए गए थे|
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र जारी कर प्रथम बार मानवाधिकार व मानव की बुनियादी मुक्ति पर घोषणा की थी। वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र ने हर वर्ष की 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाना तय किया था। 70 वर्ष पहले पारित हुआ विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र एक मील का पत्थर है, जिसने समृद्धि, प्रतिष्ठा व शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के प्रति मानव की आकांक्षा प्रतिबिंबित की है।
भारत में 28 सितम्बर, 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में आया। 12 अक्टूबर, 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया। आयोग के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक के साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं। जैसे बाल मजदूरी, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकार। पूरे विश्व में इस बात को अनुभव किया गया है और इसीलिए मानवीय मूल्यों की अवहेलना होने पर वे सक्रिय हो जाते हैं। इसके लिए हमारे संविधान में भी उल्लेख किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16,17, 19, 20,21, 23, 24, 39, 43,45 देश में मानवाधिकारों की रक्षा करने के सुनिश्चित हैं।
कहने में मानवाधिकार शब्द बहुत बड़ा है। क्योंकि मानवाधिकारों से हर व्यक्ति का हित जुड़ा होता है। मानवाधिकारों की बात तो सभी करते हैं मगर जब मानव को उनके जायज अधिकार देने की बात आती है तो सभी पीछे हटने लगते हैं। कोई भी मानव को उनके अधिकार नहीं देना चाहता है। राजनेता मानव अधिकार की बात जोरशोर से करते हैं मगर जब देने की बारी आती है तो पीछे खिसकने लगते हैं। राजनेताओं को पता है कि यदि लोगों को उनके अधिकार मिल गये तो उनकी नेतागिरी बन्द हो जायेगी। हमारे देश के संविधान में मानव को बहुत सारे अधिकार दिये गये हैं मगर उन पर अमल नहीं हो पाता है। मानव अधिकारों की रक्षा के लिये बनाये गये कानून महज कागजों में सिमट कर रह जाते हैं।
इस दुनिया में जो भी मानव जन्म लेता है उसके साथ उसके कुछ अधिकार भी वजूद में आते हैं। कुछ अधिकार हमें परिवार देता है तो कुछ समाज, कुछ अधिकार हमारा मुल्क देता है, तो कुछ दुनिया। लेकिन आज भी दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो या तो अपने अधिकारों से अंजान है या उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। कभी जात के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर, कभी लिंग भेदभाव के जरिए तो कभी रंगभेद नीति को अपनाकर लोगों के इन अधिकारों को कुचला जा रहा है। हर तबके, हर शहर और दुनिया के कोने-कोने में किसी न किसी वजह से लोगों को बराबरी के हक से महरूम रखने का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
इन्हीं इंसानी अधिकारों को पहचान देने और वजूद को अस्तित्व में लाने के लिए, अधिकारों के लिए जारी हर लड़ाई को ताकत देने के लिए हर साल मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। पूरी दुनिया में मानवता के खिलाफ हो रहे जुल्मों-सिंतम को रोकने, उसके खिलाफ संघर्ष को नई परवाज देने में इस दिवस की महत्वपूर्ण भूमिका है। हर शख्स को बराबरी का अधिकार देना लोकतंत्र का अहम घटक है। यही वजह हैकि आज ज्यादातर सरकार इस अधिकार को कायम करने की कोशिश कर रही है। इंसानी अधिकार हमारे अस्तित्व और दुनिया में आत्मसम्मान से रहने की गारंटी होते हैं। हमारी भौतिक और आत्मिक सुरक्षा बरकरार रखते हुए लगातार तरक्की में अहम होते हैं। इसके अंतर्गत भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, शोषण से रक्षा का अधिकार, प्रवास का अधिकार, बाल शोषण, उत्पीडपर रोक, महिला हिंसा, असमानता, धार्मिक हिंसा पर रोक जैसे कई मजबूत कानून बनाए गए हैं। यही वजह है कि हर लोकतांत्रिक देश मानवाधिकार अधिकारों की सशक्त पैरवी करते नजर आते हैं।
मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाये गए और उनको लागू करना या करवाने के लिए प्रयास भी हो रहे हैं। लेकिन वह सिर्फ कागजी दस्तावेज बन कर रह गए हैं। समाज में होने वाले इसके उल्लंघन के प्रति अगर मानव ही जागरूक नहीं है तो फिर इनका औचित्य क्या है? देखे तो पता चलेगा कि कितने मानवाधिकारों का हनन मानव के द्वारा ही किया जा रहा है। मानव के द्वारा मानव के दर्द को पहचानने और महसूस करने के लिए किसी खास दिन की जरूरत नहीं होती है। अगर हमारे मन में मानवता है ही नहीं तो फिर हम साल में पचासों दिन ये मानवाधिकार का झंडा उठा कर घूमते रहें, कुछ भी नहीं किया जा सकता है। ये तो वो जज्बा है जो हर इंसान के दिल में हमेशा ही बना रहता है बशर्तें कि वह इंसान संवेदनशील हो।
देश के विशाल आकार व विविधता तथा सम्प्रभुता सम्पन्न धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा, तथा एकभूतपूर्व औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है। भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी अंतर्भुक्त है। संविधान की धाराओं में बोलने की आजादी के साथ-साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका का विभाजन तथा देश के अन्दर एवं बाहर आने-जाने की भी आजादी दी गई है। भारतीय परिदृश्य में यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल है, कि क्या वाकई में मनुष्य के लिए चिन्हित किये गए मानवाधिकारों की सार्थकता है।
सरकार भी मानवाधिकारों का हनन रोक पाने में पूर्णतया सफल नहीं हो पा रही है। देश में आये दिन मानवाधिकार हनन की घटनायें घटित होती रहती है। मगर सरकारी स्तर पर सख्त कार्यवाही अमल में नहीं लायी जाती है, जिससे भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृति पर रोक लग सके। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि तमाम प्रादेशिक,राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय सरकारी और गैर सरकारी मानवाधिकार संगठनों के बावजूद मानवाधिकारों का लगातार हनन होता रहता है।
वेद में समानता के अधिकार को बहुत सुचारु रूप से प्रस्तुत किया गया है। ऋग्वेद का सम्पूर्ण सांमनस् सूक्त (10/91/4)समानता का ही विधान करता है। जिसमें ऋषि कहता है कि सबका हृदय समान हो, सबका मन एक समान हो अर्थात् परस्पर किसी प्रकार का वैमत्य न हो-
“समानी वः आकृति समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥”
अथर्ववेद भी उपर्युक्त बात को ही पुष्ट करते हुए किसी के मन में किसी के प्रति कोई द्वेष न हो इस प्रकार का सन्देश देता है।
“सहृदयं सांमनस्यमविद्विषं कृणोमि वः।
अन्योषन्यमभीहर्यत वत्सं जातिमिवाघ्या॥”
वैचारिक दृष्टि से भी सभी मनुष्यों में समानता होनी चाहिए अर्थात्पारस्परिक विद्वेष के जितने भी कारण हैं उनका नाश करके पारस्परिक सौहार्द्रतापूर्वक जीवन-यापन में सभी को प्रवृत्त होना चाहिए। सभी प्रकार के कार्यों पर सबका समान अधिकार है अर्थात् कोई भी व्यक्ति स्वेच्छानुरूप इच्छित कार्य का चुनाव कर सकता है इसलिए कोई भी कार्य जाति, लिंग, वर्ण आदि के आधारपर मनमाने तरीके से किसी पर प्रत्यारोपित नहीं किया जाना चाहिए।
चारो वेदों में परोक्ष या अपरोक्ष रूप में अधिकार और कर्त्तव्यों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। वेदों को मौलिक अधिकारों के आदिस्रोत के रूप में प्रतिपादित करते हुए न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर कहते हैं कि-“मानवाधिकारों की संकल्पना पश्चिम की देन है क्योंकि अधिकारों की क्रान्ति का आरम्भ वर्तमान युग में ही दिखाई देता है, फिर भी समानता, सहयोग और सहकारिता के सिद्धान्त के जनक वेदों में मानवाधिकार की धारणा स्वाभाविक रूप से देखी जा सकती है।” न्यायमूर्ति भगवती भी उक्त मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि “ये मूल अधिकार वैदिक काल से इस देश के लोगों द्वारा संजोए आधारभूत मूल्यों का निरूपण करते हैं और व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करने तथा ऐसी दशाएँ उत्पन्न करने के लिए उपयुक्त हैं जिनमें प्रत्येक मानव अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास कर सकता है।” इस प्रकार मानवाधिकार व्यक्तित्व के विकास की मौलिक आवश्यकता है। मानव में यदि मानवता नहीं है तो वह मानव कहलाने का अधिकारी नहीं है। तभी वेद ने ‘मनुर्भव’का सन्देश दिया। एक-दूसरे के साथ मानवतापूर्ण व्यवहार की आकांक्षा ही मानवाधिकार है।