भारत चिरकाल से ही महापुरुषों का देश रहा है जिन्होंने एक बेहतर समाज के निर्माण करने में अपना मूलभूत योगदान दिया है। यह समाज न जाने कितने सारे कुप्रथाओं से भरा हुआ है। आये दिन हम समाज में दहेज जैसे कुप्रथा पर बात करते है, हम सभी चाहते है समाज में से दहेज प्रथा का अंत होना चाहिए, पर दहेज के साथ साथ तलाक जैसे मामला भी बढ़ रहा है, शायद कुछ दिनों में ये भी कुप्रथा की श्रेणी में आ जाएगा। भारतीय संस्कृति की बात करें तो इसमें कहीं भी तलाक जैसी चीजों का वर्णन नहीं किया गया है लेकिन दुर्भाग्य से शायद हमने वेस्टर्न कल्चर को एडॉप्ट लिया है।
भारत में तलाक के मामला बहुत तेजी से बढ़ रहे है, शहरों के साथ साथ गांव में भी ये बढ़ने लगे है। इनके कारणों की बात करें तो अनगिनत हो सकते हैं पर जो भी हो ये समाज के दृष्टिकोण से सही नहीं हो रहा है हम सभी एक सामाजिक प्राणी है, अर्थात हमारे अंदर भावनाएं भरी हुई है, हम सही गलत में फर्क कर सकते है, लेकिन भागदौड़ भरी जिंदगी में हमारे पास ये सोचने का वक्त ही कहाँ बचता है, शायद इसलिए रिश्तों के बंधन इतना कमजोर होते जा रहे है।
भारत में 80 प्रतिशत आबादी हिंदुओं की है, हिन्दू धर्म के अनुसार विवाह एक समझौता न होकर सोलह संस्कारों में से एक है, विवाह सामाजिक के साथ धार्मिक संस्कार भी है, यह जन्म जन्मांतरों का संबंध है, इन धारणाओं के चलते विवाह का टूटना अपने देश में एक अभिशाप और कलंक माना जाता है।
दरअसल शादी करना यानि एक संस्थान स्थापित करना। शादी केवल दो लोगों का मेल नहीं है। ये एक खानदान की नींव रखना होता है। और जैसा की मैंने कहा कि शादी का अर्थ है एक संस्थान स्थापित करना, तो किसी संस्थान का प्रमुख कोई एक ही हो सकता है, बाकी लोग जो संस्थान में हैं वो उसके अंतर्गत रहेंगे। कुछ लोगों को मेरी बात से असहमति हो सकता है लेकिन अगर इसे हम निष्पक्ष होकर सही से समझने की कोशिश करेंगे तो बात समझ में आ जाएगी।
भारतीय समाज और संस्कृति एक बहुत ही सभ्य समाज रहा है हमेशा से, यहाँ रिश्तों की क़द्र पश्चिमी संस्कृति से कहीं अधिक होती है बल्कि ये कहना गलत नहीं होगा की इनका आपस में को मेल ही नहीं है। एक लड़की के जीवन का सबसे अहम पड़ाव होता है जब वो पत्नी बनती है। जीवन के सपने संजोने के लिये ही नहीं वरन जब वो कमर कसती है, जिम्मेदारी उठाती है एक परिवार के सुख- दुख की भागीदार बनने की। एक चुटकी सिंदूर की ताकत इतनी होती है ना कि कल की अल्हड़ लड़की संजीदगी का वृक्ष बन जाती है।
यदि मुट्ठी भर लड़कियों को आज भी छोड़ दिया जाए ना तो परिवार नाम की संस्था जीवित इन्हीं के वजह से है। अब तो अधिकांश पढ़ी लिखी होती हैं। कभी सोचा है हमने जीवन के 25-27 साल तक ऐसी लड़कियाँ स्वतन्त्र होती हैं, इनका अपना समाज होता है, बाहर नौकरी करती हैं, पढ़ती हैं और अचानक से वह खुद को घर में कैद कर देती हैं.. किसके लिये? हम-आप कह सकते हैं परिवार के लिये ही तो कर रही। बिल्कुल- पर एक बार मनोविज्ञान समझियेगा किसी बीमार सास ससुर की सेवा टहल या अपने बच्चे के उचित परवरिश के लिये घर को चुनने वाली ये लड़कियाँ बच्चों के 5-6 साल तक के होते होते या सास ससुर के ठीक होते कितने खाली समय से भर जाती हैं? सोचा है कभी इन्हें कैसा महसूस होता होगा। नहीं सोचा होगा.. जरूरत ही क्या है.. है ना।
बदलते जमाने के साथ-साथ लोग जिंदगी को खुल कर जीना चाहते हैं और इसके लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं करना चाहते हैं। जहां कुछ लोग तलाक के बाद आगे जिंदगी … में खुशी-खुशी आगे बढ़ जाते हैं वहीं कुछ लोग घबराहट में या जल्दबाजी में तलाक ले लेते हैं जिसे लेकर उन्हें हमेशा अफसोस होता है।
यह सच है कि टकराव का कारण धैर्य की कमी और अहं होता है और इसी कारण कई बार तलाक की नौबत आ जाती है। यह भी कि वैश्वीकरण, आर्थिक उदारीकरण और सामाजिक-नैतिक मूल्यों में आए बदलाव के कारण महिलाओं की सोच बदली है। अपने अधिकारों के प्रति भी वे जागरूक हुई हैं। और अब अपनी गरिमा से वे घटिया समझौता नहीं करना चाहतीं। पति परमेश्वर और सात जन्मों के साथ जैसे जुमले अब उन्हें रास नहीं आते। अपने स्वतंत्र अस्तित्व, करियर और गरिमा को बनाए रखने के प्रति वे सजग हैं। पर इसका अर्थ यह कतई नहीं कि वे पति के साथ रहना नहीं चाहतीं। वे दाम्पत्य तो चाहती हैं, पर अत्याचार सह कर नहीं। सच्ची सहभागिता तभी संभव है जब एक-दूसरे के प्रति प्रेम व विश्वास हो।
बढ़ते भौतिकवाद, लड़के-लड़कियों में भेदभाव, आसमान छूती महत्वाकांक्षाओं और तनावपूर्ण पेशेवर जिंदगी ने मनुष्य को स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया है। पति-पत्नी की एक-दूसर से उम्मीदें बढ़ गई हैं। जब उन्हें लगता है कि उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हो रहीं तो वे धैर्य रखने व एक-दूसरे को समझने की बजाय तलाक लेना बेहतर समझते हैं। अब प्यार और विवाह की परिभाषा बदल गई है।
अधिकांश दंपती आपसी संबंधों की गरमाहट को भूल कर एक अनजानी खुशी की तलाश में भटक रहे हैं। कई बार तो विवाह के कुछ समय बाद ही पति-पत्नी के बीच मनमुटाव शुरू हो जाता है। ऐसे-ऐसे किस्से सामने आते हैं कि लगता है विवाह का मकसद पत्नी को नीचा दिखाना या फिर पैसा हड़पना था। पहले बात ढंक दी जाती थी, पर अब वह असंभव है। यही वजह है कि अब शादी के नाम पर पढ़ी-लिखी युवतियों के मन में अनजाना भय भी घर करने लगा है। परिचित और करीबी रिश्तेदार भी पहले की तरह रिश्ते कराने में कतराने लगे हैं। शादी दो परिवारों का संबंध न रहकर लेन-देन का व्यवसाय बन जाए और परस्पर प्रेम और विश्वास का स्थान शक और अहं ले ले तो हर चीज पैसे से तौली जाने लगती है और तब टूट बढ़ती है।
यह स्वीकार करने की बजाय आज भी कुछ लोगों का मानना है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर ही परिवार यूं टूट रहे हैं और टकराव बढ़ रहा है। अक्सर दहेज कानून के लड़की वालों द्वारा दुरुपयोग का आरोप भी लगता है। कानून के दुरुपयोग की बात कुछ हद तक सच मानी जा सकती है, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि ज्यादातर लड़कियों के लिए इस कानून ने कवच का काम किया है।
भारत में अब तलाक लेना आम बात इसलिए हो गई है क्योंकि लड़के और लड़कियों, दोनों के विचारों में बहुत अंतर आ गया है। शादी की उम्र भी अब पहले से बढ़ गई है। अब पढ़ने और नौकरी करने के चक्कर में इतनी आयु हो जाती है कि उनका व्यक्तित्व पूरी तरह से विकसित हो चुका होता है और वे अपने विचारों के अनुसार ही जीना पसंद करते हैं।
आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में भी स्वयं नौकरी करने के कारण लड़कियां भी अब आत्मनिर्भर हो गई हैं और पति पर निर्भर नहीं है। इसीलिए वे पति के अनुसार चलना नहीं चाहती हैं। वे सोचती हैं कि अपना पालन पोषण करने में समर्थ हैं। उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है। पतियों को भी लगता है कि बाजार में सब उपलब्ध है। वे किसी भी मामले में पत्नी पर निर्भर नहीं है। यह भी टकराव का एक कारण बनता जा रहा है।
अब एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है जिसके कारण आज के युवाओं में अकेले रहने की प्रवृत्ति बढ़ गई है। वह किसी की कोई बात या परिवार का दखल अंदाज करना बिल्कुल सहन नहीं कर पाते और उसको तलाक का मुद्दा बना लेते हैं। कभी-कभी कुछ पति-पत्नी के परिवार वाले भी ऐसे मिल जाते हैं, जो उन को समझाने के बजाय दूसरे पक्ष के प्रति उकसाते ही हैं, जिसकी परिणति फिर तलाक होती है। ऐसे में यदि समझदारी से काम लिया जाए तो बहुत से मामले बिना तलाक के भी सुलझ सकते हैं पर ऐसा होता नहीं है। इन्हीं सब कारणों से भारत में जहां की संस्कृति में तलाक शब्द ही नहीं था वहां तलाक के मामले आम होते जा रहे हैं।
भारत में शादियां टूटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। पति-पत्नी में झगड़े के कारण पिछले एक दशक में देश भर में तलाक दर तीन गुना हो गई है। दिल्ली को तो तलाक की राजधानी कहा जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते दो दशकों में भारत में तलाक के मामले दोगुने बढ़ गए हैं। इस कारण देश में सिंगल मदर यानी अकेली माओं की तादाद भी बढ़ रही है। विवाह संस्था पर मंडरा रहे इस संकट से चिंतित अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन रक्षक ने तो चेतावनी दे दी है कि अगर समय रहते इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो तलाक के मामले में भारत विश्व का अग्रणी देश बन जाएगा।
तलाक एक छोटा सा शब्द है, जो जीवन के मायने बदलने में समर्थ है। भारतीय संस्कृति में, जहां शादी जैसी पवित्र संस्था पर पूरे समाज की नींव टिकी हुई है, वहीं पिछले दो-तीन दिनों से सोशल मीडिया(फेसबुक) पर एक महिला की डिवोर्स की टैग लाइन वाले स्टिकर के घूमते चित्र ने सब को पशोपेश में डाल कर रख दिया है कि इस पर कैसे रिएक्ट किया जाना चाहिए। जिस समाज में सदियों तक नारी को दोयम दर्जे की समझ कर उसका शोषण किया जाता रहा हो, वहाँ अवांछित रिश्तों की कैद से छूटने की खुशी मनाती उस महिला की कुछ तस्वीरें हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर रही हैं।
अत्याधुनिक जीवन शैली के चलते आज परिवारों का विघटन पहले से अधिक तेजी से होता साफ़ दिखाई दे रहा है। निस्संदेह कोई भी रिश्ता आपसी समझदारी, प्रेम प्यार और विश्वास पर टिका है और अगर रिश्तों में उसकी कमी है, तो जिन्दगी नर्क बन जाती है। बेशक आज तक बहुत से जोड़े हमारे समाज में ऐसे रिश्तों को जबरन ढोते ही दिखाई दे जाते हैं। पर आज अधिकतर नौकरी वगैरह के चलते बहुत से शादीशुदा जोड़े पहले से ही परिवारों से अलग रह रहे हैं और जो संयुक्त परिवारों में रह भी रहे हैं, वहां ज्यादातर मामलों में पूरी आजादी के साथ युवा पीढ़ी रह रही है क्योंकि आजकल बच्चे बड़ों की दखलअंदाजी ज्यादा बर्दाश्त नहीं करते। आजकल युवा लड़कियां भी नौकरी के चलते आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने लगी है, अपने निर्णय स्वयं लेने के लिए काफी हद तक स्वतंत्र हैं। दूसरी तरफ विवाहेत्तर रिश्तों की बात करें, तो यह बीमारी दोनों तरफ ही रिश्ते को खोखला करने में सक्षम है। अब ऐसे में तलाक के कारण का विश्लेषण किए बिना किसी भी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी ही होगी।
ये हो, हल्ला और हंगामा का विषय नहीं है। जब शादी, जन्मदिन एनीवर्सरी फ़लाना-ढिमकाना हमारे सुख और दुःख के गवाह सोशल मीडिया बन रहे हैं। तो तलाक़/आज़ादी का जश्न अगर दिखाया और मनाया जा रहा है तो इसकी स्वीकार्यता होनी चाहिये। इतना तो बनता है। चाहे वो महिला करे या पुरुष। इसे जेंडर वाइज देखना या इसकी आलोचना / ट्रोल करना गलत है।
रही बात उत्सव (सेलिब्रेशन) की, तो क्या यह कहीं से भी तर्कसंगत दिखाई दे रहा है? इस रिश्ते के टूटने की व्यथा क्या सिर्फ एक पक्ष झेल रहा है, यह हम कैसे कह सकते हैं? क्या यह संभावना नहीं कि कहीं कहीं पर लड़कियां अपनी हावी होने की प्रवृत्ति के चलते परिवार में सामंजस्य नहीं बिठा पाई हो? क्या ऐसा नहीं होता कि इस तलाक का दंश पूरा परिवार या फिर उनके बच्चे भी झेल रहे हों। यह चित्र सिर्फ एक प्रतीक है कि हमारी आने वाली पीढ़ियां किस गर्त में जाने वाली हैं। कुछ मामलों में बेशक लड़कियां अपने रिश्तों से छूटने के बाद सच में चैन की साँस ले भी रही होंगी, पर क्या कोई रिश्ता इतना सरल होता है छोड़ देना? और इसमें शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना कई बार दोनों ही वर्ग झेल रहे होते हैं। कहीं यह चित्र हमें एक गलत दिशा में नहीं खींच रहा कि रिश्तों को तोड़ना अब चुटकी बजाने जैसा सरल है और आए दिन ऐसे ढेरों चित्र सोशल मीडिया पर हमारी सामाजिक और पारिवारिक रीढ़ की हड्डी को झुका नेस्तनाबूद कर देंगे?