अन्धविश्वास ऐसा विषय नहीं है जिसे पुरुष या स्त्री जैसे खानों में बांटकर देखा जाएँ। एक सामान्य समझ के अनुसार पुरुष जितने अन्धविश्वासी होते हैं स्त्रियाँ भी उतनी ही अन्धविश्वासी होती हैं लेकिन इस पितृसत्तात्मक समाज में यह बात प्रचारित कर दी गई है कि स्त्रियाँ कम पढ़ी लिखी होती हैं, कर्मकांड और परम्पराओं को अधिक मानती हैं, पाखंडी बाबाओं के चक्कर में अधिक फँसती हैं इसलिए वे अधिक अन्धविश्वासी होती हैं। इस लेख में हम इसी बात की पड़ताल करेंगे৷
इतिहास में हमें एक ऐसे समय के बारे में ज्ञात है जब शिकारी और अनाज संग्रहण की अवस्था से होते हुए मनुष्य कृषि अवस्था तक आया था। कृषि की खोज स्त्रियों ने ही की थी यह बात अब निर्विवाद है। पुरुष जब शिकार खेलने चला जाता था और स्त्री गर्भावस्था में अथवा बच्चों की देखभाल के लिए घर पर ही रहती थी৷ तब उसने पृथ्वी में बीज बोना प्रारम्भ किया, तत्पश्चात हल की खोज हुई और पुरुष ने कृषि में उसे सहयोग देना प्रारम्भ किया।
कालांतर में आदिम मनुष्य के जीवन में धर्म तथा ईश्वर की धारणा ने प्रवेश किया फलस्वरूप उसके जीवन में विश्वास के साथ कर्मकांड और देवी देवताओं को प्रसन्न करने की विविध विधियाँ भी जुड़ती गईं। मनुष्य ने जीने का तरीका सीखा, विभिन्न विधि विधान उसके जीवन में प्रारंभ हुए जिन्हें उसने संस्कारों का नाम दिया।
पितृसत्तात्मक समाज की विडम्बना यह है कि मनुष्य के अच्छे संस्कारों का श्रेय पिता को दिया जाता है लेकिन संस्कार अच्छे न होने का ज़िम्मेदार माता को ठहराया जाता है। विवाहित स्त्रियों को अक्सर ससुराल में इस बात का सामना करना पड़ता है। अंधविश्वासों के लिए भी सामान्यतः यह माना जाता है कि बच्चों के भीतर अन्धविश्वास के संस्कार डालने में माँ का योगदान होता है। अंधविश्वासों का सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से हमारे मस्तिष्क से ही होता है। बचपन में अधिकांश समय बच्चे माँ के साथ बिताते हैं जो उनकी ब्रेन ट्रेनिंग करती है।
यह एक सामान्य दृश्य है कि बच्चे के रोने पर माँ पहले तो उसे समझाती है, प्रलोभन देती है फिर उसे चुप करने के लिए एक तमाचा जड़ देती है और कहती है “अब रोया तो अँधेरे में फेंक दूँगी।‘’ या “ तुझे भूत ले जायेगा” “’चुप हो जा ! देख ! अंधेरे में भूत है! कमरे में बन्द कर दूंगी! शैतान है वहाँ! भूत से पकड़वा दूंगी! भूत बहुत मारेगा तुझे!” फिर वह बच्चा जीवन भर अँधेरे का अर्थ भय, पाप,बुराई, भूत-प्रेत और बुरी शक्तियों से जोड़ता है। वह यही समझता है कि सारे बुरे काम अँधेरे में होते हैं, सब अपराध अँधेरे में होते हैं। अँधेरा होते ही बच्चों को घर लौटने को कहा जाता है। लड़कियों के लिए तो अँधेरे को लेकर और भी बंधन हैं।
यहाँ मैं माताओं का उदाहरण इसलिए दे रहा हूँ कि हमारे भारतीय परिवारों में अधिकांश समय मातायें ही बच्चों की देखभाल करती हैं और उनकी देखभाल करते हुए ही उन्हें अपने रोज़मर्रा के काम निपटाने होते हैं। यद्यपि उनके बच्चों में केवल लडके ही नहीं बल्कि लड़कियाँ भी होती हैं। उनके कोमल मन पर इस बात का असर अधिक होता है। फिर वे अत्याचार से बचने के लिए ईश्वर और अंधविश्वास का आलंबन लेते हैं।
हमारी अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के पास ऐसे अनेक प्रकरण आते हैं जिनमें बताया जाता है कि फलां फलां गाँव में एक स्त्री को भूत आते हैं, किसी पर देवी आती है, किसी को शंकर जी ने अग्निबाण मारा है, किसी किसी में तो हनुमान जी भी आ जाते हैं। समिति द्वारा जाँच करने पर यह पाया गया कि इसका प्रमुख कारण उनकी मानसिक समस्या होती है। सामान्यतः घर में अथवा ससुराल में स्त्रियों को पितृसत्ता के कारण प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है जिस वज़ह से उनका तनाव बढ़ जाता है और वे अवसाद, स्कीज़ोफ्रेनिया, हिस्टीरिया जैसी मनोकायिक बीमारियों से ग्रसित हो जाती हैं। इन सभी बीमारियों के विभिन्न लक्षण शरीर पर दिखाई देते हैं जो भूतबाधा जैसे लक्षणों से मिलते हैं। सामान्य जन इन लक्षणों के बारे में जानकारी के अभाव में अथवा अपने बचपन से अपने अवचेतन में स्थित भूत प्रेत आदि की अवधारणा के कारण इन्हें भूतबाधा मान लेते हैं৷
कुछ स्त्रियाँ बचपन से ही वरिष्ठ लोगों द्वारा प्राप्त ज्ञान की वैज्ञानिक चेतना के अनुसार विश्लेषण करती हैं अतः उन्हें यह बात भलीभांति ज्ञात होती है कि शरीर में भूत प्रेत आना, देवी देवता आना, जैसी कोई बात नहीं होती। लेकिन वे सामान्य जनों के अज्ञान का लाभ उठाती हैं और सास ससुर, जेठ जेठानी जैसे घर के किसी सदस्य या समाज के किसी व्यक्ति द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर शरीर में भूत आ जाने या देवी देवता आ जाने का अभिनय भी करती हैं। इसका लाभ यह होता है कि उन्हें सताना बंद कर दिया जाता है। कई बार तो उनकी पूजा भी होने लगती है৷
भूत-प्रेत बाधा जैसे अन्धविश्वास के कुछ मामले ऐसे भी होते हैं जिनमे किसी गाँव में घर पर पत्थर गिरते हैं , कहीं अपने आप घर के कपड़ों में या बिस्तर में आग लग जाती है,कहीं घर में रसोई में मल मूत्र पाया जाता है।सामान्यतः लोग समझते हैं कि ऐसा किसी शैतानी हरकत द्वारा या किसी दैवीय प्रकोप के कारण हो रहा है। हमारी समिति द्वारा ऐसे सैकड़ों प्रकरणों की पड़ताल की गई और हर केस में यह पाया गया कि उसमे किसी न किसी मनुष्य का ही हाथ है ৷
इस तरह के परेशान करने वाले काम सामान्यतः घर के ही किसी सदस्य द्वारा लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिये किये जाते हैं। जैसे दो बहनों में यदि एक को माता पिता द्वारा अधिक प्यार दिया जाता है और दूसरी को कम तो वह दूसरी बहन इस स्थिति में वह स्वयं को अपमानित महसूस करने लगती है और बहुत चालाकी और सतर्कता के साथ ऐसे काम करने लगती है जिससे लोगों का ध्यान आकर्षित हो। बेटों को सामान्यतः इन बातों की चिंता नहीं होती इसलिए स्त्रियों की संख्या ही इसमें अधिक होती है। समिति ने ऐसे कई प्रकरण उजागर किये और माता पिता या समाज द्वारा बच्चों की उपेक्षा किये जाने की ओर उनका ध्यान आकर्षित करवाया৷
महिलाओं को अधिक अन्धविश्वासी समझा जाने का एक और कारण पाखंडी बाबाओं द्वारा उनका शोषण किया जाना है।अपने बचपन की मान्यताओं के कारण साधू संतों, बाबाओं, फकीरों आदि में विश्वास करने वाली महिलाएं अपनी समस्याएँ लेकर उनके पास जाती हैं। इनमें संतान न होना, सास ससुर या पति द्वारा बाँझ कहकर प्रताड़ित किया जाना, पति का अन्य किसी स्त्री पर आसक्त होना, बच्चों का पढ़ने में मन न लगना, घर में ठीक ठाक कमाई न होना जैसे कारण प्रमुख होते हैं। पाखंडी बाबा शोषण का मनोविज्ञान भलीभांति जानते हैं और ऐसी स्त्रियों का आर्थिक व दैहिक शोषण करते हैं ৷
हम अक्सर देखते हैं कि ऐसे पाखंडी बाबाओं के आश्रम में या डेरे पर नब्बे प्रतिशत स्त्रियाँ ही जाती हैं। स्त्रियाँ भावुक और संवेदनशील होती हैं। यह पाखंडी बाबा जानते हैं कि उन्हें जीवन दर्शन की अबूझ बातों, पुराणों में लिखे किस्सों, धर्म के आलंबन में पितृसता द्वारा स्त्री के लिए गए बनाये गए पति की सेवा करने जैसे नियमों और धार्मिक ग्रंथों में दिए गए दृष्टान्तों के आधार पर बहलाया जा सकता है। पुरुषवर्ग इस कारण को नहीं देखता और स्त्रियों को अन्धविश्वासी मान लेता है।
स्त्रियों को अन्धविश्वासी मान लेने के पीछे उनका नजर लगने पर नज़र उतारना, झाड़ फूंक करवाना जैसे कामो में विश्वास करना भी होता है। प्रत्येक घर में बच्चों की बीमारी संबंधी छोटी मोटी समस्याएँ होती ही हैं जिनमे बच्चे को बुखार आना, सर्दी जुकाम होना, दस्त लगना जैसी बीमारियाँ शामिल हैं। घर के पुरुष अपनी रोजी रोटी में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें इस बात की चिंता ही नहीं रहती कि उनके बच्चे ठीक हैं या बीमार हैं৷ ऐसी स्थिति में माताएं ही उनका इलाज करवाती हैं। अब देश में न पर्याप्त अस्पताल हैं न स्वास्थ्य सुविधाएँ है फिर उनके लिए पैसा भी लगता है अतः ऐसी स्थिति में महिलाएं अपने सामान्य ज्ञान के अनुसार उनकी नज़र उतरवाना, झाड़ फूंक करवाना जैसे कार्य करती हैं। इसके लिए मोहल्ले में ही नीम हकीम,बैगा बाबा जैसे लोग पॅकेज के साथ उपलब्ध रहते हैं। पूर्व की अंधविश्वास से ग्रस्त वरिष्ठ पीढी इन कामों में उनकी मदद करती है।
यदि घर के पुरुष उचित वैज्ञानिक समझ के साथ अपने बच्चों और परिवार जनों की चिकित्सा की ओर ध्यान दें तो इस समस्या से बचा जा सकता है लेकिन वे इस काम में उनकी कोई मदद नहीं करते बल्कि बच्चों की तबियत और बिगड़ने या नुकसान होने पर उसका दोष स्त्रियों पर ही डाल देते हैं৷ ऐसी माताओं को अन्धविश्वासी करार दे दिया जाता है।स्त्रियाँ भी विवशता और बच्चों के मोह में इस आरोप को सहन कर लेती हैं৷
स्त्रियों को केवल इस दोषारोपण से ही नहीं गुजरना पड़ता कि वे स्वयं अन्धविश्वासी हैं और उन्होंने अपने बच्चों में भी अन्धविश्वास के बीज बोये हैं बल्कि वे स्वयं भी अन्धविश्वास का शिकार होती हैं। आज भी अनेक गाँवों में सूखा,बाढ़,भूकंप जैसी आपदा आने, महामारी या बीमारी फ़ैलने, डायरिया,हैजा जैसे रोगों से बच्चों के बीमार होने या अवसाद, सीजोफ्रेनिया या सामूहिक हिस्टीरिया जैसी मनोकायिक बीमारियों से किसी के ग्रस्त होने पर “यह जादू टोना करती है, इसकी नज़र बुरी है, इसीने ऐसा किया होगा “ यह कहकर किसी न किसी स्त्री को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है।
अभी भी अनेक गांवों में षडयंत्र पूर्वक किसी स्त्री पर ऐसे आरोप लगाकर उसे डायन या टोना करने वाली टोनही करार दिया जाता है। ऐसा कहकर उसे न केवल अपमानित किया जाता है बल्कि निर्वस्त्र कर उसका जुलूस निकाला जाता है, उसके मुंह में मूत्र अथवा विष्ठा प्रविष्ट कराई जाती है।
आपको नहीं लगता कि हम एक ऐसे पिछड़े समाज और पिछड़े देश में रह रहे हैं जहाँ स्त्री का सम्मान तो दूर उसके बारे में ऐसी ग़लत अफवाहें फैलाएँ जाती हैं? गांवों में, बस्तियों में आज भी किसी आपदा का ज़िम्मेदार किसी स्त्री को क्यों माना जाता है? ‘नज़र लगाने’ जैसा आरोप तो बिलकुल सामान्य है। आज भी यदि बच्चे बीमार होते हैं तो माताएं कहती हैं ‘पड़ोस की किसी महिला की नजर लग गई है’, अगर घर में कोई सिन्दूर या नीबू पाया जाये या कुछ अनजानी वस्तु दिखे तो उसे किसी पड़ोस की महिला की ही करतूत माना जाता है।
इस धारणा को दूर करने के लिए कि स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में अधिक अन्धविश्वासी होती हैं सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। जब तक स्त्रियों की वैज्ञानिक शिक्षा का समुचित प्रबंध नहीं किया जायेगा तब तक यह संभव नहीं है।यह अवश्य है कि आजकल गांवों में भी अनेक स्कूल खुल गए हैं और लड़कों से अधिक संख्या में लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण कर रही हैं।लेकिन सत्य तो यह है कि वैज्ञानिक चेतना हेतु केवल अकादमिक शिक्षा पर्याप्त नहीं है৷
स्त्रियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने के लिए उन्हें स्कूली शिक्षा के साथ विज्ञान और छद्म विज्ञान में अंतर, मिथक और यथार्थ में अंतर, कहानी और इतिहास में अंतर, चमत्कारों की निरर्थकता , बाबाओं के झूठे किस्सों की वास्तविकता जैसे विषय भी बताने होंगे। उन्हें सामान्य मनोविज्ञान और मनोदैहिक बीमारियों के बारे में जानकारी देनी होगी। उन्हें नए अविष्कारों और उनके वैज्ञानिक आधार के बारे में बताना होगा। उन्हें धर्म के आधार पर नफरत फैलाये जाने के षड़यंत्र के बारे में भी बताना होगा। और यह केवल स्त्रियों के लिए ही नहीं पुरुषों के लिए भी आवश्यक है ৷
जब तक हम स्त्रियों पर दोषारोपण करना नहीं छोड़ेंगे और अंधविश्वास के मामले में स्त्री पुरुष दोनों को बराबर का भागीदार नहीं मानेंगे तब तक हम इस पुरुषवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाएंगे। चाहे हम मंगल ग्रह पर क्यों न पहुँच जाएँ यह देश और समाज पिछड़ा ही रहेगा ৷