जगदीश चन्द्र बोस
“उस समय पर बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेजना हैसियत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बांग्ला विद्यालय में भेजा गया वहां पर मेरे दायीं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम परिचारक का बेटा बैठा करता था और मेरी बाईं ओर एक मछुआरे का बेटा। ये ही मेरे खेल के साथी भी थे। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियों को मैं कान लगाकर सुनता था। शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।” – जगदीश चंद्र बसु
पेड़ पौधों में भी जान होती है इस तथ्य को अपने वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा सिद्ध करने वाले जगदीश चंद्र बसु भारत के महान वैज्ञानिक थे। परतंत्र भारत में जन्म लेने वाले श्री बसु ने कम संसाधनों के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किए और भारत का नाम अंतर्राष्ट्रीय जगत में सम्मान के साथ स्थापित कराया। उनकी द्वारा स्थापित की गई वैज्ञानिक अवधारणाएं एवं वैज्ञानिक आविष्कार उनकी व्यापक प्रतिभा के चिन्ह मात्र हैं।
भारत के संबंध में यह आम धारणा काफी प्रचलित है कि भारत का इतिहास, कला, संस्कृति में बंगाल का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। यहां से राम, लक्ष्मण, परमहंस, स्वामी विवेकानंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे अमर बलिदानी निकले हैं। 30 नवंबर 1858 को जगदीश चंद्र बसु का जन्म उसी विद्वानों की पावन भूमि बंगाल प्रांत में मुशीगंज जिले के विक्रमपुर गांव में हुआ था। यह गांव स्वाधीनता के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश का हिस्सा है। बसु जी के परिवार का अपनी भाषा के प्रति अगाध लगाव था इसलिए परतंत्र भारत में बसु की प्रारंभिक शिक्षा एक बंगाली विद्यालय में ही हुई, उनके पिता का नाम भगवान चंद्र बसु और मां का नाम बामासुंदरी था। उनके पिता का नाम भगवान चंद्र बसु डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। जगदीश चंद्र बसु के परिवार की विशेषता यह थी कि वे जितने ही आधुनिक थे, उतने ही अपने संस्कृति से जुड़ाव भी रखते थे। वे बचपन से ही प्रतिभावान थे। जब वे छोटे थे तब उन्हें तरह-तरह के कीड़े-मकोड़ें और मछलियां पकड़ने का शौक था। उन्हें पानी में रहने वाले सांपों को भी पकड़ने का शौक था। गांव के बाद अध्ययन के लिए जगदीश चन्द्र बसु कलकत्ता के सेंट जेवियर्स कॉलेज गए।
कलकत्ता के प्रेसिडेन्सी कॉलेज में भौतिक विज्ञान पढ़ते हुए जगदीश चन्द्र बोस ने एक वैज्ञानिक बनने का निर्णय लिया। जैविकी से लगाव होते हुए भी जगदीश चन्द्र बसु की रुचि भौतिक विज्ञान में बढ़ने लगी और इसका मुख्य कारण था सेंट जेवियर्स कॉलेज में फादर लैफों के भौतिक विज्ञान के मज़ेदार व्याख्यान। लेकिन दिल ही दिल में जैव विज्ञान के अध्ययन की लालसा भी थी। इसीलिए जब फैसले का समय आया तो इंग्लैण्ड जाते वक्त डॉक्टरी पढ़ने की ही सोची। लंदन में एक ही साल गुज़रा था कि उन्हें बार-बार बुखार आने लगा। अपने प्रोफेसर की सलाह पर उन्होंने डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ कैम्ब्रिज में दाखिला लिया और विज्ञान पढ़ने लगे।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उच्च अध्ययन के दौरान उनके वैज्ञानिक मानस का चौतरफा विकास हुआ। यहां उन्हें दुनिया भर में विज्ञान के क्षेत्र में हो रही नयी खोजों के बारे में जानकारी मिली वहीं उनके स्वयं के दृष्टिकोण का विकास हुआ और उसे कई आयाम मिले। दुनिया के कई महान वैज्ञानिकों से इस दौरान उन्हें मेलजोल का अवसर मिला। महान वैज्ञानिक उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा एवं ज्ञान से प्रभावित हुए जिसके बाद बसु का दुनिया के महान वैज्ञानिकों से आगे सतत संपर्क रहा।
सन 1885 में जगदीश चंद्र जी भारत आए। उन्हें कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति मिली। वे एक वैज्ञानिक होने के साथ नागरिक अधिकारों एवं समानता की बात रखने में पीछे नहीं रहते थे। उन्हें जब कोलकाता में नियुक्ति दी गई तो उनका निर्धारित वेतन से आधा ही तय किया गया जिसका उन्होंने अपने कार्यकाल में कड़ा विरोध किया। वे यूरोपीय और भारतीय प्रोफेसरों के बीच इस तरह के भेदभाव के विरोधी थे। उन्होंने अपने विरोध स्वरूप बिना वेतन के काम किया जिसका व्यापक प्रभाव पड़ा।
घर में पैसे की तंगी होने लगी। अध्ययन और शोधकार्य बिना धन के हो नहीं सकते थे। उनकी पत्नी अबला बसु ने उन्हें अपने सब आभूषण दे दिए और उन्होंने कलकत्ते के महंगे मकान को छोड़कर हुगली नदी के पार चंदन नगर में सस्ते मकान में रहना निश्चित किया। बसु बोले, ‘लेकिन प्रतिदिन कलकत्ता कैसे जाऊंगा? श्रीमती बसु ने सुझाव दिया, ‘आने-जाने के लिए हम अपनी पुरानी नाव की मरम्मत करा लेते हैं।’ बसु ने कहा, ‘प्रतिदिन नाव खेकर थक जाऊंगा, फिर न तो छात्रों को पढ़ाने लायक रहूंगा और न ही शोधकार्य कर सकूंगा।’ श्रीमती बसु हार मानने वाली नहीं थीं। वह बोलीं, ‘ठीक है, आप नाव मत खेना। मैं प्रतिदिन नाव खेकर आपको ले जाऊंगी और ले आऊंगी।’
उस साहसी, दृढ़निश्चयी महिला के कारण जगदीश चन्द्र बसु अपना अध्ययन और शोधकार्य जारी रख सके और विश्वविख्यात वैज्ञानिक बन सके। पति-पत्नी में आपसी सामंजस्य, एक-दूसरे के लिए त्याग, सहयोग तथा जीवन की हर समस्या से साथ मिलकर जूझने की कैसी भावना होनी चाहिए, इसका एक उत्तम उदाहरण श्रीमती बसु ने पेश किया।
जब बोस की ख्याति प्रेसिडेन्सी कॉलेज से निकलकर विदेशों तक फैलने लगी तो अंग्रेजी सरकार को लगा, बोस की बात न मानने से उनकी छवि खराब हो रही है। फलस्वरूप अँग्रेजी सरकार बोस के आगे नरम पड़ी और उनकी सारी शर्ते मान ली गयी, बोस को 3 वर्ष की बकाया तनख्वाह भी दे दी गयी। कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में उन्होंने समानता की बात को विभिन्न मंचों पर उठाया जिससे भेदभाव के वातावरण में पूर्व की तुलना में कमी आती गयी नागरिक अधिकारों की बात करते हुए, छात्रों के बीच अध्यापन करते हुए बसु साहब ने विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर आविष्कार किए।
ऐसी परिस्थितियों में जगदीश चन्द्र बोस ने विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक योगदान दिया। उस समय तक देश में इस तरह का काम किसी ने शुरू तक नहीं किया था। जगदीश चन्द्र बोस का योगदान दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में रहा। पहला उन्होंने बहुत छोटी तरंगें उत्पन्न करने का तरीका दिखाया और दूसरा हेनरिक हर्ट्ज के अभिग्राही को एक उन्नत रूप दिया।
जगदीश चंद्र बोस ने अपने जीवन में फिजिक्स, बायोलॉजी और बॉटनी में कई सफल शोध किए। इटली के वैज्ञानिक गुल्येल्मो माकोर्नी को रेडियो का आविष्कारक माना जाता है, लेकिन बोस पर लिखे गए कई आर्टिकल्स में ये कहा गया है कि उन्होंने माकोर्नी से पहले रेडियो का आविष्कार कर लिया था, पर उन्हें इसका श्रेय नहीं मिला। माकोर्नी ने 1901 में दुनिया के सामने पहली बार वो मॉडल पेश किया था, जिससे अटलांटिक महासागर के पार रेडियो संकेत प्राप्त हुआ था। लेकिन, इससे पहले ही, 1885 में जेसी बोस ने रेडियो तरंगों के बेतार संचार को प्रदर्शित किया था। जगदीश चंद्र बोस अपने इस आविष्कार का पेटेंट हासिल नहीं कर सके और रेडियो के आविष्कार का श्रेय माकोर्नी को मिल गया, जिसके लिए उन्हें 1909 में नोबेल पुरस्कार भी मिला।
बोस अपने आविष्कार को पेटेंट बनाने के विरुद्ध थे। उनका मानना था विज्ञान का अनुसरण या प्रयोग व्यक्तिगत लाभ में नहीं बल्कि नहीं मानवता की भलाई में निहित है। इस सोच के कारण वे अपने आविष्कारों से व्यक्तिगत लाभ नहीं उठाये जाने के पक्षधर थे, लिहाज़ा पेटेंट को अपने नाम पर अनुबंधित न करने का फैसला लिया।
19वीं शताब्दी का अंत होते-होते जगदीश चन्द्र बोस की शोध रुचि विद्युत चुम्बकीय तरंगों से हट कर जीवन के भौतिक पहलुओं की ओर होने लगी, जिसे आज जीव भौतिकी कहते हैं। असल में जीव विज्ञान में उनकी रुचि बचपन से ही थी। इसी कारण बाद में उनका झुकाव जीव भौतिकी की ओर हुआ। 1901 से जगदीश चन्द्र बोस ने पौधों पर विद्युतीय संकेतों के प्रभाव का अध्ययन किया और इस कार्य के लिए जिन पौधों का उन्होंने चयन किया वे थे छुई-मुई और डेसमोडियम गाइरेंस यानी शालपर्णी।
इसके बाद ही जेसी बसु पेड़-पौधों के अध्ययन में लग गए। उन्होंने दुनिया को बताया पेड़-पौधे इंसानों की तरह सांस लेते हैं और दर्द को महसूस कर सकते हैं। उनके इस प्रयोग ने दुनियाभर के वैज्ञानिकों को हैरान करके रख दिया। उन्होंने पौधों की वृद्धि को मापने के लिए ‘क्रेस्कोग्राफ’ का आविष्कार किया था। यह उपकरण पौधे के वृद्धि को स्वतः दस हज़ार गुना बढ़ाकर रिकॉर्ड करने की क्षमता रखता था।
पौधे सीधी रेखा में नहीं बढ़ते। ये टेढ़े मेढ़े बढ़ते हैं। इसलिए इस काले कांच के टुकड़े पर बनी बिन्दुओं की लाइन सीधी नहीं बल्कि टेढ़ी है।
घर्षण को कम करने के लिए आचार्य जगदीश चन्द्र बोस ने कांच के टुकड़े को इस तरह लगाए थे कि वो आगे पीछे और दाएं-बाएं चल सके। उस उपकरण का प्रयोग पौधों पर तापमान, और प्रकाश के प्रभाव के अध्ययन के लिए भी हुआ। उन्होंने पौधे की वृद्धि में ज़हर और विद्युतीय प्रवाह का भी असर देखा।
ऐसे प्रयोग जगदीश चन्द्र बोस ने कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड मे जब दिखाए तो वहां के वैज्ञानिक अचंभित रह गए। क्योंकि दुनिया में कहीं भी किसी ने इससे पहले जीव विज्ञान में ऐसा कार्य नहीं किया था। इस प्रसंग में एक दिलचस्प बात हुई, जब जगदीश चन्द्र बोस ने यह दर्शाना चाहा कि पौधों में हमारी तरह दर्द का एहसास होता है, उन्हें भी तकलीफ होती है, अगर उन्हे काटा जाए और अगर उनमें जहर डाल दिया जाए तो वह मर भी सकते है।
बहुत सारे वैज्ञानिक और जाने माने जन समूह के समक्ष जब जगदीश चन्द्र बोस ने एक पौधे मे ज़हर का एक इंजेक्शन लगाया और कहा कि अभी आप सभी देखेंगे कि इस पौधे की मृत्यु कैसे होती है। जगदीश चन्द्र बोस ने प्रयोग शुरू किया, जहर का इंजेक्शन भी लगाया लेकिन पौधे पर कोई असर नही हुआ। वह परेशान जरूर हुए लेकिन अपना संयम बरतते हुये ये कहा की अगर इस ज़हरीले इंजेक्शन का एक सजीव अर्थात इस पौधे पर कोई असर नही हुआ तो दूसरे जानदार यानि मुझपर भी कोई बुरा प्रभाव नही पड़ेगा। जैसे ही जगदीश चन्द्र बोस खुद को इंजेक्शन लगाने चले तो अचानक दर्शकों में से एक आदमी खड़ा हुआ और उसने कहा ‘मैं अपनी हार मानता हूं मिस्टर जगदीश चन्द्र बोस, मैंने ही जहर की जगह एक मिलते जुलते रंग का पानी डाल दिया था। जगदीश चन्द्र बोस ने फिर से प्रयोग शुरू किया और पौधा सभी के सामने मुरझाने लगा।
पौधों में जगदीश चन्द्र बोस द्वारा रिकॉर्ड किये गए पौधों में वृद्धि की अभिरचना आज आधुनिक विज्ञान के तरीकों से भी सिद्ध हो गई है। पौधों के वृद्धि और अन्य जैविक क्रियाओं पर समय के प्रभाव का अध्ययन जिसकी बुनियाद जे. सी. बोस ने डाली थी, आज क्रोनोबायोलॉजी कही जाती है। क्रोनोबायोलॉजी का विज्ञान जीवों पर विभिन्न प्रकार के जैविक प्रक्रियाओं के लयात्मक सामंजस्य का ऐसा अध्ययन करती है जो जीव विज्ञान को अभियांत्रिकी, स्वास्थ्य और कृषि से भी जोड़ती है। ऐसी उत्कृष्ट वैज्ञानिक खोज और अध्ययन के लिए जे. सी. बोस को 1920 में रॉयल सोसायटी का सदस्य चुना गया। वर्तमान में हो रहे विकास को जे.सी. बोस ने सौ साल से कहीं पहले देख लिया था जबकि उनके जीवनकाल में बुद्धिजीवियों द्वारा इस तथ्य को स्वीकार करना कठिन हो रहा था।
1915 में प्रेसिडेन्सी कॉलेज से सेवानिवृत्ति के पश्चात जगदीश चन्द्र बोस को अपना शोध कार्य जारी रखने की अनुमति भी मिली। धीरे-धीरे अपनी प्रयोगशाला को अपने घर पर स्थानांतरित कर दिया जो कि विज्ञान महाविद्यालय के बगल में था। दो ही साल बाद यानी 1917 में अपने घर के उत्तर दिशा में वो एक शोधशाला स्थापित करने में सफल हुए। यह शोध केन्द्र था उत्तरी कलकत्ता में जिसे अब आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र रोड कहा जाता है। बोस इंस्टिट्युट की स्थापना 30 नवम्बर 1917 में हुई। जगदीश चन्द्र बोस अपने जीवन की अन्तिम घड़ी तक इस संस्था के निदेशक रहे। विज्ञान में अभूतपूर्व खोज करने के लिए बोस को 1917 में “नाइट” की उपाधि दी गई। लंबी बीमारी के बाद 23 नवंबर 1937 को गिरिडीह में ही उनका देहांत हो गया।
चूंकि जगदीश चंद्र बोस का सबसे प्रमुख रिसर्च पेड़-पौधों पर ही रहा है, इसलिए उनका यहां से खास लगाव था। वो ना सिर्फ गिरिडीह लगातार आते रहते थे, बल्कि माना जाता है कि उनके एकांत वैज्ञानिक शोध का बड़ा वक्त यहीं गुजरा था, उनके जीवन के आखिरी वर्ष गिरिडीह में ही गुजरे थे। जब ये जानकारी सरकार के संज्ञान में आई तो गिरिडीह के तत्कालीन उपायुक्त के के पाठक के कार्यकाल में इसका अधिग्रहण कर लिया गया।
कहने को ये आज भी विज्ञान भवन है, लेकिन महान वैज्ञानिक की निशानियों और उनसे जुड़े धरोहरों को सहेजने की दिशा में इसके बाद कोई ठोस पहल नहीं हुई है। महान वैज्ञानिक से संबंधित कई निशानियां नष्ट भी हो चुकी हैं। भवन में एक ओर सूक्ष्म तरंग डिटेक्टर की प्रतिकृति का मॉडल है, तो दूसरी तरफ क्रेस्कोग्राफ की प्रतिकृति का मॉडल। इन दोनों का आविष्कार बोस ने ही किया था। बोस की खोज क्रेस्कोग्राफ वो यंत्र है, जिससे पता चला था कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। आज भी इस भवन में बोस की कई तस्वीरें, उन्हें जीवन काल में मिले विभिन्न तरह के सम्मान और उनके आविष्कारों की मान्यताओं से संबंधित दस्तावेज भी इस भवन में मौजूद हैं। लेकिन, इन्हें कायदे से सहेजने के लिए कोई ठोस पहल नहीं हुई है। सबसे ज्यादा जिज्ञासा इस भवन में मौजूद तिजोरी को लेकर है।
जगदीश चंद्र बोस पर किताब लिख रहे और गिरिडीह में मौजूद उनसे जुड़े धरोहरों के संरक्षण के लिए सरकारों का ध्यान आकृष्ट कराने वाले स्थानीय पत्रकार रितेश सराक के अनुसार, जिला प्रशासन ने पिछले दशक में दो बार इसे खोलने की योजना बनाई। तय हुआ कि तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल को गिरिडीह आमंत्रित किया जाए और उन्हीं के हाथों ये तिजोरी खुलवाई जाए, लेकिन बात आई-गई हो गई। कौन जानता है कि गिरिडीह में उनकी 86 वर्षों से बंद तिजोरी में किसी अत्यंत महत्वपूर्ण रिसर्च से जुड़े साक्ष्य हों या फिर कुछ ऐसा हो, जिसके सामने आने से दुनिया चमत्कृत हो जाए।