26 नवम्बर
किसी भी देश को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसके पास एक मजबूत संविधान का होना बहुत जरूरी है। संविधान यानी बतौर एक नागरिक किसी व्यक्ति को देश में रहने के क्या अधिकार हैं और क्या-क्या जिम्मेदारियां हैं। यही वजह है कि दुनिया के हर देश का अपना संविधान होता है, ताकि वहां के लोग उसका पालन करके हर काम को कानून के दायरे में रहकर पूर्ण करें।
भले ही कोई देश लोकतांत्रिक हो या न हो या वह राजशाही को लेकर चलता हो, फिर भी उसके अपने कायदे-कानून तो होते ही हैं न, जिसके आधार पर वह देश चलायमान रहता है। और तो और, दुनिया के कुछ लोकतांत्रिक देशों की प्रासंगिकता तो इसी आधार पर बनी रहती है, कि वहां का संविधान उसको अच्छी तरह चलाने की बेहतरीन दिशा देता है। ऐसे कई देश हैं, जो दुनिया के सामने एक शानदार मिसाल स्थापित करते हैं। अगर आप इस ऐतबार से देखें, तो आपको और हम सबको गर्व होगा कि हमारा संविधान दुनिया का सबसे शानदार संविधान है। इस पर बहस हो सकती है कि संविधान ऐसा होना चाहिए या वैसा होना चाहिए, संविधान में यह होना चाहिए या वह होना चाहिए, लेकिन उसके बावजूद संविधान का मजबूत होना बहुत जरूरी है, क्योंकि वह हम सबके लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
हमारा संविधान हिंदुस्तान का दिल है। यह धड़कता है, तो हमारा देश आगे बढ़ता है, हर पल तरक्की करता है। जिस तरह एक जीवधारी के शरीर में दिल बहुत महत्वपूर्ण अंग होता है, जिसकी धड़कनें रुकने पर उसकी जिंदगी ही रुक जाती है, ठीक उसी तरह हमारे संविधान की धड़कनें अगर रुकीं, तो यह देश ही रुक जायेगा। जब तक हमारा संविधान चल रहा है, यहां के नागरिकों की नाड़ियों में खून चल रहा है। अपने संविधान को बचाये रखने की हर कोशिश अपने देश को बचाये रखने की ही पूरी कोशिश मानी जायेगी। इसलिए हमारे देश के हर नागरिक का यह परम कर्तव्य है कि वह हर हाल संविधान की में इस बेहतरीन रक्षा करने का संकल्प ले और संविधान-प्रदत्त जिम्मेदारियों का निर्वाह भी करे।
यह बड़ी विडंबना वाली बात है कि भारत में संविधान को लेकर भयंकर निरक्षरता व्याप्त है। ज्यादातर लोग तो जानते ही नहीं हैं कि हमारा संविधान क्या कहता है, नागरिकों के अधिकार क्या हैं और बाकी अधिकार क्या-क्या हैं। संविधान में एक ऐसा भाग है, जो सभी नागरिकों के मूल कर्तव्यों के बारे में है। हममें से ज्यादातर लोगों को तो पता ही नहीं है कि नागरिकों के मूल कर्तव्य क्या हैं। अगर सबसे पहला मूल कर्तव्य संविधान में है, तो वह कहता है कि देश के प्रत्येक नागरिक का यह मूल कर्तव्य होगा कि वह संविधान का अनुपालन करें और उसके द्वारा स्थापित संस्थाओं एवं आदर्शों का सम्मान करे। तो जब हम यह बात जानते ही नहीं हैं कि संविधान के आदर्श क्या हैं और संवैधानिक संस्थाएं कौन-कौन सी हैं, तो फिर हम उनका आदर कैसे करेंगे? इसलिए सबसे पहले आवश्यकता इस बात की है कि देशभर में एक ऐसा अभियान चलाया जाए, जिसमें संविधान की शिक्षा को प्राथमिकता दी जाये और लोगों को संविधान के प्रति जागरूक किया जाये कि सचमुच हमारा संविधान हमारे बारे में क्या कहता है। मेरा शुरू से यह मानना रहा है कि हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में सभी कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में (प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कॉलेज-विश्वविद्यालयों तक) संविधान की शिक्षा को अनिवार्य विषय के रूप में शामिल कर दिया जाये। वर्तमान समय की यह सबसे बड़ी जरूरत है। सरकार को यह काम ‘जरूर करना चाहिए।
अगर हम एक सर्वेक्षण करें, साधारण लोगों की बात मैं नहीं कर रहा, बल्कि 790 सांसदों के बीच यह सर्वेक्षण करें और पूछा जाए कि क्या आपने संविधान पढ़ा है। यह सवाल पूछने के बाद आपको आश्चर्य होगा कि 790 सांसदों में से शायद ही कोई कहे कि उसने पूरा संविधान पढ़ा है। कुछ ही होंगे, जिन्होंने संविधान पढ़ा होगा। ऐसे में संविधान को लेकर जागरूकता की जरूरत तो है ही, न सिर्फ सांसदों नेताओं के लिए, बल्कि हर जन-साधारण के लिए भी।
आजकल संविधान को लेकर जो बहस चल रही है, उसके गुण-दोष को छोड़ दें, तो एक अच्छी बात यह है कि संविधान की ओर लोगों का ध्यान गया है। इस बहस से एक बात अच्छी निकलकर कर आएगी कि अब लोग संविधान के बारे में अधिक से अधिक लोग जान सकेंगे, साक्षर हो सकेंगे और जागरूक हो सकेंगे। दरअसल, इन चीजों को बहुत अभाव था, और अब भी है।
बहस के दौरान अक्सर यह सवाल उठता है कि संविधान के साथ छेड़छाड़ सबसे ज्यादा किसने किया। संविधान में, प्रस्तावित और हो चुके, कुल 128 संशोधन हैं। पहला संशोधन पहली निर्वाचित लोकसभा से पहले यानी 1950 का है। संशोधन होना संविधान की जीवंतता का प्रमाण है। हमारा संविधान इतना लचीला है। और हमारे संविधान निर्माताओं ने यही सोचकर इसे लचीला बनाया, ताकि समय के हिसाब से इसमें संशोधन हो सके। संविधान सभा में 22 जनवरी, 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव की बहस का जब समापन किया, तो उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही- ‘यह संविधान हम अपनी पीढ़ी के लिए बना रहे हैं. आने वाली पीढ़ियों को यह अधिकार होगा कि वे इसमें जैसा उचित समझें, वैसा संशोधन करें।’ आज नेहरू की यह बात प्रासंगिक है। दुनिया के किसी भी देश का संविधान भारत के संविधान जितना लचीला नहीं है।
जहां तक संशोधन का सवाल है, तो जिस तरह से हमारे दिल में कोई खराबी आ जाने पर उसकी बाइपास सर्जरी करके या जरूरी ऑपरेशन करके उसे ठीक कर लिया जाता है, ठीक उसी तरह हमारे संविधान में कभी-कभी संशोधनों के जरिये संविधान को नयी जिंदगी दी जाती रही है, ताकि बदलते दौर के हिसाब से हमारा संविधान और भी मजबूत होता रहे। हमारी संसद को जब कभी लगता है कि संविधान के किसी अनुच्छेद के किसी प्रावधान में सुधार करने की जरूरत है, तो वह संशोधन के जरिये उसे ठीक कर लेती है। चूंकि, संसद को ही कानून बनाने का अधिकार है, इसलिए संशोधन का भी अधिकार उसी को है। यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट संसद द्वारा बनाये कानून की समीक्षा कर सकता है कि वह कानून संविधान सम्मत है या नहीं।
संविधान की किसी धारा में संशोधन या उससे छेड़छाड़, इन दोनों के बीच के फर्क को समझने की लोग कोशिश आज नहीं कर रहे हैं। संविधान में संशोधन को भी लोग छेड़छाड़ का आरोप लगा देते हैं। यही वजह है कि आज संविधान को लेकर बात करना जरूरी है। आज जो संविधान हमारे सामने है, वह अपने मूल संविधान (1950 में लागू होने के वक्त का) को तीन ताकतों ने समय-समय पर बदला है, छेड़छाड़ नहीं किया है। पहली ताकत संसद ने संविधान को बदला है। दूसरी ताकत है सुप्रीम कोर्ट है, जिसकी संवैधानिक बेंच में तीन बड़ी पोथियां हैं, जिसमें यह दर्ज है कि संवैधानिक बेंच ने संशोधन से संबंधित कितने फैसले लिये। तीसरी ताकत भारत के नागरिक हैं, जिन्होंने जनहित याचिकाओं के जरिये जो सवाल उठाये, उससे भी संविधान परिवर्तित होता गया. इस तरह मूल संविधान में भारी बदलाव आ गया है।
संविधान के साथ सबसे बड़ी छेड़छाड़ वर्ष 1971 से 1977 के दौरान इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुआ था। संविधान में जहां-जहां उनको अड़चनें आ रही थीं, उनको दूर करने के लिए सरदार स्वर्ण सिंह कमेटी बनी और उस कमेटी ने एक सिफारिश की, जिसके आधार पर संविधान में 42वां संशोधन हुआ। गौरतलब है कि 42वां संशोधन संविधान के मूल के दो-तिहाई हिस्से को बदल देता है। उसी कार्यकाल में, उसी दौर में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जबलपुर के शुक्ला मामले में दिये अपने एक फैसले में जीने के अधिकार को भी छीन लिया गया. संविधान के साथ इससे बड़ी छेड़छाड़ कभी हुई ही नहीं।
देश में एक आदमी अपनी जाति को लेकर किसी से अलग राय रख सकता है। धर्म को लेकर अपनी अलग सोच रख सकता है, क्षेत्र या भाषा को लेकर अलग समझ रख सकता है, लेकिन संविधान को लेकर सबकी राय एक हो जाती है, होनी ही चाहिए. क्योंकि संविधान ही वह शक्ति है, जो सबको एकता के सूत्र में बांधने का काम करती है। धर्म में वह शक्ति नहीं है कि वह सभी नागरिकों को एकता के सूत्र में बांध सके। क्षेत्रीयता, जाति और भाषा में भी यह शक्ति नहीं है। सिर्फ संविधान ही है, जो हम सब को एक बनाती है। इसलिए हमारे लोकतंत्र के लिए संविधान इतना ज्यादा महत्व है कि बिना इसके हमारा लोकतंत्र कमजोर हो जायेगा। इसलिए आज सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि हम अपने संविधान की कद्र करें। यह ज़िम्मेदारी सिर्फ नागरिकों के लिए नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति भी है, जो इस संविधान की शपथ लेकर देश चलाने कार्य कर रहा है। नागरिकों को चाहिए कि किसी मांग या नापसंदीदा बात को लेकर सड़क पर उतरकर राष्ट्रीय की संपत्ति का नुकसान करने से बचें। क्योंकि यह संविधान की भावना के खिलाफ है। हर काम मर्यादा रहकर किया जाये, तो ही वह शोभनीय होता है, भले ही व कोई नागरिक हो या फिर उच्च पद पर बैठा कोई व्यक्ति हो। संविधान अगर किसी को आजादी देता है, तो साथ कुछ जिम्मेदारियां भी देता है। इन जिम्मेदारियों का एहसास देश के हर नागरिक को शिद्दत से होना चाहिए।
संवैधानिकता बुनियादी तौर पर निरंकुशतावाद के विपरीत है। एक संविधान बनाने का मुख्य मकसद सरकार तथा उसके तीन अंगों की शक्तियां सीमित करना है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार राज्य की उन शक्तियों को सीमित करने का पवित्र दायित्व निभाते हैं, जिनसे इन अधिकारों पर सबसे बड़े खतरों का जन्म होता है। इन शक्तियों को सीमित करने का अन्य संस्थागत तरीका शक्तियों के वितरण, उनके अलगाव और न्यायिक समीक्षा के सिद्धांतों में मिला करता है। हमारे संविधान के निर्माताओं ने संविधान में राष्ट्र के आदर्शों और संस्थाओं के साथ ही उन्हें हासिल करने की प्रक्रिया भी स्थापित की। ये आदर्श राष्ट्रीय एकता तथा अखंडता और एक लोकतांत्रिक एवं समतामूलक समाज हैं, जहां संवैधानिकता एक सर्वोच्च मूल्य है।
संविधान लागू होने के वर्षों बाद पहली बार भारत के लोग संविधान से खुद की पहचान स्थापित करते हुए उसकी प्रस्तावना पढ़ रहे हैं। यह लोगों की परिपक्वता का एक लक्षण है। यह तय है कि संविधान सर्वोपरि कानून है और सभी कानून संविधान के अनुरूप ही होने चाहिए। पर संवैधानिकता के बगैर संविधान स्वयं ही अहम नहीं रह जाता। हमें न सिर्फ संवैधानिकता का जश्न मनाना चाहिए, बल्कि इसकी मौन मौत पर चिंतित भी होना चाहिए। हिटलर कालीन जर्मनी की ही तरह कई मुस्लिम और समाजवादी देशों के संविधानों में भी संवैधानिकता के विचार का हनन किया गया है।
आज यदि हमारा संवैधानिक लोकतंत्र हमारी आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रहा है और आज इसे गंभीर बीमारियों से ग्रस्त पाया जा रहा है, तो इसमें संविधान का कम और इसे संचालित करने वाले लोगों का दोष ज्यादा है। तथ्य यह है कि संविधान ‘काम’ नहीं किया करते, वे तो निष्क्रिय होते हैं। डॉ. अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा के समक्ष कहा था कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वो लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाएगा खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। अपनी कार्यशीलता के लिए वे नागरिकों और सियासी रहनुमाओं पर निर्भर होते हैं। इसलिए, संविधान हमारी आशाओं पर नहीं, बल्कि हम संविधान की आशाओं पर खरे नहीं उतर सके हैं।
देश की आजादी के समय जो तबाही हमने देखी है, वह बहुत बड़ी तबाही थी, क्योंकि तब हमारे पास संविधान नहीं था। लेकिन, आज हमारे पास एक मजबूत संविधान है, फिर भी मैं कहता हूं कि अगर इसके महत्व को ध्यान में नहीं रखा गया, और अगर इसकी अवहेलना की गयी, तो आज की तबाही उस दौर से कहीं ज्यादा बड़ी साबित होगी।