इस्लाम ने पुनर्जन्म को ख़ारिज किया है मगर कुछ मुआमलात में ऐसा लगता है मरने के बाद मरहूम के दोबारा पैदा होने इम्कानात होने चाहिए थे, ये सोच और ज़ियादह मज़बूत हो जाती है जब मरने वाली शख़्सियत का नाम हो प्राण कुमार शर्मा।
मैं बात कर रहा हूँ हिन्दुस्तान के वॉल्ट डिज़्नी प्राण के बारे में। प्राण ने कितनी ही दहाइयों तक अपने कॉमिक कैरेक्टर से लोगों को गुदगुदाया, 1938 में पैदा हुए प्राण कुमार शर्मा ने 1960 से बहैसियत कार्टूनिस्ट काम किया और ऐसा काम किया जिसका कोई सानी अब तक नहीं हुआ, यह प्राण का एहसान है कि उन्होंने फैंटम के किरदार के होते हुए चाचा चौधरी जैसा नया सुपर हीरो गढ़ा , उन्होंने अपने किरदार को सुपर पॉवर से लैस नहीं किया बल्कि उसको स्मार्ट बताया फिर कभी होशियार और कभी बेवकूफ़ बिल्लू, चुलबुली और शरारती पिंकी , मस्तमौला रमन, चन्नी चाची जैसे कितने ही किरदार मंजरे-आम पर उतारे। साबू को छोड़ दिया जाए तो प्राण की कॉमिक्स के किरदार न तो सुपर पॉवर होते थे और न ही उनके पास कोई ख़ुदाई ताक़त होती थी वो आम लोगों की तरह ही थे शायद इसी वजह जल्दी ही हिन्दोस्तान के आम बच्चों और लोगों में घुल मिल गए।
मैं अपने बचपन में से अगर प्राण के कॉमिक्स निकाल दूं तो बहुत बड़ा ख़ला पैदा हो जाएगा। 90 का दौर वो दौर था जब प्राण के किरदार सर चढ़ के बोलते थे, मैं ख़ुद प्राण के कॉमिक्स 1 ₹ एक दिन के हिसाब से किराए पर लाकर पढ़ता था, हालांकि धीरे-धीरे नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा, बांकेलाल, हवलदार बहादुर, क्रुकबॉण्ड जैसे कॉमिक किरदार भी आए मगर प्राण के कॉमिक किरदारों की बात अलग ही थी।
मेरा बचपन भी प्राण का एहसानमंद है मुझे याद नहीं कि उस वक़्त का कोई ऐसा बच्चा भी हो जो पढ़ना जानता हो और कॉमिक्स न पढ़ता हो मैंने अपने हमअसरों को हमेशा चंपक, लोटपोट, नन्हे सम्राट, नंदन, चंदामामा जैसे रसाइल या फिर कॉमिक्सों से लैस ही देखा। 2 माह की गर्मी की छुट्टियों में हम बच्चों का एक ग्रुप था अपने आप बन जाता जिसमें मैं, सुबोध, सुरिया, ओम पाल, कुक्कू, ज़रीना, सम्मू, रजनी वग़ैरह थे। हम सब का मामूल था कि सब किराए पर कॉमिक्स लाते और उसको पढ़ कर दूसरे को दे देते और उसका कॉमिक्स ख़ुद ले लेते और सारा दिन उसी में सर गड़ाए रहते। धीरे -धीरे दुकानदार अंकल (सोनू बुक कॉर्नर) वालों को हमारी इस करतूत का पता लगा तो उन्होंने एक पैंतरा बदला अब वो अब वो 1 ₹ में हमको 2 कॉमिक्स देते मगर वो हमें कॉमिक्स घर नहीं ले जाने देते बल्कि दुकान पर पड़ी बैंच पर ही पढ़ने होते हालांकि इसके पीछे उन्होंने यह दलील दी की बच्चे सारे दिन कॉमिक्स ही पढ़ते रहते हैं इसलिए उन्होंने ऐसा फ़ैसला किया मगर हम ठहरे नन्हें शातिर अब हम 3-4 बच्चे मिल के ग्रुप बनाते सब 1-1 रूपया इकट्ठा करते और दुकान में बैठकर पहले से ज़्यादह कॉमिक्स पढ़ते मगर हमारी यह तरकीब भी लम्बी न चली दुकानदार ने दो वीडियोगेम्स भी लगा दिए और यह पाबंदी लगा दी कि 1 वक़्त में 2 से ज़्यादा बच्चे एक ग्रुप में कॉमिक्स नहीं पढ़ेंगे इस बार उन्होंने इस फ़ैसले की वजह वीडियो गेम के बच्चों को जगह न मिलना बताया हम इसका तोड़ नहीं निकाल पाए मगर कॉमिक्स बदस्तूर पढ़ते रहे और आज मैं अपने बारे में यह दावे से कह सकता हूं कि 2005 तक शाय हुआ प्राण का कोई ऐसा कॉमिक्स नहीं है जो मैंने नहीं पढ़ा।
बहरहाल कॉमिक्स आज भी कहीं मिलते हैं तो पढ़ लेता हूं, कुछ साल पहले फ़रहत भाई ने चाचा चौधरी,बिल्लू,पिंकी के कुछ कॉमिक्स पीडीएफ़ मेल किए थे उस दिन लगा कि बचपन फिर ज़िंदा हो गया, सारे कॉमिक्स पढ़ डाले। कॉमिक्सों की दुनिया वाक़ई एक शानदार दुनिया थे जिसके प्राण, प्राण हुआ करते थे।
जिन्होंने कॉमिक्स के ज़रिए हमारे ज़ेहनों में कम्प्यूटर, रोबोट, उड़नतश्तरी जैसे लफ़्ज़ उस दौर में इंस्टॉल किए जब यह आम आदमी की दस्तरस में नहीं थे।
नासिर काज़मी का शेर है
वक़्त अच्छा भी आएगा ‘नासिर’
ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी
मगर अच्छा वक़्त अब कैसे आएगा वो आ के जा भी चुका क्यों कि प्राण अब नहीं हैं।
6 अगस्त 2014 को इस अज़ीम कार्टूनिस्ट ने आख़िरी सांस ली और बहुत से किरदारों के साथ क़ारिऐन को भी उदास कर गए।
आज मुझमें जो क़ारी ज़िन्दा है उसकी परवरिश में अगर कॉमिक्स ख़ुसूसन प्राण के कॉमिक्स की बदौलत है।और इसकी दूसरी वजह शायद बच्चों के हाथ में स्मार्टफ़ोन या टैबलेट नाम के गैजेट्स हैं जिनमें पूरी दुनिया है यू ट्यूब है, गूगल है, गेम्स हैंमगर हिन्दुस्तानी ज़मीन से जुड़े किरदार वाले कॉमिक्स नहीं हैं , उनमें सुपर इंटैलिजेन्ट चाचा चौधरी नहीं हैं, मुजरिमों को पकड़ने वाला सुपर कमांडो ध्रुव नहीं है, शरारती पिंकी नहीं है, ख़ुराफ़ाती बांकेलाल नहीं है।
बहरहाल कुछ साल क़ब्ल एक लिट्रेचर फेस्टिवल में हिस्सा लेने गया तो ढब्बू जी नाम के किरदार के ख़ालिक आबिद सुरती से मुलाक़ात हुई तो मैं उनसे लिपट गया वजह थी ढब्बू जी, उस पर आबिद सुरती का यह कहना कि ‘आपको जानता हूं मैं ‘ बड़ा सुकून बख़्श लगा क्यों कि सुरती को देखने वाली मेरी नज़रें आज भी उसी क़ारी की जो उनके कैरेक्टर ढब्बू जी का दीवाना था। फ़ेसबुक ही पर चांद मोहम्मद घोसी भी मिले जिनके कार्टून और पहेलियां न जाने कितने ही साल इतवार के रंगीन पेज का हिस्सा होते हुए मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बने।
हमारे यहां हर ज़बान की अकादमी है यहां तक कि बच्चों के लिए भी बाल साहित्य अकादमी है जिसमें रेवड़ियां बांटी जा रही हैं तो इस बात का मलाल ज़रूर होता है कि काश इन कॉमिक्स की भी कोई अकादमी होती। हालांकि अमेरीका के म्यूज़िक में चाचा चौधरी महफ़ूज़ हैं मगर अपने ही मुल्क में इन किरदारों को संजोने के लिए न तो कोई अकादमी है और न ही कोई इदारा, हमने कॉमिक्सों को मरने के लिए छोड़ दिया है।