आज भोर में एक कोयल ने कूककर मुझे पुकारा और कहा ‘गुड मॉर्निंग’! मैं इधर-उधर देखती रह गई। शायद वह किसी बड़े पेड़ की डाली में छिपी बैठी थी और हाँ, शायद मेरे उठकर आने की प्रतीक्षा भी कर रही थी। मुझे हँसी भी आई, अपनी सोच पर–ऐसा तो क्या है भई मुझ में जो वह मेरी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन वह फुर्र से उड़ भी तो गई। छोड़ गई अपने पीछे एक प्यारी सी कूकती मुस्कान! मन में एक कुनमुना सा विचार उठा, काश! कोयल बन जाऊँ!
कोयल और मुस्कान? मैं खुद पर हँस पड़ी, कोई सुनेगा तो हँसेगा मुझ पर। पगली हो गई है, कोई यह भी सोच सकता है? मैं तो सोच रही हूँ न! अब कोई पगली कहे तब भी.. ठीक है न! उम्र का तकाजा है, पर क्या कुछ फ़र्क पड़ता है इससे? कोई कुछ भी कहे, मुझे तो उसके सुरीले गीत के साथ सुरीली मुस्कान ने जैसे पूरे दिन भर के लिए तरोताजा कर दिया था। आपके साथ भी ऐसा हुआ ही होगा, वह बात दीगर है कि हम अपने साथ हुई घटित ऐसी प्यारी घटना पर ध्यान नहीं देते। अगर दें तो समझ में आए कि दुनिया की हर चीज़ में प्रेम है। बस,बात दृष्टि की है, प्रेम में सराबोर होने की है और बात है उसको साथ लेकर उड़ चलने की।
हम कबीर की बात करते हैं। कबीर जयंती मनाते हैं लेकिन आनंद तो उसमें है कि उनके ढ़ाई आखर को अपने हर पल का हिस्सा बना लें। कोई भी छोटी-मोटी बात हुई नहीं कि हमारे चेहरे से मुस्कान गायब और चिंता उड़कर मक्खी की तरह भुनभुनाकर नाक पर बैठ गई। मनुष्य के मन में न जाने एक समय में कितने विचार चलते रहते हैं। हम सब इससे वाकिफ़ हैं कि उनमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के विचार होते हैं। बात यह है कि वह किन विचारों के साथ अधिक समय जुड़ा रहता है! बस,जिधर अधिक समय जुड़ता है,वैसे ही विचार ज़्यादा समय उसके मित्र बने रहते हैं और उनका प्रभाव हम सब कैसा पड़ता है,हम जानते हैं।
हम मानव हैं,जल्दी दुखी हो जाते हैं और जल्दी आनंदित भी लेकिन जब अचानक कोई समस्या हमें लपेट लेती है तो हम उसका बैलेंस यानि विवेक खो बैठते हैं। ब—स, यही वह समय है जब हमें सचेत हो जाना है।
इस बारे में एक घटना याद हो आई- बहुत छोटी थी,शायद 10/12 वर्ष की। माँ एक इंटर कॉलेज में संस्कृत की अध्यापिका थीं और एक दूसरा इंटर कॉलेज था जिनकी प्रिंसिपल थीं श्रीमती सावित्री देवी शर्मा। जिनके कोई संतान नहीं थी और उम्र के लगभग तीसरे पड़ाव में उन्होंने एक बच्चे को गोद लिया था। माँ से सावित्री देवी जी को बहुत प्यार था और वे उनसे बेटी जैसा व्यवहार करतीं। इस प्रकार मैं उनकी बेटी की बेटी हुई।
प्रिंसिपल साहिबा बहुत स्नेहिल थीं और अक्सर हमारी रविवार की शाम उनके घर पर ही बीतती। प्रौढ़ावस्था में संतान गोद लेने का उनका कोई विचार नहीं था लेकिन हम नहीं जानते कि किस समय हमारे संबंध किससे जुड़ने होते हैं। वह सब सुनिश्चित ही होता है न! बस, उनका भी यह संबंध सुनिश्चित ही होगा कि उनके कॉलेज की एक अध्यापिका की अचानक मृत्यु होने से उनका लगभग मेरी उम्र का बेटा जो मुझसे भी छोटा था, उन्हें उसको गोद लेना पड़ा। उसे अभी मुन्ना कहकर ही पुकारते थे लेकिन सावित्री देवी अम्मा जी के पास आने पर उसका नाम रखा गया वेद!
पहले जहाँ मैं उनके घर जाने पर अकेला महसूस करती थी, अब वेद के आ जाने से मुझे कंपनी मिल गई थी। उस बच्चे के परिवार में माँ के अलावा और कोई नहीं था। उसकी परवरिश की ज़िम्मेदारी प्रिंसिपल साहिबा ने ले ली थी और इतने अपनत्व से व प्रेम से उसका पालन-पोषण कर रही थीं कि कोई न समझ पाता कि वेद उनका अपना बच्चा नहीं था।
स्वाभाविक भी है लगाव होना। उनको वेद के आने से पहले ही मुझसे बहुत लगाव था। वे बहुत विवेकशील थीं और बड़ी से बड़ी बात पर भी अपने विवेक से बात को संभाल लेती थीं। मेरी वेद से खूब पटरी बैठने लगी और पहले जहाँ मैं उनके घर जाने में न-नुकर करती थी अब मुझे वहाँ जाना अच्छा लगने लगा। वह मुझसे कुछ ही छोटा था लेकिन मैंने उसको इतना शरारती बना दिया किवह मुझसे भी ज़्यादा शरारती हो गया।
कॉलेज के ऊपर एक ओर प्रिंसिपल साहिबा का बड़ा सा क्वार्टर था तो दूसरी ओर अध्यापिकाओं के क्वार्टर बने थे जो लगभग सब ही भरे हुए थे। सबमें वहाँ की अध्यापिकाएँ रहती थीं। आज ऐसे घरों को फ्लैट्स कहा जाता है, उन दिनों उन्हें क्वार्टर कहा जाता था। उनके बड़े से क्वार्टर में अंदर के भाग में बड़ा सा सहन हुआ करता था जिसमें बीच में एक छोटी सी पैराफिट बनी हुई थी। जिसको पार करके रसोईघर में जाना होता था। उन दिनों रसोईघरों में चूल्हे और अँगीठियों का राज होता था।
बात बता रही थी उस छोटी सी पैराफिट वॉल की। मैं वेद से कुछ बड़ी थी और तंदुरुस्त भी। मेरी स्मृति में वेद छोटा होने के साथ ही दुबला-पतला भी था जो मेरी पकड़ में बड़ी जल्दी आ जाता था। मैं उसे अपने दोनों हाथों में बाहों से उठा लेती और गोल-गोल घुमाती रहती।
“दीदी! करो न चक्की पिसाई दो-दो आना—!” मैं उसे बाहों से पकड़ती और गोल-गोल घुमाते हुए गाती रहती, ’चक्की पिसाई दो-दो आना।’ बालपन की अपनी मस्ती, अपने खेल!
उस दिन रविवार का दिन था। शाम के समय मैं और माँ बहुधा अम्मा जी यानि प्रिंसिपल साहिबा के घर चले ही जाते थे। उस दिन भी गए हुए थे। उनकी हाऊस हैल्प थीं सुरजी, उन्हें भी हम बहुत परेशान करते। वो हमें लिए काफ़ी समझाती रहतीं, खाने के लिए बुलाती रहतीं। हम एक कान से सुनते दूसरे से निकाल देते। वे बेचारी गर्म रोटी खिलाने के लिए रसोईघर में बैठी रहतीं लेकिन हमने उनकी कीमत कहाँ समझी?
हाँ तो उस रविवार को भी मैं और वेद खेल रहे थे ’चक्की पिसाई दो-दो आना’ और अंदर से सावित्री अम्मा जी बार-बार सुरजी से कह रही थीं कि वह हमारा खेल बंद करवाकर हमें खाना खिलाए और फ्री हो। खेल में कहीं भूख लगती है भला –जब तक पेट में चूहे ही न सर्कस दिखाने लगें। अचानक चक्की घुमाते-घुमाते मेरे हाथ से चक्की के पाट फिसल गए यानि वेद के हाथ और सारे में लाल ही लाल होने लगा जैसे कोई छोटा स फव्वारा खुल गया हो। वेद का सिर पैराफिट वॉल से टकराया था और उसकी आँखें बंद होने लगीं थीं।
मैं भी बच्ची थी, बुद्धि तो थी नहीं, वहीं फसकड़ा मारकर बैठ गई और चिल्ला-चिल्लाकर भेंकड़ा पूरने लगी (ज़ोर ज़ोर से रोना)। उसे देखकर घबरा गई थी और लग रहा था अब तो बुरी तरह डंडे पड़ेंगे। मेरे रोने की आवाज़ सुनकर रसोईघर में से सुरजी भागी आईं और बैठक में से माँ और सावित्री अम्मा जी भी।
वेद को देखकर सबके होश उड़ गए। रविवार का दिन था और डॉक्टर्स के दवाखाने बंद होते थे। वे दिन और ही होते थे। फोन्स थे तो डायल करने वाले जो या तो दवाखानों, क्लबों, स्टेशनों या बड़े-बड़े लोगों के घरों की बैठक के कोनों में सजे रहते और उनका तब ही लाभ होता था जब कोई वहाँ पर उपस्थित हो। अधिकतर डॉक्टर्स रविवार की शाम को परिवार के साथ कहीं न कहीं घूमने निकल जाते। पीछे से फ़ोन घनघनाता तो या तो बेचारा कुछ देर के बाद चुप्पी साध लेता या फिर किसी हाऊस-हैल्प के हाथों में आकर बोलता; “साब,घर पे नी हैं जी—”और पटक दिया जाता।
उस दिन भी यही स्थिति थी। प्रिंसिपल साहिबा ने कई बार फ़ोन किया, डॉक्टर साहब के घर से या तो नो रिप्लाई था या किसी सेवक की आवाज़—“साब,घर पे नी हैं जी —”
क्या करें? मैं थर थर काँपते हुए रोती जा रही थी। सावित्री अम्मा जी थीं जिन्होंने विवेक नहीं खोया और माँ से कहा कि मुझे संभालें। उन दिनों घरों में रेफ़रेजिटर तो होते नहीं थे, सुरजी को बर्फ़ लेने के लिए भगाया और ठंडे पानी से खून धोकर ठंडे पानी के छींटे उसके मुँह पर मारने शुरू किए। पाँचेक मिनट में ही सुरजी बर्फ़ ले आई थी। जिसे सावित्री अम्मा जी ने वेद के सिर की चोट पर लगाना शुरू किया। कुछ देर में खून का बहना भी बंद हो गया था और वेद ने कराहते हुए आँखें भी खोल दीं थीं। उसकी खुली आँखें देखकर मेरी रुकी हुई साँस जैसे चलने लगी और आँसुओं की धार थोड़ी कम हुई लेकिन सुबकियाँ अभी भी ज़ारी थीं।
सुरजी से हल्दी की पुलटिस बनवाई गई और उस चोट पर लगाई गई। वेद को हल्दी का दूध पिलाया गया और उसकी हल्की सी मुस्कान देखकर सबकी जान में जान दिखाई दी। अम्मा जी के कारण परिस्थिति संभल गई थी और हम सब चिंता से मुक्ति महसूस कर रहे थे।
रात के लगभग नौ बजे डॉक्टर साहब की गाड़ी की आवाज़ आई। उन्हें घर आते ही पता चल गया था कि वेद को चोट लग गई है। उस ज़माने में डॉक्टर, वैद्य मानवीय संवेदना से काम करते थे न कि केवल पैसे कमाने के लिए। डॉक्टर साहब ने वेद को टिटनेस का इंजेक्शन दिया, उन्हें पता लगा था कि कोई नुकीली चीज़ वेद के सिर में लगी है। खेल-खेल में वेद की जान पर आ बनी थी लेकिन विवेक से,शांति से उसका सही उपचार हो गया था।
अब मैं फिर से प्रिंसिपल अम्मा जी के यहाँ जाने में घबराने लगी थी। वेद ठीक हो गया तब भी मैं उसका सामना करने में कतराती थी। जब बहुत दिनों तक मैं नहीं गई, प्रिंसिपल अम्मा जी वेद को लेकर घर पर आ गईं और मेरे रोने पर मुझे समझाने लगीं कि जीवन में ऐसी ऊँच-नीच तो होती रहती हैं लेकिन अपने कूकने की आवाज़ मत खोना बल्कि ऐसी परिस्थिति में शांति और विवेक से काम लेने की ज़रूरत होती है। मैं काफ़ी छोटी थी लेकिन जब वेद ने आगे बढ़कर इतने प्यार से मुझसे कहा, “दीदी! चलो न खेलते हैं,चक्की पिसाई दो-दो आना” मेरी समझ में नहीं आया कि उसके मन में मेरे प्रति कोई क्रोध नहीं था। सरल, निश्छल वेद बड़े प्यार से मुझे सिखा रहा था कि हर बात सहनशक्ति, विवेक से सही हो सकती है। उस दिन डॉक्टर के न होने पर भी विश्वास और विवेक से सारी बात संभल गई और फिर से प्रेम फिज़ाओं में तैरने लगा। कुछ दिनों में हम भूल गए उस दुर्घटना को। वेद के मन में मेरे लिए प्रेम के अतिरिक्त कोई नाराजगी नहीं थी। और मैं फिर से कूकने लगी थी मस्त, खुले आकाश में, शायद यह वही कोयल थी जिसने मुझे प्रेम का संदेश दिया था।
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