‘रेत समाधि’ -गीतांजलि श्री
TOMB of SAND – Translated by Daisy Rockwell
इन दिनों ‘इंटरनेशनल बुकर प्राइज़’ से सम्मानित “रेत समाधि” की सोशल मीडिया पर जिस तरह चर्चा हो रही है कि थोड़ा कुछ लिखे बिना खुद को नहीं पा रही।
कितनों को तो यही समझ में नहीं आया कि बुकर प्राइज़ हिन्दी को मिला या अंग्रेजी अनुवाद को! सबसे पहले इसका उत्तर लिख देती हूँ। ‘मैन बुकर प्राइज़’ के पूरक के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय बुकर प्राइज़’ की शुरूआत की घोषणा जून 2004 में की गई थी। मैन ग्रुप द्वारा प्रायोजित, 2005 से 2015 तक यह पुरस्कार हर दो साल में किसी भी राष्ट्रीयता के जीवित लेखक को, मौलिक अंग्रेजी उपन्यास या फिर उपन्यास जिसका अंग्रेजी में अनुवाद किया गया हो, दिया जाता था। 2016 के बाद से, यह पुरस्कार अंग्रेजी में अनुवादित और यूनाइटेड किंगडम या आयरलैंड में प्रकाशित एकल पुस्तक को प्रतिवर्ष दिया जाता है, विजेता किताब के लिए £50,000 का पुरस्कार, लेखक और अनुवादक के बीच समान रूप से साझा किया जाता है। एक लेखक की “निरंतर रचनात्मकता, विकास और विश्व मंच पर कथा साहित्य में समग्र योगदान” को पुरस्कृत किया जाता है।
‘क्या इससे पहले हिन्दी गौरवान्वित नहीं हुई थी?’, यह कहते हुए किसी ने बहुत सारे हिन्दी लेखकों के नाम गिना दिए। क्यों नहीं हुई थी भाई, लेकिन यह ज़रूरी नहीं ना कि हर रचना को पुरस्कार मिले? किसी ने लिखा, इसके पीछे प्रकाशक लॉबी का हाथ है। पुरस्कारों के माध्यम से वे अपना बाज़ार खोजना चाहते हैं। कोई कहता है, पुरस्कार श्रेष्ठता का मापदंड नहीं होता, यह बिक्री बढ़ाने का महज औज़ार है। किसी ने कहा, मूल हिन्दी में यह उतना उत्कृष्ट उपन्यास नहीं है जबकि अंग्रेजी में अच्छे से संपादित हुआ है। कोई तो हिन्दी महिला लेखिकाओं के बारे में लंबा चौड़ा लेख लिख देता है। ये सारी टिप्पणियाँ पढ़कर लगता नहीं कि इन्होंने गीतांजलि श्री की कोई भी किताब पढ़ी हो। कोई कहता है गीतांजलि श्री को पुरस्कार मिला, हम सब के लिए गर्व की बात है लेकिन….. इसके बाद क्या लिखें, कुछ भी समझ नहीं आता तो पॉजिटिव के साथ नेगेटिव मिलाकर लिखते चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं। कुछेक ने तो उपन्यास के बारे में कुछ पंक्तियों में इतनी घटिया आलोचना की है कि पढ़कर मैं हैरान हूं। ये लोग न तो लेखक है, न आलोचक और न ही पाठक। इनका एक ही उद्देश्य है किसी की भी पोस्ट पर जाकर कुछ भी लिखना। निष्कर्ष यही निकलता है कि कोई महिला साहित्य जगत में इतनी आगे निकल जाएं, पितृसत्ता वाले समाज को आज भी स्वीकार्य नहीं है।
फिर भी अपवाद तो हर जगह मौजूद है। गीतांजलि श्री के लेखन का सही मूल्यांकन सच्चे दिल से करनेवालों की संख्या भले कम है, लेकिन उन्होंने गीतांजलि के लेखन को दिल से सराहा। अब मैं उस हिस्से को भी लिखना चाहूंगी। जो लोग गंभीरता से गीतांजलि श्री के रचना संसार के बारे में जानना चाहते हैं, वे अर्पण कुमार और अरुण देव के फेसबुक पेज पर जा सकते हैं। ‘तद्भव’ के जनवरी 2022 के विशेषांक में छपा अर्पण कुमार द्वारा गीतांजलि श्री के साक्षात्कार को पढ़ सकते हैं। दिसम्बर 2020 की ‘समालोचन’ (अरुण देव) वेब पत्रिका पढ़ सकते हैं। प्रयाग शुक्ल कहते हैं, ‘यह उपन्यास भरोसा दिलाता है कि यह साँसों पर कब्जा करने वालों, उनको कुचलने वालों के, खिलाफ़ है. खुली साँस की ज़रूरत महसूस करते हुए ही, इस उपन्यास को पढ़ने का आनंद है।’
गीतांजलि श्री को ‘अंतर्राष्ट्रीय बुकर प्राइज़’ मिलने के बाद अर्पण कुमार ने यूट्यूब पर एक परिचर्चा भी पोस्ट की है, जिसमें गुलाम मोहम्मद शेख, अशोक बाजपेयी, प्रो. हरीश त्रिवेदी, शंपा शाह, अखिलेश, अलका सरावगी जैसे महानुभावों ने इस शानदार उपन्यास पर परिचर्चा की है।
शंपा शाह कहती हैं, ‘इस उपन्यास को लगातार बिना रुके नहीं पढ़ा जा सकता। इसकी बुनावट ही ऐसी है की बार-बार रुकना पड़ता है, फिर पीछे जाना पड़ता है। हर कला में सारी कलाएं विद्यमान होती है, यह उपन्यास इस बात का प्रमाण है। हम हर शब्द को पढ़ते हुए सुन सकते हैं मतलब उनकी शैली ध्वन्यात्मक है, साथ में काव्यात्मक और दृश्यात्मक भी है। उनकी भाषा में एक रवानगी है, खिलंदड़ापन है।’
प्रो. हरीश त्रिवेदी तीन खंडों में लिखे गए इस उपन्यास के बारे में कहते हैं कि यह तीनों खंड अलग-अलग जलाशय है और तीनों के अलग-अलग आशय हैं। ऐसा लगता है जैसे एक में तीन उपन्यास है। इसे नए तरीके से समझने की जरूरत है।एक और महत्वपूर्ण बात जो उन्होंने कही की अंग्रेजी अनुवाद में हिन्दी के शब्द भी हैं, जैसे हिन्दी पुस्तक में अंग्रेजी के शब्द हैं, भाषा का अंतर कम हो रहा है। हर पाँच-सात साल में अनेक उपन्यासों की भीड़ को चीर कर कोई एक उपन्यास खड़ा हो जाता है कि मुझे पढ़ो। इस उपन्यास में एक चौंकाने वाला नयापन है।
अखिलेश जी ने कहा कि उनकी भाषा पाठक के अभ्यास को तोड़ती है। पाठक सामान्यतया जिस तरह से हमेशा पढ़ने का आदी है, वह उस तरह से इस उपन्यास को नहीं पढ़ सकता। वे पाठक को ठहरने का अवसर देती हैं। इसमें मनुष्य से इतर चरित्र भी कहानी को आगे बढ़ाते हैं। स्त्री की आवाज, स्त्री समूह की आवाज बन जाती है। लिख चुकने के बाद भी गीतांजलि ने 2 साल तक इसे री-राइट किया है। उनके लेखन में कोई शॉर्टकट नहीं है। इस में एक स्त्री की आवाज स्त्री समूह की आवाज बन जाती है। यह उपन्यास दो हजार अट्ठारह में छपा था। आज हर कोई उनकी चर्चा कर रहा है, लेकिन उस समय उनकी कृति की सोशल मीडिया पर कोई चर्चा नहीं हुई, ना ही उसका उतना स्वागत किया गया था।
वीरेंद्र यादव ने ‘स्त्री दर्पण’ के मंच पर 12 जून 2021 को उनके दो आलेखों के बारे में आलोचनात्मक चर्चा की है। श्री का विषय विस्तार अति व्यापक है। इनसे उनकी भौतिक और साहित्यिक निर्मित का पता चलता है। गीतांजलि का गहरा समाजशास्त्रीय नज़रिया है। वे पर्यावरण, सांप्रदायिकता, स्त्री विमर्श, आतंकवाद, अंध धार्मिकता, घर परिवार समाज में सारी स्थितियों पर नज़र रखते हुए लिखती हैं। उनके कहानी या उपन्यास में समाजशास्त्रीय दृष्टि तैरती हुई नहीं दिखती लेकिन उन्होंने इसे आत्मसात किया है।
उनके अधिकांश लेखन के केंद्र में स्त्री है, ‘माई’, ‘तिरोहित’ और ‘रेत समाधि’ उपन्यासों में वे स्त्री के अंतर्मन की गोपन सच्चाइयों को उजागर करती है। पुरुष द्वारा ठुकराए गई स्त्री भी कभी उस पुरुष को अपने जीवन से बाहर कर सकती है। पति की मृत्यु से पत्नी के कानों में कोयल की कूक सुनाई देती है, ऐसा लिखने का साहस गीतांजलि ने किया है।
उनके उपन्यासों में भारतीय समाज के साथ भारतीय राजनीति की चर्चा भी है। वे लिखती हैं कि धार्मिक वैमनस्य हमारे धर्म, संस्कार, परंपरा से हमारे अवचेतन में मौजूद है। हम बिनसाम्प्रदायिक दिखते हैं, लेकिन हम सांप्रदायिक हैं। वे न सिर्फ़ धार्मिक कट्टरवाद को कटघरे में खड़ा करती है, धर्मनिरपेक्षता जो ऊपर ऊपर से अपनाई हुई है या थोपी गई है, जिसे आत्मसात नहीं किया गया है; उसे भी कटघरे में खड़ा करती हैं।
वीरेंद्र जी कहते हैं कि गीतांजलि श्री रीडर फ्रेंडली रचनाकार नहीं हैं। वे आलोचकों या पाठकों के समक्ष एक चुनौती पैदा करती हैं। वे अपने पाठक से भी कुछ मशक्कत मांगती है, पाठकीय अनुशासन भी मांगती है। उनकी रचनाओं को मनोरंजन की मुद्रा में नहीं पढ़ सकते। जो उनके पुस्तक की लय के साथ खुद को जोड़ पाते हैं, वे ही उनकी पुस्तक पढ़ सकते हैं। पंक्तियों के बीच का मौन और शब्दों के बीच में छुपे अर्थ आपको जानने होंगे। उनके प्रशंसकों में ‘कलावादी’ भी हैं और ‘यथार्थवादी’ भी है। उनकी रचनाओं में कला और यथार्थ का बंटवारा नहीं है। वे समग्र भारतीय यथार्थ पर रचने का सामर्थ्य रखती है। उनकी कई रचनाएँ पहले से ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अन्य भाषाओं में अनुदित हो चुकी है।
रेत समाधि-
अस्सी की होने चली दादी ने विधवा होकर परिवार से पीठ कर खटिया पकड़ ली। परिवार उसे वापस अपने बीच खींचने में लगा। प्रेम, वैर, आपसी नोकझोंक में खदबदाता संयुक्त परिवार। दादी बज़िद कि अब नहीं उठूँगी। फिर इन्हीं शब्दों की ध्वनि बदलकर हो जाती है अब तो नई ही उठूँगी। दादी उठती है। बिलकुल नई। नया बचपन, नई जवानी, सामाजिक वर्जनाओं-निषेधों से मुक्त, नए रिश्तों और नए तेवरों में पूर्ण स्वच्छन्द…
अस्तु।