“आध्यात्मिक अनुसंधान में सत्य दर्शन का रहस्योद्घाटन प्रामाणिक स्वरूप से होने के कारण , साधना के पथ पर गतिशील साधक के लिए – आत्मानंद के सानिध्य में परिष्कृत आत्मचिंतन द्वारा उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति का विशिष्ट रूप से प्रेरणादाई आधार बनता है जिससे आत्मिक आश्रय से मौन साधना का मार्ग स्वमेव ही प्रशस्त होता है । आध्यात्मिक परिदृश्य की समग्रता में आत्मिक अध्ययन एवं पुरुषार्थ अनुसंधान की व्यापक परिधि , शैक्षणिक प्रशिक्षण द्वारा आत्म दर्शन को सुनिश्चित कर देती है जिससे पारदर्शी जीवन तथा यथार्थवादी स्वरूप का सामाजिक परिदृश्य मंगलकारी रूप में प्रखरता से मुखरित हो जाता है । स्वयं को सदा निमित्त , निर्माण और निर्मल स्वरूप में स्थापित करते हुए – लौकिक , अलौकिक एवं पारलौकिक सत्ता के प्रति – श्रद्धा , आस्था तथा मान्यता के साथ उपदेश के अनुपालन में आज्ञाकारिता एवं धर्मगत आदेश को आत्मसात करके ईश्वरी तत्व बोध तथा निजी अस्तित्व की स्वीकारोक्ति को सुनिश्चित किया जा सकता है । जीवन में उच्चतम स्थितियों से महानतम अवस्था की प्राप्ति धर्मगत आचरण की कर्मगत शुचिता से ही निर्धारित होती है जिसके परिष्कार हेतु महान जीवन की स्थापना एवं पवित्र आत्मिक स्वरूप को स्थाई रूप से साधने के लिए आध्यात्मिक परिदृश्य में उपराम स्थिति से कर्मातीत अवस्था तथा अव्यक्त स्वरूप के फलितार्थ द्वारा सुनिश्चित होता है।”
मूल्यगत आचरण के आचार्य की धारणात्मक श्रेष्ठता के प्रति – श्रद्धा , आस्था एवं मान्यता की नैसर्गिक पक्षधरता सदा मानव जाति को – ‘ मातृ देवो भव: , पितृ देवो भव: , आचार्य देवो भव: , सत्यं वद , एवं धर्मं चर …’ के मार्ग पर गतिशील बने रहने के लिए प्रेरित करती है जिसमें मूल्यपरक जीवन में व्यवहारगत सिद्धांत से मर्यादित आचरण का नैतिक संबल अंतर्मन को – ‘ चरैवेति … चरैवेति …’ के नैसर्गिक व्यवहार को आत्मसात करने हेतु मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे आध्यात्मिक अनुसंधान द्वारा शैक्षणिक क्रियाविधि के अंतर्गत प्रशिक्षण से आत्मिक अध्ययन का विराट अनुष्ठान – आत्मिक अनुकरण और अनुसरण का महत्वपूर्ण स्रोत बन जाता है । श्रेष्ठतम गति , मति और सुमति के माध्यम से आत्मिक पवित्रता के प्रकंपन को चहुं दिशाओं अर्थात संपूर्ण आभामंडल को खुशबूदार बनाते हुए मानवतावादी चिंतन में अंतर्मन द्वारा ‘ सर्वे भवंतु सुखिनः …’ की व्यापकता को स्वीकार करके अध्यात्मवादी चैतन्यता की भावनात्मक सृष्टि से ‘ वसुधैव कुटुंबकम … ’ की विराट उच्चता पर आत्म तत्व को चेतना के उच्च दर्शन से पुनर्स्थापित किया जा सकता है । मनुष्य जन्म की प्राप्ति के पश्चात सनातन धर्म की सभ्यता एवं संस्कृति का समग्र परिदृश्य – ‘ बड़े भाग्य मानुष तन पावा …’ की उच्चता के सानिध्य में गतिशील जीवन की महानता को प्राप्त करने हेतु अव्यक्त स्वरूप में पवित्र आचरण द्वारा उदाहरणमूर्त चेतनता के रूप में परिवर्तित हो जाता है जो सर्वगुण – संपन्नता के फरिश्ता स्वरूप से साक्षात्कारमूर्त चेतनता की संपूर्णता को सदा ही आत्मिक समृद्धि के स्वरूप में प्रकट करता रहता है।”
आध्यात्मिक अनुसंधान द्वारा सत्य दर्शन का प्रमाण : –
“आध्यात्मिक जगत का व्यापक परिदृश्य सत्य दर्शन के स्पष्ट साक्षात्कार द्वारा सामाजिक परिदृश्य में लोक व्यवहार की मंगलकारी स्मृति से आत्मिक स्थिति , अवस्था एवं स्वरूप को शक्तिशाली बना देता है जिससे जीवन की अच्छाई द्वारा स्वयं का विधिवत मार्गदर्शन सहज हो जाता है । आध्यात्मिक अनुसंधान में सत्य दर्शन का रहस्योद्घाटन प्रामाणिक स्वरूप से होने के कारण , साधना के पथ पर गतिशील साधक के लिए – आत्मानंद के सानिध्य में परिष्कृत आत्मचिंतन द्वारा उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति का विशिष्ट रूप से प्रेरणादाई आधार बनता है जिससे आत्मिक आश्रय से मौन साधना का मार्ग स्वमेव ही प्रशस्त हो जाता है।”
पारदर्शी पुरुषार्थ की विशिष्ट भूमिका : जीवन में आत्मिक समृद्धि की अनुभूति हेतु आध्यात्मिक अनुसंधान द्वारा सत्य दर्शन की अनुभूति होती है जिससे संवेदनशील दृष्टिकोण के निर्माण में अंतर्मन के महत्वपूर्ण योगदान को स्वीकार करते हुए अंतःकरण की ध्वनि से प्रेरणादाई जीवन की व्यवहारिकता को निर्भय होकर निभाया जा सकता है । चेतना के परिष्कार में पारदर्शी पुरुषार्थ की विशिष्ट भूमिका नैसर्गिक अंतर्दृष्टि द्वारा आत्मिक स्वतंत्रता का गतिशील प्रभुत्व निर्मित कर देती है जिससे जीवन के आचरण पक्ष में – ‘ अहिंसा परमो धर्म: …’ का आत्मगत उत्कर्ष हेतु जयघोष किया जाना व्यावहारिक दृष्टि से संभव हो जाता है ।
हृदय की निर्मलता से वैचारिक उच्चता : सात्विकता की आत्मगत बोधगम्यता – व्यक्तित्व , कृतित्व एवं अस्तित्व के साथ चरित्र में भी हृदय की निर्मलता से वैचारिक उच्चता की स्थापना को सुनिश्चित करती है जिससे मानवीय मनोदशा की विराटता द्वारा समृद्धशाली चैतन्य अभिव्यक्ति जीवन के प्रांगण में प्रस्फुटित हो जाती है । आध्यात्मिक जगत का व्यापक परिदृश्य , सत्य दर्शन के स्पष्ट साक्षात्कार द्वारा सामाजिक परिदृश्य में लोक व्यवहार की मंगलकारी स्मृति से आत्मिक स्थिति , अवस्था एवं स्वरूप को शक्तिशाली बना देता है जिससे जीवन की अच्छाई द्वारा स्वयं का विधिवत मार्गदर्शन सहज हो जाता है ।
कल्याणकारी स्थिति द्वारा श्रेष्ठ जीवन : जीवात्मा द्वारा आत्मिक अनुसंधान के माध्यम से आत्म हित के रहस्य को जब पूर्णत: आत्मसात कर लिया जाता है तब पवित्र भावना एवं विचारगत उच्चता द्वारा बेहतर जीवन की ओर अग्रसर होने के लिए पुरुषार्थ तीव्र हो जाता है जिसमें आत्मिक कल्याणकारी स्थिति द्वारा श्रेष्ठ जीवन की उपलब्धि समाहित रहती है । आध्यात्मिक अनुसंधान में सत्य दर्शन का रहस्योद्घाटन प्रामाणिक स्वरूप से होने के कारण , साधना के पथ पर गतिशील साधक के लिए – आत्मानंद के सानिध्य में परिष्कृत आत्मचिंतन द्वारा उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति का विशिष्ट रूप से प्रेरणादाई आधार बनता है जिससे आत्मिक आश्रय से मौन साधना का मार्ग स्वमेव ही प्रशस्त हो जाता है ।
सत्य दर्शन का प्रमाणिक प्रबोधन : आध्यात्मिक अनुसंधान अध्ययन के विहंगम परिदृश्य द्वारा आत्मिक परिवेश की अनुभूति चेतना की चैतन्यता का जीवंत प्रमाण है जिससे मानव जीवन में अच्छाई और सच्चाई का आगमन होते ही बेहतर कार्य व्यवहार से आंतरिक संतुष्टि की सुखद स्थितियां निर्मित होने लगती हैं जो मनुष्य द्वारा उत्तम को अपनाने की निष्ठा का उत्कृष्ट परिणाम बन जाती हैं । श्रेष्ठता पर आस्था की व्यवहारिक अवस्था के प्रति श्रद्धायुक्त मन:स्थिति , मनुष्य को महान उपलब्धि हेतु मनुष्यता के मंगलकारी स्वरूप का साक्षात्कार धर्मगत स्थितियों के अंतर्गत सहजता से करा देती है जिसमें आत्मानुभूति से – ‘ आत्मानंद का सत्य दर्शन ’ आध्यात्मिक अनुसंधान द्वारा प्रमाणिक प्रबोधन के दिव्य स्वरूप में सदा विद्यमान रहता है ।
आध्यात्मिक परिदृश्य में आत्म दर्शन की समग्रता : –
“आत्मगत अध्ययन के विविध स्वरूप में मनुष्य जीवन की सौभाग्यशाली परंपरा का दार्शनिक सिद्धांत और आध्यात्मिक प्रसंग की संवेदनशील अभिव्यक्ति मानवतावादी चिंतन का चैतन्यता से युक्त संबोधन है जो आत्म तत्व के व्यवहारिक क्रियान्वयन एवं प्रेरणात्मक जुड़ाव का पवित्र पक्ष होता है । आध्यात्मिक परिदृश्य की समग्रता में आत्मिक अध्ययन एवं पुरुषार्थ अनुसंधान की व्यापक परिधि , शैक्षणिक प्रशिक्षण द्वारा आत्म दर्शन को सुनिश्चित कर देती है जिससे पारदर्शी जीवन तथा यथार्थवादी स्वरूप का सामाजिक परिदृश्य मंगलकारी रूप में प्रखरता से मुखरित हो जाता है।”
संपूर्ण समर्पण द्वारा सहज अवस्था : आध्यात्मिक अनुसंधान की प्रक्रिया में शिक्षा एवं दीक्षा की व्यवहारगत गतिशीलता आत्मा के अध्ययन की ओर व्यक्ति को अभिप्रेरित करती है जिससे सकारात्मक और सार्थक जीवन ढूंढने का शुभ भाव निर्मित होता है और जीवात्मा संपूर्ण एवं समर्पित अवस्था हेतु सहज ही आत्मिक प्रतिबद्धता को अंतर्मन से स्वीकार कर लेती है । जीवात्मा स्वयं की अनुभूति के लिए आत्मिक अध्ययन से संबंधित शिक्षण एवं प्रशिक्षण का अनुगमन करके आत्म तत्व को पुण्यात्मा तथा देवात्मा के निर्माण में नैसर्गिक श्रद्धा से संबद्ध होकर पुरुषार्थ में संलग्न हो जाती है जिससे आत्मानुभूति और परमात्मानुभूति के अनहद आनंद का स्थायित्व जीवन में पुनर्स्थापित किया जा सकता है ।
आत्म तत्व का व्यवहारिक स्वरूप : चेतना के परिष्कार की सात्विकता का आत्म साक्षात्कार होने पर जीवन मूल्य एवं अध्यात्म दर्शन का उत्तरदायित्वपूर्ण बोध सुनिश्चित हो जाता है जिससे आत्म हित साधने के साथ सामाजिक उत्थान तथा मनोवैज्ञानिक संदर्भ की व्यवहारिक विवेचना करना न्याय संगत हो जाता है । आत्मगत अध्ययन के विविध स्वरूप में मनुष्य जीवन की सौभाग्यशाली परंपरा का दार्शनिक सिद्धांत और आध्यात्मिक प्रसंग की संवेदनशील अभिव्यक्ति मानवतावादी चिंतन का चैतन्यता से युक्त संबोधन है जो आत्म तत्व के व्यवहारिक क्रियान्वयन एवं प्रेरणात्मक जुड़ाव का पवित्र पक्ष होता है ।
पुरुषार्थ अनुसंधान की व्यापक परिधि : जीवन में आत्मिक उत्कर्ष की अवस्था का निर्माण हो जाना अनुभूतिगत सत्यता तथा आनंददाई स्थिति की सुखद परिणीति का जीवंत प्रमाण है जो व्यक्ति में संपूर्ण विकासात्मक गतिशीलता और कल्याणकारी परिवेश के स्वतंत्र अस्तित्व को विकसित करने में सदा मददगार भूमिका निभाता है । आध्यात्मिक परिदृश्य की समग्रता में आत्मिक अध्ययन एवं पुरुषार्थ अनुसंधान की व्यापक परिधि , शैक्षणिक प्रशिक्षण द्वारा आत्म दर्शन को सुनिश्चित कर देती है जिससे पारदर्शी जीवन तथा यथार्थवादी स्वरूप का सामाजिक परिदृश्य मंगलकारी रूप में प्रखरता से मुखरित हो जाता है ।
आत्म दर्शन का अनुभूतिगत अवदान : आत्मिक परिवेश की पवित्रता और उससे संबद्ध उच्चता की ओर अग्रसित जीवात्मा द्वारा आध्यात्मिक परिदृश्य में आत्म दर्शन की समग्रता को सरल , सहज एवं विनम्रता की पृष्ठभूमि में प्राप्त कर लेना , आत्मगत अनुभूति की अति सूक्ष्म गहनतम अवस्था का स्वरूप है जो परिष्कृत चेतना के माध्यम से सदा परिलक्षित होता रहता है । संपूर्णता के संपन्न स्वरूप के अंतर्गत चेतना का आभामंडल चहुं दिशाओं में आत्म दर्शन के अनुभूतिगत अवदान से प्रस्फुटित होता है जिसमें आत्मा के स्वमान , स्वरूप एवं स्वभाव की सर्वोच्चत्तम स्थितियां अपनी नैसर्गिक प्रेरणादाई भूमिकाओं के निरंतर योगदान से सर्व मानव आत्माओं को धन्यता प्रदान करते हुए गतिशील बनी रहती है ।
आत्मगत अस्तित्व द्वारा परमात्म दर्शन का स्वरूप : –
“जीवन की महानतम अनुभूति से गतिशील होते हुए स्वयं के सकारात्मक परिवर्तन हेतु आंतरिक समर्पण और पूर्णतावादी दृष्टिकोण को आत्मसात करके आत्मानुभूति से परमात्मानुभूति की ओर अग्रसर रहकर मानव विकास में मौलिक सिद्धांत एवं व्यावहारिक गरिमा को अक्षुण्य बनाए रखा जा सकता है । स्वयं को सदा निमित्त , निर्माण और निर्मल स्वरूप में स्थापित करते हुए – लौकिक , अलौकिक एवं पारलौकिक सत्ता के प्रति – श्रद्धा , आस्था तथा मान्यता के साथ उपदेश के अनुपालन में आज्ञाकारिता एवं धर्मगत आदेश को आत्मसात करके ईश्वरी तत्व बोध तथा निजी अस्तित्व की स्वीकारोक्ति को सुनिश्चित किया जा सकता है।”
आत्मिक प्रवृत्ति के सुखद परिणाम : जीवात्मा द्वारा स्वयं की खोज हेतु भागीरथ पुरुषार्थ की पराकाष्ठा तक पहुंचने के लिए चेतना को निरंतर रूप से अनेकानेक प्रयत्न और विशेष जतन करना होता है तब महान जीवन और सकारात्मक अभिप्रेरणा की दिव्य अनुभूति संभव हो पाती है जिसमें आत्मिक समृद्धि एवं जीवन की दुर्लभता का बोध नैसर्गिक रूप से सन्निहित रहता है । स्वयं के विकासात्मक पक्ष के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण का निर्माण करते हुए अग्रसर रहने की आत्मिक प्रवृत्ति एवं प्रकृति के सुखद परिणाम – विकसित जीवन का स्वरूप तथा आध्यात्मिक मूल्य संपन्नता की प्राप्ति है जिससे मानव जीवन में व्यक्तिगत उन्नति और विकास का मार्ग पुण्य की परिणति के रूप में प्रशस्त हो जाता है ।
परमात्म सत्ता की पारलौकिक अनुभूति : आत्मगत अध्ययन की गहनता से चेतना का आंतरिक रूपांतरण एवं भावनात्मक विकास हेतु धर्मगत आचरण के अनुकरण और अनुसरण की आवश्यकता को प्रतिपादित किया जाता है जिससे परमात्म सत्ता की पारलौकिकअनुभूति मनुष्य जीवन के लिए दिव्य उपलब्धि में नैसर्गिक पद्धति तथा विकासात्मक स्वरूप का आधारभूत प्रतिबिंब बन जाए । जीवन की महानतम अनुभूति से गतिशील होते हुए स्वयं के सकारात्मक परिवर्तन हेतु आंतरिक समर्पण और पूर्णतावादी दृष्टिकोण को आत्मसात करके आत्मानुभूति से परमात्मानुभूति की ओर अग्रसर रहकर मानव विकास में मौलिक सिद्धांत एवं व्यावहारिक गरिमा को अक्षुण्य बनाए रखा जा सकता है ।
महान चिंतन में निष्ठावान मनोवृति : आत्मा के संबंध में सूक्ष्म अध्ययन का अनुगमन ही चेतना को आत्मिक विकास हेतु दिव्य गुण तथा महान चिंतन के प्रति निष्ठावान बनाता है जिसमें राजयोग शक्ति से आंतरिक खोज और आत्म अनुभूति की विराटता को जीवन में स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है । स्वयं को सदा निमित्त , निर्माण और निर्मल स्वरूप में स्थापित करते हुए – लौकिक , अलौकिक एवं पारलौकिक सत्ता के प्रति – श्रद्धा , आस्था तथा मान्यता के साथ उपदेश के अनुपालन में आज्ञाकारिता एवं धर्मगत आदेश को आत्मसात करके ईश्वरी तत्व बोध तथा निजी अस्तित्व की स्वीकारोक्ति को सुनिश्चित किया जा सकता है ।
परमात्म दर्शन का विराटतम परिदृश्य : चेतना की चैतन्य अनुभूतियों से गतिशील होते हुए – निज निधि निजानंद स्वरूपम के प्रति श्रद्धा , आस्था और मान्यता की पराकाष्ठा तक स्वयं की स्थापना हेतु किए जाने वाले अनवरत पुरुषार्थ इस बात का प्रमाण हैं कि जीवात्मा ने आत्मानुभूति से परमात्मानुभूति के वृहद स्वरूप की उच्चता तक , निजी जीवन द्वारा संपूर्ण समर्पण से पहुंचने की शक्तिशाली अभिलाषा अंतर्मन में संपूर्ण जतन से सहेज कर रखी है । निजी जीवन के अस्तित्व को विशाल हृदय से स्वीकार करने की आंतरिक जिजीविषा , जीवात्मा को ईश्वरी सत्ता की विराटता से युक्त बोधगम्यता की प्रगाढ़ता को अत्यधिक सहजता के साथ प्रतिपादित कर देती है जिससे आत्मिक , अस्तित्व की नैसर्गिक स्थितियों में आत्मा के – स्वमान , स्वरूप एवं स्वभाव से संबंधित स्वधर्म का – आचरण युक्त , अनुकरण एवं अनुसरण होते ही – सत्यम शिवम सुंदरम , सत्त चित आनंद – सच्चिदानंद का दिग्दर्शन सुनिश्चित हो जाता है ।
परिष्कृत चेतना में जीवन दर्शन की नैसर्गिकता : –
“मनुष्य जीवन की खोजपूर्ण प्रवृत्ति के कारण ही आत्म तत्व एवं परमात्मा सत्ता का दार्शनिक बोध संभव हुआ है जिसमें आध्यात्मिक जीवन का आत्मबल और दृढ़ता की शक्ति का निरंतर अनुभूतिगत प्रवाह सृष्टि पर आत्मिक गतिशीलता एवं जागृत अनादि स्वरूप की अखंड ऊर्जा को आत्म कल्याण के सानिध्य में मानवता के मंगल हेतु उपयोग किया जा सकता है । जीवन में उच्चतम स्थितियों से महानतम अवस्था की प्राप्ति धर्मगत आचरण की कर्मगत शुचिता से ही निर्धारित होती है जिसके परिष्कार हेतु महान जीवन की स्थापना एवं पवित्र आत्मिक स्वरूप को स्थाई रूप से साधने के लिए आध्यात्मिक परिदृश्य में उपराम स्थिति से कर्मातीत अवस्था तथा अव्यक्त स्वरूप के फलितार्थ द्वारा ही सुनिश्चित होता है”
नैसर्गिक आनंद की गतिशील पृष्ठभूमि : सृष्टि पर समस्त प्राणी मात्र का मूलभूत उद्देश्य आत्मिक सुख , शांति एवं आनंद की प्राप्ति है जिसके लिए आत्मज्ञान के समर्पित स्वरूप में संपन्नता और संपूर्णता हेतु निरंतर किया जाने वाला गहन अध्ययन एवं अनुसंधान से संबंधित पुरुषार्थ है जिसमें परमात्म स्मृति बोध एवं आत्मिक सुख की अनुभूति के अत्यधिक गूढ़तम रहस्य समाहित रहते हैं । जीवन के गरिमामई आत्म पक्ष को सुदृढ़ स्वरूप में बनाए रखने के लिए आत्मिक शांति का वास्तविक स्वधर्म तथा उपलब्धिपूर्ण जीवन की सहज स्वीकारोक्ति होती है जिससे नैसर्गिक आनंद की गतिशील पृष्ठभूमि और अनहद नाद का वृहद समागम निर्मित हो जाता है जो चेतना की चैतन्यता को परमानंद अवस्था से संबद्ध कर देता है ।
सात्विक स्वरूप में जीवंत प्रासंगिकता : सतोप्रधान स्थिति के निर्माण में आत्मगत चेतना – मन , वचन , कर्म , समय , संकल्प , संबंध एवं स्वप्न में भी पवित्रता को स्थायित्व प्रदान करने का उत्तम विधि से जतन करती है जिसके परिणाम – सात्विक स्वरूप का जीवंत प्रसंग एवं नि:स्वार्थ प्रेम के प्रस्फुटित परिवेश में आत्मीयता का आभामंडल सृजित हो जाता है जिसमें पवित्रता की धरोहर तथा आत्मा का मंगलकारी स्वरूप विद्यमान रहता है । मनुष्य जीवन की खोजपूर्ण प्रवृत्ति के कारण ही आत्म तत्व एवं परमात्मा सत्ता का दार्शनिक बोध संभव हुआ है जिसमें आध्यात्मिक जीवन का आत्मबल और दृढ़ता की शक्ति का निरंतर अनुभूतिगत प्रवाह सृष्टि पर आत्मिक गतिशीलता एवं जागृत अनादि स्वरूप की अखंड ऊर्जा को आत्म कल्याण के सानिध्य में मानवता के मंगल हेतु उपयोग किया जा सकता है ।
आत्मिक पवित्रता से आराध्य भावभूमि : जगत में मानव आत्माओं के आगमन एवं प्रस्थान के मध्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहेली – मैं कौन हूं ? से आरंभ होती है जिसमें आत्मगत विश्लेषण – आदि स्वरूप की स्मृति तथा पूर्वज देवात्मा के सात्विक मनोजगत से होने के कारण , पूज्य स्वरूप में आत्मिक पवित्रता और आराध्य भाव की विनम्रता जीवन पर्यंत बनी रहती है । जीवन में उच्चतम स्थितियों से महानतम अवस्था की प्राप्ति धर्मगत आचरण की कर्मगत शुचिता से ही निर्धारित होती है जिसके परिष्कार हेतु महान जीवन की स्थापना एवं पवित्र आत्मिक स्वरूप को स्थाई रूप से साधने के लिए आध्यात्मिक परिदृश्य में उपराम स्थिति से कर्मातीत अवस्था तथा अव्यक्त स्वरूप के फलितार्थ द्वारा ही सुनिश्चित होता है ।
परिष्कृत चैतन्यता द्वारा जीवन दर्शन : जीवन दर्शन की नैसर्गिकता का परिदृश्य जब परिष्कृत चेतना के उज्जवल स्वरूप में प्रस्फुटित होता है तब आत्मगत बोधगम्यता की चैतन्यता संपूर्णता के परिवेश में लौकिक – भौतिक , अलौकिक – अभौतिक के साथ पारलौकिक – पराभौतिक के सूक्ष्म अंतराल से संबंधित अंतरसंबंधों की वास्तविकता से स्वयं को संबद्ध करके आत्महित में सहज ही संलग्न हो जाती है । परिष्कृत चेतना की गौरवान्वित गतिशीलता को बनाए रखने के लिए गहन विश्लेषणात्मक अध्ययन के सानिध्य द्वारा जीवन के व्यवहारिक दर्शन में आध्यात्मिक पुरुषार्थ के प्रति – अगाध श्रद्धा से युक्त आस्था ही अंतर्मन की मान्यता को पारलौकिकता की परिधि के अंतर्गत स्वयं की नैसर्गिक उपस्थिति को स्थायित्व प्रदान करने पर बल देती है जिससे आत्मानुभूति से परमात्मानुभूति का पवित्रतम मार्ग प्रशस्त हो जाता है ।
समृद्ध परंपरा द्वारा व्यवहार दर्शन का अनुष्ठान : –
“मूल्यगत आचरण के आचार्य की धारणात्मक श्रेष्ठता के प्रति – श्रद्धा , आस्था एवं मान्यता की नैसर्गिक पक्षधरता सदा मानव जाति को – ‘ मातृ देवो भव: , पितृ देवो भव: , आचार्य देवो भव: , सत्यं वद , एवं धर्मं चर …’ के मार्ग पर गतिशील बने रहने के लिए प्रेरित करती है जिसमें मूल्यपरक जीवन में व्यवहारगत सिद्धांत से मर्यादित आचरण का नैतिक संबल अंतर्मन को – ‘ चरैवेति … चरैवेति … ’ के नैसर्गिक व्यवहार को आत्मसात करने हेतु मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे आध्यात्मिक अनुसंधान द्वारा शैक्षणिक क्रियाविधि के अंतर्गत प्रशिक्षण से आत्मिक अध्ययन का विराट अनुष्ठान – आत्मिक अनुकरण और अनुसरण का महत्वपूर्ण स्रोत बन जाता है।”
आत्मगत समृद्धि द्वारा उच्चतम आयाम : आत्मा की समृद्धशाली परंपरा का निर्वहन सदा ही अध्यात्म की शक्ति से अनुप्राणित होता है जो व्यवहार दर्शन के माध्यम से आध्यात्मिक जगत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नैसर्गिक अभिप्रेरणा के स्वरूप में परिलक्षित होकर सर्व आत्माओं को आत्मगत – स्वमान , स्वरूप एवं स्वभाव की नैसर्गिक अनुभूति करा देता है जिससे मानव जीवन में आत्म समृद्धि द्वारा उच्च आयाम को सहजता से प्राप्त किया जा सकता है । मानव जीवन में सैद्धांतिक परिदृश्य का वास्तविक परिवेश क्रियान्वित होने से चेतना की संतुष्टता , आत्म परिष्कार में अनिवार्य परिवर्तन से व्यावहारिक परिणाम को प्राप्त कर लेती है जिससे ज्ञान बोध में सत्य दर्शन द्वारा आत्मिक संपन्नता का सिद्ध स्वरूप जीवात्मा के लिए – ‘ बड़े भाग्य मानुष तन पावा …’ के रूप में उद्घाटित हो जाता है ।
क्षमा कल्याण व्यवहार से आत्मगत अनुभूति : आत्मिक उत्कर्ष की ओर गतिशील जीवन का आधारभूत पक्ष भगीरथ पुरुषार्थ से आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है जिसके अंतर्गत योग सत्कर्म में जीवन दर्शन से उपराम स्थिति की अनुभूति का रहस्यवादी स्वरूप आत्मिक चैतन्यता को धारणा – अनुसरण में आत्म दर्शन द्वारा कर्मातीत अवस्था की उच्चता पर स्थापित कर देता है । मानव सेवा से माधव सेवा का जीवित जिजीविषा की जीवंतता से संबद्ध सुखांत जब – ‘ सेवा अस्माकं धर्म: … ’ का पर्याय बन जाता है तब सेवा परोपकार में परमात्म दर्शन द्वारा अव्यक्त स्वरूप की दिव्य अनुभूति चेतनता को संपूर्णता से अभिभूत कर देती है जिससे क्षमा कल्याण में व्यवहार दर्शन द्वारा मनोगत पवित्रता , समस्त वातावरण को नैसर्गिक रूप से सुशोभित कर देती है ।
प्रेरणात्मक अभिव्यक्ति में सृजनात्मक समाधान : आत्मगत उच्चता की अभिलाषा में जीवन पर्यंत साधक द्वारा साधना के पथ पर अग्रसर रहकर साध्य तक पहुंचने के लिए पवित्र साधन का ही प्रयोग किया जाना मंगलकारी समृद्धि में उच्च दर्शन से रूपांतरित देवात्मा के प्रतिबिंब का दुर्लभ परिणाम है जो चिंतनशील चेतना में प्रेरणात्मक अभिव्यक्ति द्वारा सृजनात्मक समाधान की महान परिणीति के माध्यम से प्रस्फुटित होता है । मूल्यगत आचरण के आचार्य की धारणात्मक श्रेष्ठता के प्रति – श्रद्धा , आस्था एवं मान्यता की नैसर्गिक पक्षधरता सदा मानव जाति को – ‘ मातृ देवो भव: , पितृ देवो भव: , आचार्य देवो भव: , सत्यं वद , एवं धर्मं चर …’ के मार्ग पर गतिशील बने रहने के लिए प्रेरित करती है जिसमें मूल्यपरक जीवन में व्यवहारगत सिद्धांत से मर्यादित आचरण का नैतिक संबल अंतर्मन को – ‘ चरैवेति … चरैवेति … ’ के नैसर्गिक व्यवहार को आत्मसात करने हेतु मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे आध्यात्मिक अनुसंधान द्वारा शैक्षणिक क्रियाविधि के अंतर्गत प्रशिक्षण से आत्मिक अध्ययन का विराट अनुष्ठान – आत्मिक अनुकरण और अनुसरण का महत्वपूर्ण स्रोत बन जाता है ।
सत्यनिष्ठ पवित्रता द्वारा महानतम व्यवहार : जीवन की गतिशील प्रक्रिया में चेतना द्वारा उत्कृष्ट चिंतन का समावेश हो जाने से – अच्छा सोचना , अच्छा देखना , अच्छा बोलना , अच्छा सुनना के साथ – साथ , अच्छा करना , भी नैसर्गिक रूप में जीवन लक्ष्य से ही संबद्ध हो जाता है तब – मन , वचन एवं कर्म के मध्य व्यावहारिक रूप से संतुलन स्थापित करना सहज हो जाता है । लोक व्यवहार में नीतिगत समृद्ध परंपरा द्वारा व्यवहार दर्शन का अनुष्ठान करते समय – “ धरत पड़िए पर धर्म न छोड़िए … ” का संदर्भ और प्रसंग इसलिए उल्लेखित किया जाता है क्योंकि भारतीयता के धर्मगत आचरण की व्यवहारिक पृष्ठभूमि में – “ प्राण जाए पर वचन न जाई … ” से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ाव की मनोभूमि सदा ‘ सत्यनिष्ठ पवित्रता ’ द्वारा प्रतिपादित – महानतम व्यवहार को ही रेखांकित करती है ।
आत्मिक पवित्रता में उच्च दर्शन की चैतन्यता : –
“सात्विक चेतना के प्रति उत्तरदायित्व का निर्धारण और संधारण निश्चित रूप से आत्मिक परिष्कार में भगीरथ प्रयास द्वारा ‘ अध्यात्म – पुरुषार्थ ’ की पूर्णता हेतु निरंतर जतन का सफल परिणाम है जिसमें पवित्र स्वरूप की वास्तविक मनोवृति से ‘ राजयोग – मौन ’ की उच्चता को प्राप्त किया जा सकता है । श्रेष्ठतम गति , मति और सुमति के माध्यम से आत्मिक पवित्रता के प्रकंपन को चहुं दिशाओं अर्थात संपूर्ण आभामंडल को खुशबूदार बनाते हुए मानवतावादी चिंतन में अंतर्मन द्वारा ‘ सर्वे भवंतु सुखिन …’ की व्यापकता को स्वीकार करके अध्यात्मवादी चैतन्यता की भावनात्मक सृष्टि से ‘ वसुधैव कुटुंबकम …. ’ की विराट उच्चता पर आत्म तत्व को चेतना के उच्च दर्शन से पुनर्स्थापित किया जा सकता है।”
आत्मगत स्वभाव द्वारा सात्विक सुमति : मानव जीवन में उच्चता की ओर अग्रसर होने की मूलभूत प्रवृत्ति से संबंधित वास्तविक प्रकृति सदा आत्मगत स्वभाव में सात्विक सुमति द्वारा ‘ नियम – संयम ’ से संचालित होती रहती है जिसमें नैसर्गिक परिदृश्य की गहन साधना से ‘ जप – तप ’ के प्रति अंतःकरण से जुड़ाव का पवित्र स्वरूप स्वयं को अनुशासित बनाए रखने में मददगार सिद्ध होता है । स्वयं को जानने की अभिलाषा व्यक्तिगत पुरुषार्थ में एक नवीन आयाम को स्थापित करते हुए जब गतिशील होती है तब आत्मिक स्वरूप में एकाग्र चित्त द्वारा ‘ ध्यान – धारणा ’ की दिशा में अनुगमन सुनिश्चित हो जाता है और चेतना की चेतनता से युक्त पक्ष जिज्ञासु प्रवृत्ति की आंतरिक उत्कंठा से ‘ स्वाध्याय – सत्य ’ की प्राप्ति में श्रद्धा पूर्वक संबद्ध होकर समर्पित हो जाते हैं ।
आत्मिक स्वरूप में कल्याणकारी दृष्टिकोण : आत्म उत्थान के मार्ग पर बढ़ते हुए अंतरजगत , पूर्णत: अभिप्रेरणा से भरपूर हो जाता है जिससे गतिशील जीवन में जागृत चेतना द्वारा ‘ प्रेम – अहिंसा ’ के मूल्यपरक सिद्धांत एवं व्यवहार प्रस्फुटित होते हैं और आत्मिक स्वरूप में कल्याणकारी दृष्टिकोण की सार्थक सिद्धि से ‘ धर्म – कर्म ’ के मार्ग को श्रेष्ठतम विधि के माध्यम से जीवन में प्रशस्त किया जा सकता है । सात्विक चेतना के प्रति उत्तरदायित्व का निर्धारण और संधारण निश्चित रूप से आत्मिक परिष्कार में भगीरथ प्रयास द्वारा ‘ अध्यात्म – पुरुषार्थ ’ की पूर्णता हेतु निरंतर जतन का सफल परिणाम है जिसमें पवित्र स्वरूप की वास्तविक मनोवृति से ‘ राजयोग – मौन ’ की उच्चता को प्राप्त किया जा सकता है ।
अध्यात्मवादी चैतन्यता से भावनात्मक सृष्टि : जीवन में प्रार्थना और साधना की शक्ति से भाव एवं विचार जगत के सानिध्य में आत्म जगत को भी महत्ता प्रदान की जाती है जिससे ज्ञानेंद्रियों एवं कर्मेंद्रियों का विशिष्ट योगदान समाजवादी अवधारणा में संतुष्टि द्वारा – ‘ सर्व धर्म समभाव … ’ के स्वरूप को अनुभव करते हुए साम्यवादी विचारधारा की व्यावहारिक पृष्ठभूमि से – ‘ सर्व जन हिताय … ’ की संकल्पना को पूर्णता प्रदान किया जाता है । श्रेष्ठतम गति , मति और सुमति के माध्यम से आत्मिक पवित्रता के प्रकंपन को चहुं दिशाओं अर्थात संपूर्ण आभामंडल को खुशबूदार बनाते हुए मानवतावादी चिंतन में अंतर्मन द्वारा ‘ सर्वे भवंतु सुखिन …’ की व्यापकता को स्वीकार करके अध्यात्मवादी चैतन्यता की भावनात्मक सृष्टि से ‘ वसुधैव कुटुंबकम …. ’ की विराट उच्चता पर आत्म तत्व को चेतना के उच्च दर्शन से पुनर्स्थापित किया जा सकता है ।
गौरवान्वित चेतना का परिष्कृत आभामंडल : आत्मिक पवित्रता के माध्यम से जीवात्मा को जब उच्च दर्शन की चैतन्यता का बोधगम्य स्वरूप , जीवन के व्यावहारिक पक्ष के अंतर्गत रूपांतरित होते हुए क्रियान्वित होता है तब आत्मिक अनुभूति , नैसर्गिक स्वरूप में उच्चतम स्तर से प्रतिबिंबित होती है और चेतना स्वयं के गौरवान्वित आभामंडल से निरंतर परिष्कृत रूप में नवीनता युक्त गतिशीलता को प्राप्त होती है । आत्म जगत का गुणात्मक पक्ष सदा स्वयं की विराटतम स्वीकारोक्ति को आत्मगत – स्वमान , स्वरूप एवं स्वभाव के संदर्भित प्रसंग में नैसर्गिक रूप से सूक्ष्म विश्लेषण करने का प्रयास करता है जिससे आत्म – सम्मान की विशिष्ट शैली , विभिन्न स्थितियों में भी आत्म तत्व के – अजर , अमर , अविनाशी , अचल , अडोल तथा स्थितप्रज्ञ स्वरूप में विद्यमान रहती है ।
संपूर्ण समर्पण द्वारा सर्वोच्च दर्शन का साक्षात्कार : –
“जीवन में चेतना की चैतन्यता का साक्षात्कार हो जाना परम सत्ता के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था की परिणति है जो आत्मिक अवस्था में स्मृति – स्थिति द्वारा स्वरूपगत परिष्कार हेतु सदा मददगार सिद्ध होती है जिसमें निर्मल अंत:करण के निमित्त – निर्माण से आत्मिक निश्चिंता का नैसर्गिक परिवेश स्वयमेव निर्मित हो जाता है । मनुष्य जन्म की प्राप्ति के पश्चात सनातन धर्म की सभ्यता एवं संस्कृति का समग्र परिदृश्य – ‘ बड़े भाग्य मानुष तन पावा …’ की उच्चता के सानिध्य में गतिशील जीवन की महानता को प्राप्त करने हेतु अव्यक्त स्वरूप में पवित्र आचरण द्वारा उदाहरणमूर्त चेतनता के रूप में परिवर्तित हो जाता है जो सर्वगुण – संपन्नता के फरिश्ता स्वरूप से साक्षात्कारमूर्त चेतनता की संपूर्णता को सदा ही आत्मिक समृद्धि के स्वरूप में प्रकट करता रहता है।”
आत्मगत समर्पण का जीवंत उदाहरण : आत्मिक पवित्रता की उच्चतम स्थिति से युक्त जीवन के परिवेश में विशाल हृदय एवं विराट मस्तिष्क के भावनात्मक और वैचारिक पक्ष की श्रेष्ठता से आध्यात्मिक परिदृश्य में संपूर्ण – समर्पण द्वारा सर्वगुण – संपन्नता की महानतम उपलब्धि प्राप्त होती है जिसमें चिंतनशील चेतना के गतिशील स्वरूप से आत्मगत सर्वोच्चता के शिखर पर पहुंचना सुनिश्चित हो जाता है । मानव जाति जब आत्मशक्ति को स्वीकार कर लेती है तब स्वयं की दृष्टि को विकसित करना संभव हो जाता है और व्यक्ति – ‘ दृष्टि बदलने से सृष्टि बदलने …’ के गूढ़तम रहस्य को आत्मसात करके ‘ जीवन – लक्ष्य ’ के अंतर्गत ‘ उमंग – उत्साह ’ द्वारा ‘ दृष्टिगत – महानता ’ के संदर्भ और प्रसंग से पुरुषार्थ की गतिशीलता में अभिवृद्धि करके धारणात्मक उच्चता के ज्ञान – योग से धर्मगत सेवा – भाव को पूर्णतया अंगीकार करना आत्मगत समर्पण का जीवंत उदाहरण बन जाता है ।
आधारभूत चेतनता की वैभवपूर्ण उच्चता : जीवन में चेतना की चैतन्यता का साक्षात्कार हो जाना परम सत्ता के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था की परिणति है जो आत्मिक अवस्था में स्मृति – स्थिति द्वारा स्वरूपगत परिष्कार हेतु सदा मददगार सिद्ध होती है जिसमें निर्मल अंत:करण के निमित्त – निर्माण से आत्मिक निश्चिंता का नैसर्गिक परिवेश स्वयमेव निर्मित हो जाता है । मनुष्य जीवन को हीरे तुल्य बनाने की आत्मिक सतोप्रधान अवस्था अर्थात लगन में मगन रहने का अनवरत जुड़ाव – ‘ मन , बुद्धि एवं संस्कार की पवित्रता …’ से संबद्ध रहता है जिसमें निर्विकारी कर्मणा में निराकारी – निरंहकारी द्वारा पुरुषार्थगत निर्विघ्नता का आत्मबल संपूर्ण – समर्पण के अनादि स्वरूप से आधारभूत चेतनता की वैभवपूर्ण उच्चता के समदृश्य सदा बना रहता है ।
सनातन धर्म की सभ्यता एवं संस्कृति : आत्मानुभूति के केंद्र में स्वयं को स्थापित कर देने पर निर्धारित मनोदशा से अपेक्षित – परिवर्तन , परिणाम , परिमार्जन , परिवर्धन एवं परिष्कार की संभावनाएं बढ़ जाती है जिससे उपराम स्थिति में आदि स्वरूप द्वारा – उद्धारमूर्त चेतनता की अभिव्यक्ति सुनिश्चित हो जाती है जो कर्मातीत अवस्था के पूज्य स्वरूप में – अनुभवीमूर्त चेतनता , प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मंगलकारी और वरदानी आशीष प्रदान करते हुए प्रस्फुटित हो जाती है । मनुष्य जन्म की प्राप्ति के पश्चात सनातन धर्म की सभ्यता एवं संस्कृति का समग्र परिदृश्य – ‘ बड़े भाग्य मानुष तन पावा …’ की उच्चता के सानिध्य में गतिशील जीवन की महानता को प्राप्त करने हेतु अव्यक्त स्वरूप में पवित्र आचरण द्वारा उदाहरणमूर्त चेतनता के रूप में परिवर्तित हो जाता है जो सर्वगुण – संपन्नता के फरिश्ता स्वरूप से साक्षात्कारमूर्त चेतनता की संपूर्णता को सदा ही आत्मिक समृद्धि के स्वरूप में प्रकट करता रहता है ।
चैतन्यता के स्वरूप में देवत्व की गरिमा : चेतनागत स्वरूप में संपूर्ण अवस्था के उच्च आयाम की अभिलाषा ही अंतर्मन की अभिप्रेरणा का महत्वपूर्ण आधार होता है जो आत्म तत्व को समर्पित अवस्था की ओर गतिशीलता प्रदान करने में मददगार बन जाता है जिसमें आत्मिक चैतन्यता के अतीत , आगत एवं अनंत स्वरूप में देवत्व की गरिमामई वास्तविकता समाहित रहती है जो सर्वगुण संपन्नता के समृद्धशाली स्वरूप हेतु सदा आत्मा को संपूर्ण समर्पण के लिए अनुप्राणित करती रहती है । आत्मा के नैसर्गिक अस्तित्व में अजर , अमर , अविनाशी , अचल , अडोल एवं स्थितप्रज्ञता का गुणात्मक स्वरूप सन्निहित होता है जो जीवात्मा को साक्षी दृष्टा स्थिति में स्थित रहकर स्वयं की अवस्था को पवित्रतम बनाए रखने हेतु स्मृतिगत स्थितियों की निरंतरता से चित्त को परिष्कृत चिंतनशीलता की ओर उन्मुख करता रहता है जिससे परम सत्ता की विराटता में समर्पित होकर आत्मिक संपन्नता की प्राप्ति को सहजता में परिवर्तित किया जा सकता है ।