मैं कुत्ता हूँ। कहने को आवारा। दिखने में बेचारा। मिजाज से मस्तमौला। न घर का ठिकाना और न ही जिंदगी का अता-पता। फिर भी इंसान का सबसे करीब। लिहाजा घरों में, गलियों में और चौबारों में आप हमें देख सकते हैं। चारों ओर किस्म-किस्म के हमारे दोस्त भाई लोग। न जाने कितने नस्ल हम कुत्तों की–हम अपनी जाति-प्रजाति की जानकारी खुद नहीं रखते। अड़ोस-पड़ोस में रहनेवाले, घूमनेवाले और भटकनेवाले कुत्तों को देखकर हमारे अद्भुत संसार का पता चलता है। दोस्तों हमारी दुनिया भी अजीब है–अजब कुत्ते, गजब कुत्ते। कोई बेहद छोटा तो कोई बालों से ढका-ढका। कोई खूब ऊँचा तो किसी को देखकर डर लगता है। किसी को देखकर हँसी आती है। मगर ले देकर सबका काम रखवाली करना होता है।
हम इंसान के सबसे ज्यादा वफादार साथी हैं। हमारी वफादारी का इतिहास बेहद पुराना है। इतना पुराना जितना पुराना सभ्यता का इतिहास। उस पुराने जमाने में लौट चलिए। जंगल युग खत्म होने को ही था। उत्तर पश्चिमी अमरीका के इंडियन धनुष बाण से शिकार करने लगे थे और बर्बर युग करीब ही था। यानी झुण्ड में रहने वाला इंसान गाँव बसाने, खेती करने और जानवरों को पालतू बनाने के काम को अंजाम देने वाला था। यह बात कोई बारह हजार साल पहले की है। उसके पहले हम जंगलों में रहते थे। झुण्ड में रहकर शिकार करना हमारी आदतों में शुमार था। हमारी ऐसी ही आदतों, और खासियतों को समझकर इंसान ने हमें अपनाया।
इंसान ने हमें जब पालतू बनाया तो इससे उसकी कई चुनौतियां सुलझ गयीं। उसकी जिंदगी आसान हो गयी। उसके पालतू जानवरों की जिंदगी महफूज हो गयी। उसके अपने ठिकाने, अपनी बस्तियों में जिंदगी आसान हो गयी। न दुश्मनों का डर और न ही जंगली जानवरों से खतरा। खेत-खलिहान-गलियाँ और चौबारे–हर जगह हमारी मौजूदगी थी। बदले में हम अपने मालिक के घर का जूठन खा लेते थे और आज भी खा लेते हैं। हम कुत्ते नमक नहीं खाते मगर नमक की कीमत चुकाते हैं। गाँव-टोला – मोहल्ला-पड़ोस में हर चहलकदमी पर हमारी नजर होती है। भौंककर किसी का विरोध करते हैं और अपनी साथियों को यह संवाद देते हैं कि बस्ती में, मुहल्ले में कोई अजनबी है। कोई अनिष्ट कुंडली मारकर हमारे बीच बैठा है। भौंकना हमारा स्वभाव है। गलत का विरोध करना हमारी आदत है। हम अपने मालिक से दगाबाजी नहीं करते। जिसकी खाते हैं उसके साथ रहते हैं। उसके लिए भौंकते हैं। उसे बचाने के लिए अपनी जान पर खेलते हैं। हम रोटी से कहीं ज्यादा प्यार के भूखे होते हैं। हमें आफतों का खटका पहले ही हो जाता है। हमें अनहोनी दिखने लगती है। इतनी सारी बातें, इतना लम्बा विशाल इतिहास, जिसमें हमारी जाति के गौरव गान हैं, हमारी श्रेष्ठता का हवाला है। मगर हमारी अपनी भी पीड़ा हैं जमाने के दर्द हैं। युगों का दंश है। जिन्हें हम घुट- घुटकर पी रहे हैं।
इंसान ने हमारे बीच एक से एक भेद पैदा किए। उसने फिरकापरस्ती हमारे कुनबे में फैलायी। जातीय जहर से हम मर रहें हैं। इंसान खुद को सामाजिक प्राणी कहता है। लेकिन है वह एक स्वार्थी प्राणी। अपनी शान शौकत के लिए हमारी कुछ नस्लों को अपने सीने से लगाता है। अपने बेडरूम में सुलाता है। ड्राइंग रूम में बैठाता है और अपनी मंहगी गाड़ियों में घुमाता है। बढ़िया से बढ़िया भोजन परोसता है। हमारे उन भाई बंधुओं के लिए अलग से पार्लर है। नौकर हैं, डॉक्टर हैं। मालिकों की मलिकाओं की गोद में हमारे भाई-बंधु आराम फरमाते हैं। उनके लिए क्या नहीं है। साफ-सफाई-शैंपू सब कुछ मिलता है उन्हें। लेकिन पूछिए की वे करते क्या हैं ? क्या है खास उनमें ? कभी उन खास नस्लों के कुत्तों के पूर्वज भी हमारे पूर्वजों की तरह जंगलों में रहते थे। उनमें से कुछके की माताएँ भेड़ियों की यौन लिप्सा की भेंट चढ़ गयी। तो उनसे पैदा हुए बच्चे भेड़ियों के पैतिक गुणों से लबरेज हो गये। आज उन्हीं बच्चों की, उन नस्लों की कद्र है। इंसान अपने मतलब से उन्हें दुलराता है और हमें दुतकारता है।
हमने इंसान को अपनी वफादारी दी। जिंदगी के कतरा-कतरा उसके नाम कुर्बान किया। लेकिन इंसान ने हमें क्या दिया? आप खुद सोचिए। समझिए। आप संसार और इस सृष्टि के एक मात्र ऐसे प्राणी हैं जो मनन करते हैं। चिंतन करते हैं। हमारी दुनिया मलिनों की दुनिया है। हमारा अपना कुछ भी नहीं है। न कोई ठौर और न ठिकाना। सबकी अपनी दुनिया और सबके सब पराये। इस परायेपन में सहजता है। कोई दुलार नहीं, पुचकार नहीं। न अपना समाज है न आपसी सरोकार है। गलती से किसी और मुहल्ले में चले गये तो समझो की तमाम आफतें हमें घेर लेती हैं। वहां के कुत्ते टूट पड़ते हैं हमारे ऊपर। सच ही कहते है अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है। भौंकने को हम साथ हो लेते हैं। क्योंकि खतरा पूरे कुनबे के लिए होता है। लेकिन दुश्मन पास आ जाय तो फिर हम तितर-बितर हो जाते हैं। यह बात दूसरी है कि हम शिकार पर एक साथ टूट पड़ते हैं। दुनिया की तमाम जलालतें हमारी नियति हैं। लात-बात-घात-प्रहार–इनसब के बीच हमें रहना होता है। हम कूड़े की ढेर पर पैदा होते हैं, अभाव में जिंदगी गुजरती है और मुफलिसी के दामन में हम आवारा कुत्ते दम तोड़ते हैं। सुबह होती है और शाम होती है, जिंदगी ऐसे ही तमाम होती है।
अभाव में स्वभाव बदलता है इसलिए भूख हमें छीनने झपटने के लिए बाध्य करती है। जब पेट खाली हो तो दुनिया की कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती। भूखा पाप क्यों न करे–यह शास्त्रों में लिखा है। रोटी की कमी से उपजी हमारी बेचारगी हमें कुछ भी खाने को मजबूर करती है–मुर्दा से लेकर मैला तक। अब कोई प्यार से हमें रोटी खिलाये या धोखे से जहर। प्यार और धोखे का अंतर हम कुत्ते नहीं जानते। इसलिए हमारी मौत और जिंदगी के बीच के फासले बहुत कम होते हैं और हमारी मौत का मातम नहीं होता। हम कुत्ते इंसान की तरह मौत पर मुजरा नहीं करते। हमारी मौत अनरोई होती है। हमारे मरने पर कुनबा नहीं रोता। क्योंकि मौत के बाद रोटी के हिस्से कम लगते हैं। तो पेट भरने की तसल्ली हो जाती है। दूसरों की मौत कुनबे की तसल्ली होती है।
सच पूछिए तो मुझे इंसानियत का मिजाज समझ में नहीं आता। यहाँ वफादारी की कोई कीमत नहीं होती। इंसान सेवा के नाम पर सौदा करता है। हम ऐसा नहीं कर सकते। उसके पास शब्द हैं। मेरे पास भावनाएँ हैं। वह धन्यवाद करता है, ‘थैंक्यू’ कहता है। आभार जताने के लिए मैं दुम हिलाता हूँ। क्योंकि शब्दों में चापलूसी होती है। हमारे व्यवहार में छल नहीं होता। प्रपंच नहीं होता। हम आपस में तत्काल लड़ लेते हैं मगर इंसान की तरह आगे को कोई साजिश हम नहीं रचते। इंसान तमाम कुकर्म करता है। लेकिन गालियों में हमारा नाम लेता है। आखिर क्यों ? हम घुसपैठ नहीं करते है, र्निदोष की हत्या नहीं करते है, छेड़छाड़ नहीं करते हैं, दुष्कर्म नहीं करते हैं, सामूहिक या अकेले बलात्कार नहीं करते हैं, धोखाधड़ी नहीं करते है । तो आक्रोश में हमारा ही नाम क्यों ?
इंसान हमारी निष्ठा और ईमानदारी का लोहा मानता है। हम इंसानों की बस्ती की रखवाली करते हैं मगर बदले में न तरीके से रोटी नसीब होती है और न ही चैन की नींद। मार कुटायी तो रोज की बात है। और गुस्से में कभी किसी को काट लिया तो अपनी मौत लाजिमी है। लोग हमें मार देते हैं। मेरे काटे हुए इंसान का समय पर इलाज नहीं हो तो बाद में उसे रेबीज हो जाता है, जो जानलेवा होता है। इस बात का हवाला दे-देकर समाज और सरकार हमारे खिलाफ जुल्म का मुहिम चलाती है। हमें पकड़कर कमिटीवाले लोग कहीं ले जाते हैं। उन कुत्तों को रेबिज का टीका लगाकर छोड़ दिया जाता है। ऐसा कहते हैं। ऐसा मानना है कि वे पकड़े गये कुत्तों को मार देते हैं। जैसे झूठे मुठभेड़ में पुलिस अपराधियों को मारती है। शहरों में हम आवारा कुत्तों की जमकर नसबंदी भी की जाती है यानी हमारे नस्ल के सफाये की मुहिम चल रही है। आतंक और भय के इस माहौल में समझ में नहीं आता कि हमारा गुनाह क्या है। क्या हम घटिया नस्ल में पैदा हुए हैं तो हमारी हत्या ही हमारी नियति है ? या हमारा खानदान आगे न चले, ऐसी मर्जी इंसान की है तो हमारी नसबंदी की जाती है। मानता हूँ कि इंसानी समाज में अपने से कमजोर नस्ल के सफाये का इतिहास लंबा चौड़ा है। जैसे हिटलर ने जर्मनी में यहुदियों के साथ किया। वैसा ही तो हो रहा है हमारे साथ भी।
इंसान हमारे संतोषी स्वभाव का कितना नाजायज लाभ लेता है ? हमें अपना हम सफर मानता है लेकिन हमारे समाज में वर्ग संघर्ष और नस्लीय मतभेद पैदा करता है। किसी प्रजाति के कुत्ते को सीने से लगाता है और किसी प्रजाति के कुत्ते के सीने पर लाठियाँ तोड़ता है। घूम-भटकर क्या वह रोटी नहीं खाता घ् मगर हमारे भटकाव पर उसे ऐतराज है। हमारी भूख भी उतनी है जितनी एक आदमी की। हम रोटी लेकर अपनी स्थिति बोध मालिक को बताते हैं। हमें भोजन का भेद नहीं समझ में आता। जो भी मिलता हैं बाँटकर झुण्ड में खा लेते हैं। हम इंसान की तरह सामाजिक तबके में भोजन का भेद खुद नहीं करते।
अकेले एशिया महादेश में इंसान अपने जायके के लिए हर साल एक करोड़ साठ लाख कुत्ते मारता है। यह रिपोर्ट है। यूरोपीय देशों में जानलेवा बीमारियों के चपेट में आये लोगों को दवा के तौर पर हमारे दोस्त यारों के मांस खिलाये जाते हैं। फिर भी हम कुत्ते हिंसक कहे जाते हैं। भला कैसे ? हमारी कौन सुनेगा ? सुना है इंसानों की बस्ती में जानवरों के जीवन के अधिकारों की बात हो रही है। हमारे जीवन बचाने के वायदे किये जा रहे हैं। कुछ इंसानों की जिद्द है कि वे जानवरों के लिए सब कुछ करेंगे। हमारा अधिकार कब मिलेगा, कैसे मिलेगा ? भूख हमारा जीवन है लात-बात हमारे भाग्य में बदा है। जो हाथ रोटी देता है उसी हाथ में चाबुक भी होता है। यह इस संसार का नियम है। हम इंसान से लेते क्या हैं ? तो फिर हमसे इतनी घृणा क्यों ? हमारे अंदर भी जान प्राण है। भावनाएँ हैं संवेदनाएँ हैं। चोट का असर हमारे ऊपर भी होता है। यदि जाति से घृणा करना आपके समाज में अपराध है तो यह भी मानकर चलिए कि हम आवारा नस्ल की औलाद है इसमें हमारा क्या कुसूर है ? यदि कोठियों के कुत्तों के दिल मचलते हैं तो हमारे दिलों में भी धड़कन है। हम भी प्राणी हैं।
हमारे सीने में भी दर्द है। ममता है हमारे दिल में भी उमड़ती है। आदमी अपने मतलब के लिए हमारी मां से हमें अलग करता है। हमारे लिए कोई कानून नहीं तो कोई अधिकार नहीं। लिहाजा हमारे पास शब्द नहीं तो हमारी माताएँ बिछुडे़ बच्चों का दंश अपने सीने में जज्ब कर लेती हैं। उन्हें नहीं पता कि उनकी ममता की कीमत पर इंसान का कारोबार कितना फलता-फूलता है। उसके बच्चों की नीलामी होती है। बोलिया लगतीं हैं । उन बोलियों के ऊँची टेक में हमारी माओं का रूदन दब जाता हैं । इंसान खुद कहता है समरथ के नहीं दोस गोंसाई। हमें चुप्प रहना है। चुप्प होकर जलालतें सहना हमारी नियति है। हमारी नस्ल की तिजारत करनेवाले और हमारी बोटियाँ बेचनेवाले मालामाल होता इंसान हमें गालियाँ देता हैं, हमें हिंसक कहता हैं। क्षमा बलशाली की शोभा है और दया उसका बड़प्पन। आपसे क्षमा और दया की गुजारिश है। घृणा छोड़िए। जब तक जानवरों के प्रति घृणा आपके दिल में रहेगी तब तक इंसान के लिए इंसान घृणा करता रहेगा।