नमस्कार
स्नेही मित्रों
आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है, आप सब आनंद में हैं। इसीलिए तो यहाँ पर आपकी अनुपस्थिति में भी उपस्थिति महसूस होती है। हम सब एक डोर से जो बंधे हैं, जानते तो हैं, महसूस भी करते हैं- उस स्नेह-डोर को जो एक सिरे से हम सबको बाँधती चली जाती है, जिसकी छुअन से हम किसी दूसरी दुनिया के अंग हैं, ऐसा महसूस करने लगते हैं| यही दुनिया हमें पुकारकर कहती है, तुम किसी बंधन में नहीं हो क्योंकि मुक्ति ही स्नेह है, प्रेम है। भला प्रेम किसी वृत्त में कैसे भटक सकता है?
हवाओं की शीतलता कभी राग में बदल जाती है तो कभी आग में, कभी स्नेह में तो कभी ईर्ष्या में, कभी कुहासे में तो कभी रोशनी में! हमें तो उसके साथ चलना होता है जो हमारे सामने आता है। क्या हम बंद द्वार खोलकर गर्म हवाओं को शीतलता में परिवर्तित कर सकते हैं?
“तुम्हारा नाम आशा किसने रख दिया?” मैं पूछ ही तो बैठी उससे।
“क्यों, कुछ बुराई है मेरे नाम में?” उसने अकड़कर कहा।
“नहीं, बुराई ही तो नहीं है लेकिन तुम क्यों बुराई लाने की कोशिश कर रही हो? इतना सुंदर नाम जो माँ-पिता ने दिया और इतना सुन्दर चेहरा–मोहरा, स्वस्थ शरीर जो ईश्वर ने दिया। उससे न्याय तो करो। “मैंने कहा।
“आप न हर समय भाषण ही देती रहती हैं, इतना व्याख्यान कि आदमी सोचने को मज़बूर हो जाए कि आखिर उसकी गलती है कहाँ और क्या?” आशा ने अपने स्वभाव के अनुकूल मुझसे कहा। अपने स्वभाव के अनुकूल मैं हँस दी।
हम मनुष्यों का यह स्वभाव होता है कि वह खुद में झाँककर देखने के स्थान पर दूसरों के कंधे पर बंदूक चलाने में अधिक सहजता महसूस करता है। वह अपने आप कुछ न करके दूसरों के अवसरों का लाभ उठाने में सहजता, सरलता समझता है।
आशा स्वयं में इतनी सुंदर,सुघड़, बुद्धिमती है फिर उसे यह बार-बार क्यों लगता है कि उसके लिए कोई दूसरा ही कुछ करे तब ही वह आगे बढ़ सकती है?
सुना है कि मनुष्य के शरीर, मन पर उसके नाम का काफ़ी प्रभाव पड़ता है। इसका शायद यह कारण है कि किसी शब्द को जैसे और जितनी बार पुकारा जाता है, वह शब्द वायुमंडल में उतनी ही बार विचरण करता है और वहाँ के वातावरण को प्रभावित करता है।
अब उदाहरण स्वरूप हम आशा का नाम ही ले लें । उस छोटे से शब्द में कितना कुछ भरा हुआ है लेकिन हम स्वयं उसे समझना नहीं चाहते। अब सोचना यह है कि इसमें किसकी गलती है? हमारी अपनी ही न!
हम इस सत्य से वाकिफ़ हैं कि जीवन में बाहरी परिस्थितियां कभी भी बदल सकती हैं। यहाँ तक कि हमारे जीवन में सारी व्यवस्थाएँ सटीक होने के बावजूद भी बाहरी परिस्थितियां कब हमारे विरोधी हो जाएं हमें पता ही नहीं चलता। जैसे घर में सब कुछ ठीक – ठाक हो, पर अगर तूफान आ जाए तो वह सब कुछ उलट-पलट कर सकता है। अगर हम यह सोचते है कि ‘हमारे साथ ये सब नहीं होगा’ तो यह तो हमारी मूर्खता ही होगी न! जीने का विवेकपूर्ण तरीका तो यही होगा कि हम किसी के ऊपर कुछ न डालकर यह सोचें कि अगर ऐसा कुछ होता है तो उस स्थिति को सहजता से कैसे निपटेंगे?
जीवन में अभी सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है और अचानक यदि हमें पता चलता है कि जिसे हम हकीकत समझ रहे थे, वह तो हमारे सामने से रेत की तरह बुर रहा है, तब क्या उसका आरोप भी हम दूसरों पर लगाकर अपने आप निश्चिंत होकर बैठ जाएंगे? नहीं न? हम उसमें से निकलने के लिए हाथ-पैर मारेंगे और उस बीहड़ परिस्थिति से निकलने का प्रयास स्वयं करेंगे। यदि हम आशा का दामन पकड़कर उसमें से निकलने का प्रयास न करके दूसरे की प्रतीक्षा करते रहेंगे या फिर दूसरे को आरोपित करते रहेंगे तो संभवत: उस बीहड़ में और भी उलझ जाएं ।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि हमें किसी ने क्या कह दिया या हमारे लिए किसी ने क्या गलत कर दिया, सवाल यह है कि क्या हमने खुद को इसकी स्थिति को समझने का प्रयत्न किया? हमारे पास कितना है, हमने क्या किया या किसी और ने हमारे लिए क्या किया? हमारे साथ क्या हुआ और क्या नहीं? असली बात यह है कि जो भी हुआ, उसके साथ हमने खुद को कैसे संचालित किया? प्रेम से अथवा ईर्ष्या से अथवा किसी और भावना से क्योंकि प्रत्येक कार्य में भावना प्रधान है, हमें स्नेह की, प्रेम की भावना कितनी भर-भरकर मिली है, ज़रा झरोखे खोलें तो सही!
विश्वास है मित्र मेरी बात से सहमत होंगे, न हों- तब भी बता दें मित्रों मैं स्वयं में झाँककर देख लूँगी कि भाई कहाँ गड़बड़ी की है और हाँ, उसके लिए हृदय धन्यवाद भी दूँगी क्योंकि आप मेरी भलाई के लिए ही इंगित करेंगे न!
स्नेह
आपकी मित्र